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________________ प्रश्न-33. एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि तेरापंथी साधु-साध्वी पंखे का उपयोग करते हैं। उसमें उनका आशय शासन की प्रभावना करने का है या शरीर की सुखशीलता को पुष्ट करने का है? पंखे के उपयोग में वायुकाय की विराधना तो स्पष्ट है ही। तदुपरांत कितनी बार उड़ते हुए पंछी वगैरह की भी वहाँ विराधना होती है। तब फिर पंखे का उपयोग तेरापंथी साधु किस लिए करते हैं? यह बात समझ में नहीं आती। क्या इससे जीवनभर षड्जीवनिकाय की हिंसा का त्याग करने का महाव्रत दूषित नहीं होता? 14 पूर्वधर श्री स्वयंभवसूरिजी महाराज ने तो दशवैकालिकसूत्र में 'चलेण वा चेलकणेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमेज्जा न वीएज्जा' (द.वै. 4/4) ऐसा कह कर 'वस्त्र द्वारा या वस्त्र के अंचल से अथवा हाथ द्वारा या मुंह द्वारा स्वयं के शरीर को अथवा बाहर की किसी भी चीज़ को फूंकने का, बुझाने का कार्य साधु मन-वचन-काया से करना-कराना-अनुमोदना छोड़े'इस प्रकार की वायुकाय की रक्षा की बात बताई है। 14 पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी महाराज ने भी आचारांग नियुक्ति में 'वियणे अ तालयंटे सप्पसियपत्त चेलकण्णे य। अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउसस्थाई॥' (आ.नि.श्रु. 1/अ. 1/3.7/गा. 170) ऐसा कहकर उन्होंने वीजणापंखा वगैरह की, वायुकाय की हिंसा के साधन के रूप में पहचान कराकर उनसे दूर रहने की सलाह दी है।" उत्तर- पंखे के चलने से वायुकाय की विराधना होती है, जो साधु के लिए कृतकारित-अनुमोदित मनसा, वाचा, कायेन वर्ण्य है। किन्तु जहाँ पंखा चलता हो, वहाँ बैठने से वायुकाय की विराधना का कोई प्रसंग नहीं होता। यदि पंखे को साधु चलवाये या चलते हुए का अनुमोदन करे, तो अवश्य वह दोष का भागी बनेगा। जहाँ साधु बैठे हों वहाँ अन्य कोई व्यक्ति अपनी सुविधा के लिए पंखा चलाए, तो उसमें साधु को दोषी ठहराना संगत नहीं है। उस स्थिति में साधु का कर्तव्य है कि वह अपने भावों का संयम करें- पंखे से मिलने वाले सुख की कामना न करे। मन से भी अनुमोदन न करे। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे निश्चित ही दोष लगेगा, यह स्पष्ट है। जैसे गृहस्थ हिंसा कर अपने निमित्त से भोजन, पानी, वस्त्र, मकान, औषध आदि का निर्माण करता है और साधु को देने पर साधु उसे शुद्ध (निर्दोष) आहार, पानी आदि के रूप में ग्रहण करता है, तो साधु को कोई दोष नहीं लगता, पर यदि साधु के भावों में इन सबके प्रति किसी प्रकार की भावना हो या मानसिक अनुमोदन भी हो तो साधु दोष का भागी बनता है। वैसे ही तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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