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________________ पंखे के संबंध में है। पंखे की हवा लगने मात्र से उसकी हिंसा में साधु को संभागी मान लेने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। इसमें कहीं दो राय नहीं हैं कि साधु को न स्वयं विद्युत् संचालित पंखा चलाना कल्पता है, न चलवाना और न अनुमोदन करना। इसमें भले ही विद्युत् निर्जीव है, हाथ पंखा भी तो निर्जीव ही है, पर उसका प्रयोग साधु के लिए त्रिकरण-त्रियोग से वर्ण्य है। उसी प्रकार विद्युत् चालित पंखे में भी है। ___ अब यदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए पंखा चलाता है, वहां साधु को रहना कल्पता है या नहीं? इस प्रश्न का गंभीर चिन्तन जरूरी है। यदि साधु गृहस्थ द्वारा चालित पंखे का अनुमोदन (मनसा, वाया, कायेन) न करे और माध्यस्थ भाव से वहां स्थित हो तो वायुकाय की विराधना का दोष साधु को कैसे लगेगा? क्योंकि पंखे द्वारा हो रही वायुकाय की हिंसा में साधु की उपस्थिति किसी भी रूप में निमित्तभूत नहीं है। इस विषय की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। यदि जहां पंखा चलता हो वहां साधु को रहना ही नहीं कल्पता तो फिर पंडाल आदि में रहना कैसे कल्पेगा? इसलिए यह स्पष्ट है कि जिस क्रिया में साधु त्रिकरण-त्रियोग से जुड़ा हुआ नहीं है, उसका दोष साधु को नहीं लगता। . गृहस्थ अपने उपयोग के लिए जिन साधनों का प्रयोग करता है और उनमें वहां वायुकाय या त्रसकाय या अन्य कोई भी जीवों की हिंसा होती है, तो उसका पाप गृहस्थ को लगता है। यदि साधु उसको न करता है, न कराना है, न अनुमोदन करता है तो उसका दोष साधु को नहीं लगेगा। माइक, लाईट आदि की चर्चा भी हम कर चुके हैं। प्रश्न-34. दूसरी एक महत्त्व की बात यह है कि विद्युत् प्रकाश के उपयोग में मात्र स्थावरकाय और त्रसकाय जीवों की विराधना का दोष लगता है, ऐसा नहीं है। इलेक्ट्रीसीटी की उत्पत्ति में भी बहुत सारे त्रसकाय पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा का महादोष लागू पड़ता ही है। जिन महानदियों में डेम बाँधकर टरबाइन के माध्यम से विद्युत् उत्पन्न की जाती है, वहाँ टरबाइन के तीक्ष्ण दाँतों से लाखों मछलियों की हिंसा होती है। टरबाइन के दाँतों में फंसकर कटी हुई मछलियों के थोकबंद माँस से टरबाइन बंध न हो जाए, इसलिए प्रत्येक छ:-आठ घंटों के अन्तर में उसके दाँतों को साफ करते हैं। उसमें से टनबंध माँस निकलता है। टरबाइन के पास में बहता हुआ पानी भी मछलियों के खून से लाल हो जाता है। इतनी घोर हिंसा के बाद इलेक्ट्रीसीटी उत्पन्न होती है। इस प्रकार की हिंसा का - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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