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________________ है। पदार्थ में विद्यमान स्थित विद्युत् (Static electricity) धातु के तार में प्रवाहमान प्रवाह रूप विद्युत् तथा ऑक्सीजन और ज्वलनशील पदार्थ के अभाव में होने वाले 'डीस्चार्ज' रूप विद्युत् आदि अपने आप में निर्जीव हैं । प्रश्न-21 " हालाँकि ओघनियुक्ति वगैरह में निर्जीव तेउकाय के नाम मिलते हैं । परन्तु उन निर्जीव तेउकाय के नामों में कहीं भी बिजली का नाम तो देखने को नहीं मिलता। इसके विपरीत बिजली का निश्चय से सजीव होने का उल्लेख ओघनिर्युक्ति में 'विज्जुयाइ निच्छइओ' (गा. ३५८) इन शब्दों से तथा पिंडनियुक्ति में 'विज्युयाइ निच्छयओ' (गा. ३६) इन शब्दों द्वारा मिलता है । ओघनियुक्ति व्याख्या में द्रोणाचार्यजी लिखते हैं कि‘विद्युदादिको नैश्चयिको भवति' (गा. ३५९ वृत्ति) तथा पिंडनिर्युक्तिव्याख्या में समर्थ टीकाकार श्रीमलयगिरिसूरिजी महाराज ने भी अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'विद्युदुल्का - प्रमुख : तेजस्कायो निश्चयतः सचित्त:' (गा. ४२ वृत्ति) ज्यादा महत्त्व की एक बात यह है कि अत्यन्त लाल तपे हुए महाकाय लोहे के गोले के एकदम अन्दर शुद्ध अग्निकाय के जीव तथा ईंट की भट्टी के नीचे के मध्य भाग में निश्चय से बादर तेउकाय के जीव होते हैं - यह बात आगमज्ञों के लिए प्रसिद्ध है । श्रीज्ञाताधर्मकथाव्याख्या में श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने 'शुद्धाग्निः अयस्पिण्डान्तर्गतः अग्निः' (१,१६,१६३) ऐसा बताया है तथा जीवाभिगमसूत्र व्याख्या मे और पन्नवणा व्याख्या में श्री मलयगिरिसूरिजी महाराज ने बताया है कि 'शुद्धाग्निः अयः पिण्डदौ ' (जीवा. १,३३ पन्न, पद- १,३१ वृत्ति) अर्थात् एकदम लाल तपे हुए लोहे के गोले इत्यादि शुद्ध अग्निकाय जीव होते हैं। मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा ने जीवसमास व्याख्या में ‘अयस्पिण्डाद्यनुविद्धो ज्वालादिरहितः अग्निः' (गा. ३२) ऐसा कहकर गरम लोहे के गोले में अग्निकाय जीव को स्वीकार किया है । दशवैकालिकवृत्ति में श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने 'अग्नि अयःपिण्डानुगतम्' (द.वै. ८,१८ वृत्ति) ऐसा कह कर अत्यन्त तप्त और एकदम लाल बन चुके लोहे के गोले के भीतर में बादर अग्निकाय जीव होते हैं - ऐसा सूचित किया है । इसीलिए वहाँ ऐसे गरम लोहे के गोलों का संघट्टा (स्पर्श) न हो जाए, इस आशय से सावधानी रखने की सूचना साधु भगवंतों को दी है। पिंडनिर्युक्ति में अत्यंत स्पष्ट रूप से श्री भद्रबाहुस्वामीजी द्वारा कहा गया है कि 'इट्ठगपागाईण बहुमज्झे, विज्जूयाइ निच्छइओ' (गा. 36) अर्थात् ईंट की भट्टी के मध्य भाग में निश्चय से सजीव बादर तेउकाय होते हैं। ओघनियुक्ति में भी श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने 'इट्ठगपागाइणं बहुमज्झे, विज्जुयाइ निच्छइयो' (गा. ३५९ ) ऐसा बताया है। तदनुसार गच्छाचारपयन्ना व्याख्या में श्रीवानर्षिगणी ने भी 'इष्टकापाकादिमध्यगो विद्युदादिकश्च तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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