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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 124 के बाद प्रश्न- 20 इलेक्ट्रीसीटी को निर्जीव बताने वाला आगम पाठ कौन-सा है?48 उत्तर- यदि किसी आगम में जब यह पाठ नहीं है कि "इलेक्ट्रीसीटी" सचित्त तेउकाय है, तब यह अपेक्षा करना कि उसे निर्जीव सिद्ध करने वाला आगमपाठ कौनसा है कैसे संभव है? इसी प्रकार "यदि इलेक्ट्रीसीटी निर्जीव होती, तो सर्वज्ञ द्वारा जरूर यह बात आगम में प्रतिपादित हो जाती", इस तर्क के प्रतिपक्ष में क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि "यदि इलेक्ट्रीसीटी सजीव होती, तो आगम में यह तथ्य जरूर प्रतिपादित हो जाता"? इस प्रकार के व्यर्थ तर्क-विर्तक से क्या हम किसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं? हमें जो चिन्तन करना है वह यह होना चाहिए कि आगम में ऐसे कौन-से तथ्य उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह बहुत स्पष्ट अनुमान किया जा सके कि इलेक्ट्रीसीटी सजीव है या इलेक्ट्रीसीटी निर्जीव है। हमने प्रारम्भ में ही इलेक्ट्रीसीटी और स्निग्धत्व-रूक्षत्व नामक पुद्गल-गुणों को विस्तार से जो विवेचन किया था, वह आगम आधारित ही है। उसी विवेचन के परिप्रेक्ष्य में-स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श और इलेक्ट्रीसीटी की समानता से यह स्पष्ट होता है कि इलेक्ट्रसीटी मूलत: पुद्गल का मौलिक गुण है। जैन आगमों में स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श के आधार पर ही परमाणु से स्कन्ध बनने की प्रक्रिया को बताया गया है। यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि जैन दर्शन और विज्ञान दोनों ने सभी पदार्थों की रचना में स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श अथवा ऋण (Negative) और घन (Positive) इलेक्ट्रीक चार्ज को ही आधारभूत माना है। इससे बढ़कर और क्या आगम प्रमाण इलेक्ट्रीसीटी को निर्जीव मानने के लिए हो सकता है? जैन दर्शन ने शरीर में दस प्राण के रूप में जैव विद्युत् की ऊर्जा को स्वीकार कर तथा अब वैज्ञानिकों ने जैव विद्युत् को समस्त शारीरिक क्रिया का आधार बनाकर स्पष्ट रूप से निरूपण किया है कि यह पौद्गलिक शक्ति किस प्रकार जीव द्वारा प्रयुक्त होती है और सभी प्राणी इस प्राण यानी जैव विद्युत् की ऊर्जा से ही जीवित है। इन आधारों पर कहीं पर भी कोई शंका नहीं रह जाती कि मूलतः अपने आप में इलेक्ट्रीसीटी भौतिक या पौद्गलिक परिणमन है, ऊर्जा है। इसी के विभिन्न परिणमन ध्वनि, प्रकाश, गति, चुंबकत्व, उष्मा आदि के रूप में होने का तात्पर्य यही है कि ये सारे भौतिक ऊर्जा के रूप में इलेक्ट्रीसीटी के रूपान्तरण-स्वरूप उत्पन्न हो सकते हैं। जब तक इलेक्ट्रीसीटी का रूपान्तरण कंबश्चन द्वारा अग्नि का रूप धारण नहीं करता, तब तक वह पौद्गलिक ही 24 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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