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________________ नैश्चयिक:' (गा.७५) ऐसा कह कर 'ईंट की भट्टी वगैरह के मध्य भाग में स्थित अग्नि तथा बिजली इत्यादि नैश्चयिक सजीव अग्निकाय जीव है' ऐसा स्पष्ट रूप से बताया है। ' जत्थ इंगाला कज्जति सा इंगालकारी, तत्थ य वाऊक्कातो' (१६,१,६६२ ) इस तरह भगवतीचूर्णि के वचनानुसार जहाँ अंगारे बनाने में आते हैं वहाँ वायुकाय होता है, इस प्रकार के सिद्धान्त अनुसार तथा भगवतीसूत्र में 'न विणा वायुकाएणं अगणिकाए उज्जलइ' (शतक - १६, उद्देशो - १, सूत्र - ६६२ ) इस प्रकार बताए अनुसार 'वायु के बिना अग्नि जल नहीं सकती' इस नियम के मुताबिक एकदम लाल हो चुके गरम लोहे के महाकाय गोले के मध्यभाग में, ईंट की भट्टी के अन्दर के मध्य भाग में, कुम्हार की भट्टी के मध्य भाग में बादर वायुकाय का अस्तित्व... मान्य करना पड़ेगा ही । वहाँ वायुकाय किस प्रकार पहुँचेगा? अपने अनुभव में आने वाले वायु का तो दिवाल इत्यादि द्वारा प्रतिघात / प्रतिबंध / अवरोध होता है । इसलिए अत्यन्त तप्त नक्कर लोहे के बड़े गोले के मध्य भाग में तथाविध अप्रतिघाती (लोहे आदि नक्कर धातुएँ भी जिसके आवागमन में अवेराध - अटकाव न करें) ऐसे वायु का अस्तित्व सिद्ध होता है । सात लाख योनि वाले विविध वायु के सापेक्ष भाव से प्रतिघाती - अप्रतिघाती इत्यादि प्रकार मानने में किसी भी प्रकार का आगम विरोध नहीं आता है । अत्यन्त लाल तपे हुए नक्कर (ठोस) लोहे के बड़े गोले में किसी भी प्रकार से जिसका प्रतिघात / अवरोध (रूकावट) नहीं हो सकता, ऐसे वायु का प्रवेश हो सकता है तो खोखले/पोले बल्ब में तथाविध अप्रतिघाती वायु का प्रवेश क्यों नहीं हो सकता? 'पुढ़वी दग अगणि मारूअ इक्किक्के सत्तजोणि लक्खाओ' (गा. ९६८ ) ऐसा कह कर प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ में माननीय श्री नेमिचंद्राचार्यजी ने अग्निकाय की तरह वायुकाय की भी सात लाख योनि बताई हैं । इसलिए विविध प्रकार के वायु में से कुछ निश्चित प्रकार के वायु का अस्तित्व और प्रवेश तो लाल तपे हुए लोहे के गोले, भट्टी के अन्दर के मध्यभाग, बल्ब इत्यादि में आगमानुसार भी स्वीकार किए बिना नहीं चल 149 सकता।' उत्तर- ओघनिर्युक्ति, पिडंनिर्युक्ति तथा व्याख्या ग्रन्थों (जैसे पिंडनिर्युक्ति व्याख्या, ज्ञाताधर्म कथा व्याख्या, पण्णवणा व्याख्या, जीव समास व्याख्या, दशवैकालिक वृत्ति, गच्छाचारपयन्ना व्याख्या आदि) में जो उल्लेख है, उनमें मूल पण्णवणा, दशवैकालिक आदि आगमों में प्रतिपादित अग्नि के स्वरूप को ही पुष्ट किया गया है, नया कुछ भी नहीं है । 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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