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________________ अग्निकाय है' ऐसा कोई भी शास्त्र-पाठ बताए बिना उसे अचित्त निर्जीव के रूप में किस प्रकार से जाहिर किया जा सकता है? शास्त्राधार बिना अपनी मरज़ी के मुताबिक विद्युत्-प्रकाश को निर्जीव रूप से ज़ाहिर करने का अधिकार असर्वज्ञ को किस प्रकार से मिल सकता है?' उत्तर - जैसे सूर्य का आतप शास्त्राधार से निर्जीव मानने में कोई आपत्ति नहीं है, वैसे ही इलेक्ट्रीसीटी (यानी स्निग्ध-रूक्ष गुणधर्म) को भी पौद्गलिक परिणमन की क्रिया-रूप स्वीकार करने में कहाँ आपत्ति है? शब्द, आतप आदि की भाँति ही यह एक सार्वभौम पौद्गलिक परिणमन ही है, जो वैस्रसिक, प्रायोगिक और मिश्र- तीनों रूप में संभव है। शास्त्रों में पुद्गल के परिणमन के अन्तर्गत जो स्निग्ध की चर्चा है, वह "इलेक्ट्रीसीटी" की ही है। केवल शब्दान्तर या भाषा-प्रयोग का अन्तर है। इसी प्रकार तेजोलेश्या या (तैजस् वर्गणा के पुद्गलों) के संबंध में उपलब्ध शास्त्रीय चर्चा से भी इलेक्ट्रीसीटी की पौद्गलिकता भली-भाँति सिद्ध हो जाती है। इस विषय की चर्चा भी हम प्रश्न 20 के उत्तर में कर चुके हैं। प्राचीन साहित्य की भाषा को समझना जरूरी है। स्निग्ध-रूक्ष का अर्थ ऋण-घन विद्युत् के रूप में स्वीकृत होने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इलेक्ट्रीसीटी स्वयं पुद्गल के मूल स्पर्श गुण की द्योतक है। रूक्ष-स्निग्ध से आकाशीय विद्युत् की उत्पत्ति बताने वाले प्राचीन पाठ (जिसको उद्धृत किया जा चुका है) इस तथ्य के प्रमाण हैं। जैन दर्शन में वर्णित पुद्गल परमाणु और पुद्गल-स्कन्ध के निर्माण में मूल भूमिका स्निग्ध-रूक्ष की है, वैसे विज्ञान के अनुसार सभी मूलभूत तत्त्व (element) के परमाणु की संरचना में ऋण और घन विद्युत् की ही मुख्य भूमिका है। जब इतना स्पष्ट प्रमाण हमें मिल जाता है, तब फिर क्यों हम उसे स्वीकार न करें? इसमें कहीं भी संशय या अनिश्चय नहीं है। प्राण, लेश्या आदि का शास्त्रीय विवेचन भी भली-भांति बताता है कि ऋण-घन विद्युत्, विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों का विकिरण आदि को आगमकारों ने अपनी शब्दावली में प्रस्तुत किया है। दूसरी ओर जब विज्ञान प्रत्यक्षतः इन जैन अवधारणाओं का ही समर्थन करता हुआ जैविक प्रक्रियाओं के लिए जैव विद्युत्, आभामण्डल आदि को व्याख्यायित करता है, तब जैन दर्शन में श्रद्धाशील के लिए तो बहुत ही गौरव का विषय बनता है कि कैसे हमारे प्राचीन ज्ञानियों ने इतने सूक्ष्म विषयों को अपने प्रकार से स्पष्ट किया था। आज तो विज्ञान के क्षेत्र में प्राण-प्रक्रिया, आभामण्डलीय परिणमन (यानी लेश्या के रंगों के 46 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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