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आचार्य महाप्रज्ञ ही नहीं, अनेक अन्य जैन विद्वानों तथा दूसरे विद्वानों ने सैकड़ों • ऐसी बातों को विज्ञान के आधार पर स्पष्ट कर जैन दर्शन की वैज्ञानिकता को 'व्यवहार'
के धरातल पर सुस्पष्ट किया है, वहां अगर ऐसा माना जाए कि सर्वत्र-प्रणीत तत्त्व को विज्ञान के द्वारा नापने की कोशिश हो रही है या सर्वज्ञ के प्रति अश्रद्धा हो रही है, तो उचित नहीं है। जैसे पहले भी बताया गया है कि सर्वज्ञ प्रणीत बहुत सारे तथ्य सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए अथवा उसके पीछे रही सापेक्षता क्या है, उसे भलीभांति ग्रहण करने के लिए विज्ञान की अवधारणाएँ जहां सहायक बनती हैं, वहां उनका उपयोग हमारे सम्यग् बोध को ही स्पष्ट करेगा, सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्व के प्रति अश्रद्धा नहीं।
अस्तु प्रस्तुत प्रसंग- इलेक्ट्रीसीटी क्या है? सजीव है या निर्जीव? आकाशीय विद्युत् (lighting), तार में प्रवाहमान विद्युत् प्रवाह (electric current) और मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जीवित शरीर में कार्यरत विद्युत् (bio-electricity) कहां तक सदृश है, कहां तक विसदृश आदि विषय तो निश्चित रूप से विज्ञान की अवधारणाओं, सिद्धान्तों और प्रयोगों से जितने स्पष्ट समझे जा सकते हैं, उतने एकांगी ज्ञान से नहीं— यह अपने आप में ही निर्विवाद है। उदाहरणार्थ वनस्पति जीव है, यह जैन आगमों में प्रतिपादित है। आज विज्ञान ने अनेक प्रयोगों से वनस्पतिकाय में होने वाले संवेदन, भाव आदि को स्पष्ट कर दिया है। इससे उन जीवों में विद्यमान आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा, परिग्रहसंज्ञा आदि स्थानांग सूत्र में प्रतिपादित दस संज्ञाओं को भली-भाँति समझने में और सुविधा होती है। तो क्या हम ऐसे वैज्ञानिक तत्त्वों की उपादेयता को अस्वीकार करें? प्रत्युत् इन प्रयोगों से तो सर्वज्ञ-प्रणीत ज्ञान के प्रति हमारी श्रद्धा और सुदृढ़ होगी। इसी प्रकार यदि कोई वैज्ञानिक शोध आदि द्वारा पृथ्वी आदि जीवों के जीवत्व को समझाने में सुविधा होगी तो क्या हम उन्हें नहीं मानेंगे?
प्रश्न-27. दूसरी एक महत्त्व की बात यह है कि ओघनियुक्ति, आचारांगसूत्र वगैरह आगमों में बताए अचित्त अग्निकाय, अचित्त अप्काय वगैरह पदार्थों की निर्जीव मानने में और हमारे प्रस्तुत विश्लेषण में कोई भी विरोधाभास नहीं है। सूत्रकृतांग (श्रुतस्कंध-1/अध्य. 5/उद्देशो 1/गा. 10 से 39) और उत्तराध्ययन (19/24-44-45) सूत्र में बताए मुताबिक नरक में अग्निकाय जीव नहीं होने पर भी वहाँ पर सख्त गरमी होने को हम स्वीकार करते हैं । सूर्य के गरम किरणों को हम शास्त्र अनुसार निर्जीव ही मानते हैं। ये सभी बातें निर्विवाद रूप से हमें मान्य ही हैं। हम जुगनू को अग्नि नहीं मानते तथा शरीर की गर्मी को अथवा चन्द्रमा के किरणों को या स्वयं प्रकाशक मणिरत्न इत्यादि के उद्योत को सजीव अग्निकाय नहीं मानते। किन्तु 'बिजली निर्जीव तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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