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________________ आत्मा, कर्म, स्वर्ग, नरक, निगोद में अनंत जीव, मोक्ष, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा वगैरह में से एक भी तत्त्व को नापने की फुटपट्टी जिस आधुनिक साइन्स के पास नहीं है, उसके आधार पर सर्वज्ञकथित आध्यात्मिक अतीन्द्रिय तत्त्वों को नापना-जाँचना यह तो जन्मांध व्यक्ति द्वारा दिए गए श्वेत-श्याम आदि रूप के फैसले को मान्य रखने जैसी बात हुई। श्वेत आदि रूप से सम्बन्धित निर्णय करने में हजारों जन्मांध व्यक्तियों के फैसले की तुलना में किसी एक ऐसे व्यक्ति का फैसला, जो आँख से देख सकता है, उसे मान्य करने में ज्यादा बुद्धिमत्ता है। छद्मस्थ जीव बुद्धिशाली हों, फिर भी अतीन्द्रिय बाबत में तो केवल सर्वज्ञ वीतराग भगवंत का ही निर्णय मान्य हो सकता है। उत्तर-जहां आगम द्वारा स्पष्ट प्रतिपादन उपलब्ध हो, वहां विज्ञान के आधार पर आगम की छानबीन की अपेक्षा नहीं होती पर जिस विषय में आगम स्पष्टतः कोई विधान-निषेध नहीं करता वहां विज्ञान द्वारा प्रस्तुत अवधारणा से बिल्कुल परहेज करना सत्य-संधित्सु के लिए कहां तक उचित होगा? आज विज्ञान के क्षेत्र के ऐसे विवेचन हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो सामान्य इन्द्रियज्ञान से जानना संभव नहीं है। उनके आधार पर हम सत्य की खोज की दिशा में आगे बढ़े तो उसमें कहाँ आगम के प्रति हमारी श्रद्धा में कमी आती है? बल्कि बहुत-से ऐसे विषय जो आगमों में केवल संकेत रूप में या अज्ञात अपेक्षा से प्रतिपादित हैं, उन्हें विज्ञान द्वारा स्पष्ट करना हमारी आगम-श्रद्धा को और अधिक दृढ़ करता है। जहां जैनाचार्यों द्वारा यहां तक की उदारता व्यक्त है __पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ "न मेरा वीर के प्रति पक्षपात है, न कपिल आदि के प्रति द्वेष है। जिसका वचन युक्तिसंगत है, उसका ही ग्रहण करना चाहिए।" वहां यदि कोई विज्ञान के युक्तिसंगत ही नहीं, स्पष्ट प्रयोगों से प्रमाणित सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पर आधारित और आगम अविरोधी तथ्यों को भलीभांति कसकर काम में लेता है, तो भी उसे ऐसा मानना कि वह फ्रेम के अनुसार फोटो की कांटछांट कर रहा है, क्या अपनी आग्रह-बुद्धि का ही प्रदर्शन नहीं है? जब "इलेक्ट्रीसीटी" का विषय सीधे रूप में आगम में चर्चित ही नहीं है, वहां आगम द्वारा प्रदत्त अन्य संकेत तथा विज्ञान द्वारा प्रदत्त सर्वमान्य/सर्वग्राह्य अवधारणा को आधार मानकर उसके स्वरूप का विवेचन ही हमारे लिए "व्यवहार" का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बचता है। 44 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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