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________________ विज्ञान के आधार पर स्थावर जीवों के जीवत्व - अजीवत्व की मीमांसा कैसे कर सकते हैं? पर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु के स्वरूप समझने में यदि हमें वैज्ञानिक सिद्धान्त सहायक होते हैं, तो भी उनका परहेज करना यह कहाँ तक ठीक है? एक ओर विज्ञान को अपूर्ण बनाकर उसकी ओथेन्टीसिटी को अस्वीकार करना और दूसरी ओर उसी के आधार पर विद्युत् को सचित्त सिद्ध करने की कोशिश करना - क्या ये दोनों असंगत नहीं हैं ? हम न विज्ञान को ओथेन्टिक मानकर उसके समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापते हैं और न ही अतीन्द्रिय पदार्थों को अस्वीकार करने की बात कहते हैं, न हम आगम प्रधानता की अपेक्षा विज्ञान-परस्तता के हामी हैं । हमने आगम के आधार पर ही विद्युत् की अचित्तता तथा विज्ञान के आधार पर ही उसकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया है । आगमसम्मत वैज्ञानिक तथ्यों को झुठलाकर अवैज्ञानिक ( मनगढ़न्त) कल्पनाओं के आधार पर विद्युत् की सचेतनता को सिद्ध करने का प्रयत्न करना- - यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भ्रांतियों एवं पूर्वाग्रहों के जाल से मुक्त हुए बिना न आगम की सही श्रद्धा की पुष्टि हो सकती है और न विज्ञान की आगम- अविरोधी तथ्यों की सही जानकारी । प्रश्न - 26. क्या त्रिकाल अबाधित आगमों में शोध का अवकाश है ? और वह भी विज्ञान के द्वारा आगम को शुद्ध करने का ? क्या सर्वज्ञकथित आगम कमज़ोर हैं कि उन्हें अपनी सत्यता साबित करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़े? विज्ञान के आधार पर आगम में शोध-खोज़ की आवश्यकता हो तो मुख्यतया विज्ञान की साबित होगी या आगम की? तीर्थंकर भगवंत सर्वज्ञ होने से साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से तीन जगत के तमाम पदार्थों को जानते हैं, देखते हैं जबकि विज्ञान के पास तो जानने के साधन भी कमजोर हैं । विज्ञान के साधन कितने भी सक्षम क्यों न हों, फिर भी उनके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार हो सके, ऐसी कोई संभावना भी नहीं है । एक तरफ विज्ञान के साधनों को पंगु स्वीकार करना और इसके बावजूद भी विज्ञान के आधार पर आगम में छानबीन करनी यह तो फ्रेम के नाप अनुसार ऐतिहासिक चित्र को काटने जैसा हुआ । इसमें विद्वत्ता भी किस प्रकार से कही जा सकती है। वास्तव में तो फ्रेम के नाप अनुसार फोटो को काट कर दीवार पर लटकाने के बजाय फोटो के नाप के अनुसार फ्रेम तैयार करनी, यही बुद्धिमत्ता की निशानी है। फोटो यानी सर्वज्ञ- वीतरागकथित तत्त्व और फ्रेम यानी आधुनिक साइन्स के समीकरण । तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only 43 www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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