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________________ अचित्तभक्षणनिमित्तकलाभ। इस दृष्टिकोण से विचार करते हुए कह सकते हैं कि उपर्युक्त अनेक आगम प्रमाण इत्यादि द्वारा किसी व्यक्ति को 'इलेक्ट्रीसीटी और विद्युत् प्रकाशदोनों सजीव हैं' यह निर्णय न होने पर भी 'यह सजीव है या निर्जीव?' इस प्रकार की शंका भी हो तो ऐसे शंकाग्रस्त साधक को माइक-लाइट इत्यादि का उपयोग करने से तेउकाय विराधना-निमित्तक कर्मबंध ही होता है। इतनी बात तो निश्चित ही है। अभी तक जो यहाँ विचार किए गए हैं, उनसे प्राज्ञों को इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश इत्यादि की सजीवता के सम्बन्ध में शंका भी उत्पन्न न हो, क्या यह संभव है?' *84 उत्तर–सर्वप्रथम तो शंका के लिए स्थान ही नहीं है। उपर्युक्त समग्र विवेचन से जब यह भली-भाँति स्पष्ट है कि इलेक्ट्रीसीटी अपने आप में केवल पौद्गलिक परिणमन ही है, तब फिर शंका के लिए अवकाश कहां है? जहां तक लाइट-माइक आदि का सम्बन्ध है, उसके लिए जैसे ऊपर स्पष्ट किया गया है कि यदि साधु कृत-कारितअनुमोदित से मुक्त रहता है तो फिर उसे कैसे उसका दोषी माना जाएगा? ___अपने व्यवहार में अपने निर्णय का आधार अपना विवेक एवं संयम ही बनता है। भोजन आदि के ग्रहण में भी शंका का निवारण का आधार अपना विवेक एवं संयम ही होता है। उसके आधार पर शंका-रहित होकर ही साधु भोजन आदि ग्रहण करते हैं। उसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी जब यह शंका नहीं है कि इलेक्ट्रीसीटी शायद सजीव हो तो उसी आधार पर निर्णय किया जाएगा। इलेक्ट्रीसीटी के कौन-से प्रयोग में यह संभावना है, इसका निर्णय करके ही यानी शंकामुक्त होकर ही उस संबंध में व्यवहार किया जाए तो कहां आपत्ति है? सन्दर्भ : 48. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 64 49. वही, पृष्ठ 65-67 50. भगवती सूत्र (भगवई), अंगसुत्ताणि खंड 2, 5/2/51-54 51. "अह णं भंते! ओदणे, कुम्मासे, सुरा-एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिय् ? गोयमा! ओदणे, कुम्मासे, सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया, सत्थपरिणामिया, अगिणज्झामिया, अगणिझूसिया, अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। सुराए य जे दवे दव्वे-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया॥ 58 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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