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तो उसको वह ग्रहण करके छोड़ता रहता है। यह ताप का मिलना/प्राप्त करना जैसे अन्य अग्नि से होता है, वैसे सूर्य की गर्मी से भी हो सकता है। अत: वह पिंड अचित्त की श्रेणी में ही है।
प्रश्न-22. भगवतीसूत्र में तो स्पष्ट रूप से वायुकाय को अग्निकाय की तुलना में अल्प अवगाहना वाला (कद वाला) बताया है तथा वायुकाय से अग्निकाय स्थूल ही है। ये हैं भगवतीसूत्र के शब्द- 'भंते! तेउक्काइयस्स वाउक्काइयस्स कयरे काए सव्वबायरे कयरे काए सव्वबायरतराए? गोयमा! तेउक्काए सव्वबादरे तेउक्काए सव्वबादरतराए' (भग. 19/3/763) इस प्रकार तपे हुए लोहे के गोले में स्थूल अग्निकाय और वायु का प्रवेश शास्त्र सिद्ध होने से प्रकाशमान बल्ब में आवश्यक वायु का प्रवेश होने में कोई शास्त्रविरोध दिखलाई नहीं पड़ता।
1. वायुकाय की अवगाहना तेउकाय से अल्प है तथा वह तेउकाय की अपेक्षा सूक्ष्म है। इस बात से तो यही सिद्ध होता है कि विद्युत्-प्रवाह तेउकाय नहीं है, क्योंकि विद्युत्-प्रवाह निश्चित रूप से वायु से सूक्ष्म है। विद्युत्-प्रवाह में जो इलेक्ट्रोन कण हैं, वह वायु यानी ऑक्सीजन के मोलीक्यूल (0) की अपेक्षा सूक्ष्म हैं। यदि इलेक्ट्रोन-प्रवाह को तेउकाय माना जाए तो आगम विरुद्ध वचन होता है।
2. जलते हुए दीपक पर काँच का गोला ढ़कने पर दीपक थोड़ी देर में बुझ जाता है, क्योंकि वायु (ऑक्सीजन) का प्रवेश गोले में नहीं होता। यदि सूक्ष्म वायु गोले में प्रवेश नहीं कर सकती तो उससे स्थूल तेउकाय का प्रवेश या निर्गम उसमें कहां से होगा? किन्तु जो दीपक के प्रकाश को भी तेउकाय मानते हैं, वह तेउकाय वायुकाय से स्थूल हैं, फिर भी वह प्रकाश कांच के गोले से बाहर प्रसारित होता है, पर वायु का प्रवेश जो सूक्ष्म है, अन्दर नहीं होता।
3. उक्त आगम वचन की संगति तब होती है जब१. इलेक्ट्रोन के रूप में विद्युत्-प्रवाह को तेउकाय न माना जाए। २. दीपक के प्रकाश को तेउकाय न माना जाए।
३. वायुकाय की सूक्ष्मता को अग्नि की अपेक्षा से इस आधार पर समझा जाए कि अंगारा आदि की अग्नि चक्षु:ग्राह्य है, जबकि हवा या ऑक्सीजन के रूप में वायु चक्षु का विषय नहीं है।
भगवती में जीव की तुलना की गई है। इन स्थावर जीवों की अवगाहना एक
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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