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सूर्य की रोशनी और इलेक्ट्रीसीटी के तार में चलता प्रवाह – ये दोनों केवल पौद्गलिक ऊर्जाएं हैं। गैस-फिल्ड बल्ब में भी कोई प्राणवायु नहीं है । निर्वात बल्ब में भी प्राणवायु रहने नहीं दिया जाता।
शुद्ध अल्यूमिनियम धातु की सतह सीधे प्राणवायु के सम्पर्क में आने पर स्वत: मंद गति से ऑक्सीकृत होती रहती है तथा लोहा भी आर्द्रता की उपस्थिति में मंद गति से
ऑक्सीकृत होता रहता है, जिसे "जंग लगना" कहा जाता है। लेकिन यह सारी क्रिया "जलने की क्रिया" नहीं है। साधारण ऑक्सीडेशन और दहन क्रिया रूप कंबश्चन में अन्तर है। कंबश्चन एक्सोथर्मिक क्रिया है यानी उष्मा का उत्पादन होता है।
9. डॉ. जे. जैन के अनुसार आगम में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता सचित्त तेउकाय का जिसमें प्राणवायु का उपयोग होता हो। जितने उदाहरण दिए गए हैं उनमें या तो जलने की क्रिया के मुताबिक प्राण-वायु का सीधा उपयोग होता है (जैसे-अग्नि, अंगारे, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि, संघर्ष-समुत्थित अग्नि) अथवा आकाशीय विद्युत्, अशनि, उल्का जिनमें प्राणवायु सहचारी के रूप में उपस्थित होती है। प्लाज्मा या आयनीकरण की प्रक्रिया में डीस्चार्ज होकर भी "प्राणवायु" की उपस्थिति के कारण तथा अत्यंत तीव्र तापमान पर ज्वलनशील पदार्थों का प्रयोग मिलने के कारण केवल क्षणभर के लिए भी सचित्त तेउकाय की उत्पत्ति की स्थिति बन जाती है।
"यह ध्यान देने योग्य है कि भट्टी में लोह-अयस्क से लोहा उस समय भी बनता था, किन्तु उसका नाम सचित्त तेउकाय के उदाहरण में नहीं मिलता है। कुम्हार और ईंट की भट्टी का उदाहरण मिलता है, उसमें भी वहां बनते हुए पदार्थ यानी ईंट व बर्तन को सचित्त तेउकाय नहीं बतलाया गया है, केवल उसके मध्य में जलती अग्नि को ही सचित्त तेउकाय बताया गया है। गर्म हुई सूई को भी अचित्त तेउकाय में बताया गया है।
- "इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि तेउकाय या अग्निकाय में केवल प्रकाश का उद्गम स्थान होना भर ही उसको सचित्त तेउकाय नहीं बना देता। प्राणवायु का प्रयुक्त होना एक आवश्यक शर्त है। वह भी जलने की तरह की रासायनिक क्रिया के रूप में।
10. डॉ. जे. जैन ने फिर अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है - यदि प्राणवायु-शून्य वातावरण में गर्म पिघले हुए लोहे को (जो लाल तो होता ही है), दूसरी अग्नि से या अन्य ताप-शक्ति से गर्म करते जाएं तो वह पहले ताप को सोखेगा फिर वो ताप व प्रकाश देता रहेगा, लेकिन यह ताप व प्रकाश खुद पैदा नहीं करता है । यह उसका अपना Self sustaining (स्वपोषी) ताप-प्रकाश नहीं है। यह तो उसको अन्य अग्नि से मिलता रहा,
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004
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