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प्रकाश पैदा नहीं होता। वह ठोस रूप में ही बनी रहती है जैसे चूल्हे पर खाना बनता है वैसे ही भट्टी में लोहा बनता/पकता है। लोहा बनाने के लिए भट्टी में उच्च तापमान पर कुछ रासायनिक प्रक्रियाएँ होनी जरूरी हैं, जो उसमें चूना व अन्य पदार्थ लोह अयस्क के साथ डालकर सम्पन्न की जाती हैं। आग भी जलती है- कोयले और हवा, लेकिन सचित्त तेउकाय तो कोयले के जलने में ही है। लोह-अयस्क का अपचयन (reduction) होता है, न कि अग्नि जलने में होने वाला ऑक्सीकरण। इसलिए यह क्रिया लोहअयस्क का जलना नहीं कहलाती।
"इस तरह से बनता लोहा उसी तरह सचित्त तेउकाय नहीं है, जैसे-इंटा-भट्टी में बनती ईंटें सचित्त तेउकाय नहीं है। प्राचीन काल में भी लोहा-भट्टी में लोहा बनाया जाता था, अतः इसकी जानकारी रखते हुए कहा गया है कि भट्टी के मध्य की अग्नि ही सचित्त तेउकाय है। उसमें बनने वाले लोहे को या गर्म अयस्क को सचित्त तेउकाय नहीं बताया गया है, क्योंकि ऐसा उल्लेख नहीं है।"
"यदि लाल गर्म बनते लोहे का सचित्त तेउकाय के रूप में वर्णन नहीं मिलता है, तो उसको कुम्हार के भट्टे में पकते मिट्टी के बर्तन की तरह ही समझा गया है- ऐसा माना जा सकता है। कुम्हार के भट्टे के मध्य में जो अग्नि जल रही है, उसी को सचित्त अग्निकाय माना गया है। यह अग्नि जलना इसीलिए संभव है कि उसमें ऑक्सीजन की उपलब्धि है यानी ऑक्सीजन (हवा) से जलने की प्रक्रिया को ही सचित्त तेउकाय की उत्पत्ति के लिए एक आवश्यक शर्त के रूप में माना गया है, ज्वलन-बिन्दु के ऊपर ऑक्साइड बनाना।"
इसे भगवती में बताया है-"वायु के बिना अग्नि नहीं होती।" ज्वलन-बिन्दु के ऊपर तापमान का होना तथा ऑक्साइड का बनना-ये सचित्त तेउकाय (अग्नि) के अनिवार्य अंग हैं। "अतः ऑक्सीजन (हवा या प्राण-वायु) की प्रक्रिया का होना सचित्त तेउकाय पैदा होने के लिए अनिवार्यता दर्शाना है।''61
__ "जैसे सूर्य की रोशनी से खाना बनता है या पकता है, बिना अग्नि काय को काम में लिए (सौर-चूल्हा) उसी प्रकार बल्ब का फिलामेंट तार गर्म होकर प्रकाश पैदा करता है। बिजली (electricity) के प्रवाह के कारण यानी बिना अग्निकाय के प्रयोग के (क्योंकि प्राणवायु से जलने वाली अग्नि का इसमें अभाव है।) इससे विचार होता है कि जलता बल्ब अचित्त ही है, जब तक उसका फिलॉमेंट प्राणवायु के संदर्भ में आकर जलता नहीं है। 2
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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