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" भन्ते ! अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध चर्म, रोम, दग्ध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?"
__"गौतम! अस्थि, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख-ये त्रस प्राण-जीवों के शरीर हैं। दग्ध अस्थि, दग्ध चर्म, दग्ध रोम, दग्ध सींग, दग्ध खुर और दग्ध नख-ये पूर्व पर्यायप्रज्ञापन की अपेक्षा त्रस-प्राण जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निरूप में परिणत होने पर इन्हे अग्नि-जीवों का शरीर कहा जाता है।"
"भंते ! अंगार, राख, बुसा, और गोबर-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?
गौतम! अंगार, राख, बुसा और गोबर-ये पूर्व- पयार्य-प्रज्ञापन की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित भी है, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित है। उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत यावत् अग्नि-रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता हैं।" "50
भगवती-भाष्य 51 में आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इन सूत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है
"प्रस्तुत आलापक में परिणामवाद अर्थात् तद्रूप अथवा तन्मय पर्यायवाद का निरूपण है। इस सिद्धान्त का प्रयोग दर्शन और ध्यान दोनों क्षेत्रों में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्य जिस भाव में परिणत होता है, तत्काल वह तन्मय बन जाता है। 2 आत्मा जिस भाव में परिणत होता है, वह उस भाव के साथ तन्मय हो जाता है। यह ध्यान का सिद्धान्त है।
पूर्व पर्याय में जो वनस्पति-जीव का शरीर था, वह अग्निरूप में परिणत होकर अग्नि-जीव का शरीर बन जाता है। यह उत्तरवर्ती पर्याय है। यह पर्याय-प्रवाह का एक निदर्शन है। कोई भी द्रव्य एक रूप में नहीं रहता। उसमें पर्याय का प्रवाह सतत् गतिशील है। इसी सिद्धान्त के अनुसार वनस्पति-जीव, अप्काय-जीव, पृथ्वी-जीव और त्रसकायजीव के शरीर अग्नि-जीव के शरीर-रूप में बदल जाते हैं।
पर्याय-परिवर्तन से होने वाले भावान्तर की चर्चा न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी मिलती है। अग्नि के संयोग से पृथ्वी में कुछ गुण-विशेष का प्रादुर्भाव होता है। इसे 'पाकजगुण' कहा जाता है। उसके अनुसार जल, वायु और अग्नि में पाकज गुण नहीं होता।
पाकज गुण परमाणुओं के भीतर पैदा होता है या अवयवी द्रव्य में? इस प्रश्न को लेकर नैयायिकों और वैशेषिकों में मतभेद है। वैशेषिकों का मत है कि अग्नि का संयोग होने पर घट के समस्त परमाणु पृथक्-पृथक् हो जाते हैं और फिर नवगुणोपेत होकर (पककर) वे संलग्न होते हैं। इस मत का नाम 'पीलुपाक' है।
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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