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________________ तपोभूमि रहा है। इस पावन भूमि पर हिन्दू धर्म के महात्माओं की ही नहीं अपितु सिख, जैन, बौद्ध आदि समस्त धर्मों के महापुरुषों की चरण धूलि पड़ी है और विविध धर्मों के आराध्य स्थल और आराध्यों के स्मृतिचिह्न मिलते हैं। प्रस्तुत लेख में कुमाऊँ मण्डल में यत्र-तत्र विकीर्ण जैन और बौद्ध मन्दिरों एवं आराध्यों के अवशेष या स्मृतिचिह्नों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। -- भौगोलिक दृष्टिकोण से कुमाऊँ मण्डल का वर्तमान विस्तार 28° 98°- 45" 30° 50° उत्तरी अक्षांश तथा 76°6' 80° 58' 15" देशान्तर के बीच है। यहाँ के लोगों की गहरी आचारनिष्ठा, सरलता, धर्मपरायणता और मन्दिरों का बाहुल्य होने के कारण इस क्षेत्र को देवभूमि भी कहा जाता है। कुमाऊँ मण्डल के अन्तर्गत नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चम्पावत बागेश्वर और अधमसिंहनगर जनपद आते हैं। धार्मिक दृष्टि से कुमाऊँ का क्षेत्र मुख्यतः शैवों और शाक्तों की भूमि रही है। अन्य देवी-देवताओं के मन्दिर इनकी तुलना में बहुत कम हैं। शक्ति के मन्दिर प्रायः चौटियों पर एवं शिव के घाटियों में, नदी तट या श्मशान भूमि पर स्थित हैं। इसके अतिरिक्त विविध ग्राम देवताओं और शक्ति के विभिन्न रूपों की यहाँ पूजा की जाती है। जैनधर्म भारत का अति प्राचीन धर्म है। इसमें तीर्थंकर आदर्श और आराध्य माने जाते हैं। इन्हें ईश्वरस्थानीय तत्व कह सकते हैं। तीर्थ का अर्थ है- घाट या किनारा। ऐसे जिनों अर्थात् तरन-तारन (भवसागर से पार उतारने वाले) महात्माओं ने असंख्य जीवों को इस संसार से तार दिया, किनारे लगा दिया। अवतार और तीर्थंकर में मौलिक अन्तर है। वैदिक धर्म के अनुसार 'अवतार' ईश्वर के प्रतिरूप होते हैं जो समय-समय पर अनेक रूपों में जन्म लेते हैं। तीर्थंकर एक ऐसी अवस्था है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक शुद्धि करके परमात्मा बन जाता है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा या ईश्वर बन सकता है किन्तु वैदिक मान्यता का ईश्वर एक है। उसका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गए हैं- ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर। वैसे तो कुमाऊँ में वर्तमान में जैनधर्म के अस्तित्व या प्रभाव का प्रायः कोई भी विशेष प्रमाण नहीं मिल सका है किन्तु कहीं-कहीं पर बिखरे-दबे अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन धर्म का अतीत में वहाँ पर कुछ प्रभाव अवश्य रहा है और कुमाऊँ वासी इस धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार से अछूते नहीं रहे हैं। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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