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________________ 'अग्नि' (कंबश्चन)' यानि 'दहन' की क्रिया जिसमें ऑक्सीजन (प्राण वाय) के साथ जलने की रासायनिक प्रक्रिया होती है, उक्त सभी इसी के अन्तर्गत है। व्यवहार नय में सारी सचित्त अग्नियों में इसी प्रक्रिया को देखा जाता है। इससे स्पष्ट है कि अग्नि को सचित्त बने रहने के लिए प्राणवायु से होने वाली ऑक्सीकरण या दहन क्रिया (कंबश्चन) की एक अनिवार्य अपेक्षा होती ही है। मिश्र तेउकाय - मुर्मुर आदि में भी जलती अग्नि से छिटकाया हुआ एक जल रहा ठोस पदार्थ है, मूलत: यह अंगारे का ही छोटा रूप है।''56 अचित्त तेउकाय-जो पदार्थ अग्नि द्वारा पके हैं, यानि जो पदार्थ सचित्त तेउकाय के साक्षात् सम्पर्क से तैयार होते हैं, वे पदार्थ जब तक अग्निकाय का सम्पर्क रहता है, तब तक सचित्त बने रहते हैं। इनको भी 'आक्सीजन' की आपूर्ती हो, तब तक ये सचित्त रह सकेगें, बाद में अग्नि का सम्पर्क टूट जाने पर अचित्त हो जाएंगे। सचित्त अग्नि के मृत शरीर को 'मुक्केलगा' यानी अग्नि जीवों द्वारा मुक्त शरीर के रूप में "अचित्त अग्नि" के पुद्गल के रूप मे बताएं गये हैं। इस आधार पर अग्नि पर पके हुए भोजन, पेय आदि तथा अग्नि द्वारा तैयार की गई लोहे की सूई को अचित्त तेउकाय कहा गया है, क्योंकि जब वे सचित्त अग्नि के संसर्ग में थे, जब उनमें सचित्त अग्नि का प्रवेश हुआ था। इससे यह तात्पर्य होता है कि ज्योंहि सचित्त अग्नि का सम्पर्क टूट जाता है, ये अचित्त तेउकाय के रूप में रह जाते हैं। इनका सचित्त होना अग्नि के सम्पर्क के कारण ही है। ये स्वयं अपने आप में सचित्त नहीं बनते। यदि स्वयं अग्नि के जीवों का सम्पर्क न हो तो ये गर्म होने पर भी सचित्त अग्नि नहीं होते। जैसे-सूर्य के ताप को अचित्त ही माना जाता है। उसके ताप से गर्म हुआ भोजन या लोहे की सूई अग्नि नहीं बन सकता। दूसरे शब्दों में सूर्य का ताप पौद्गलिक है और उससे गर्म होने वाले पदार्थ भी पौद्गलिक ही हैं-अचित्त हैं। ताप, प्रकाश स्वयं सचित्त नहीं है। सचित्त हैं जलने वाले पदार्थ-लकड़ी, ईधन, लपटें, अंगारे आदि। जैसे सूर्य का प्रकाश, ताप अचित्त पुद्गल हैं, वैसे उसके ताप से गर्म किए हुए पदार्थ भी अचित्त ही है। सूर्य से तप्त होने वाली पृथ्वी की सतह या अन्य पदार्थ अचित्त गरम पुद्गल ही रहते हैं, अग्नि नहीं बनते। लोहे की सूई या गोला जो अग्नि में गर्म किये जाते हैं, अग्नि, के सीधे सम्पर्क में आते हैं । यद्यपि यह गर्म होने से लाल बन जाते हैं, फिर भी वे ताप को केवल सोखते हैं, उत्पन्न नहीं करते। इसका तात्पर्य हुआ कि इनमें सचित्त तेउकाय के जीव अग्नि में से संक्रांत होते हैं। जहाँ इन जीवों को ऑक्सीजन या प्राणवायु मिलती है, वहाँ वे जीवित रह सकते हैं, 30 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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