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लिए तो श्रुतज्ञान की ही सबसे ज़्यादा विश्वसनीयता-उपादेयता-प्रमाणरूपता है- ऐसा सूचित करने के लिए तो 'श्रुतधर गवेषणा करके, श्रुत के उपयोग से निर्दोष स्वरूप जानने के बाद, जो गोचरी लाते हैं, वह गोचरी केवली को दोषित दिखाई दे तब भी केवलज्ञानी उस गोचरी का उपयोग करते हैं अन्यथा श्रुत अप्रामाणिक हो जाता है'- ऐसा भद्रबाहुस्वामीजी ने पिंडनियुक्ति में बताया है।
'आहो सुओवउत्तो सुयनाणी जइ वि गिण्हइ असुद्ध। तं केवली वि भुंजइ अपमाणं सुयं भवे इह रा॥' (गा. 524)
इसीलिए तो किसी भी प्रकार के अतीन्द्रिय पदार्थ के स्वरूप वगैरह विषय में हमारे सभी संशय दूर करने के लिए श्रुतज्ञान ही अत्यन्त आदरणीय परम विश्वसनीय, दृढ़ आधारभूत और प्रबल प्रमाणभूत है। ___वर्तमान में उपलब्ध पंचांगी आगम और आगमावलंबी श्रुत के माध्यम से उपर्युक्त प्रकार से विचार-विमर्श करते हुए हमें तो 'इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश वगैरह सजीव अग्निकाय ही हैं'- ऐसा निश्चित रूप से मालूम पड़ता है। भवभीरू-पापभीरू मुनिमुमुक्षु-श्रद्धालु आराधक व्यक्ति इस बाबत में मध्यस्थता से आगामानुसार निर्णय कर सकें, इस आशय से आगमादि के वचन तथा विज्ञान को भी आदर की दृष्टि से देखते हुए आराधक, विज्ञान और आगम के समन्वय से निश्चित कर सकें, इसलिए आधुनिक साइन्स के सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत विचारणा में आधार रूप से बताए हैं। दोनों दृष्टि से विचार करने से हमें 'इलेक्ट्रीसीटी और विद्युत् बल्ब का प्रकाश -- ये दोनों सजीव अग्निकाय हैं,' ऐसा निसंदिग्ध रूप से ज्ञात होता है। 28
उत्तर-किसी चीज की सजीवता-निर्जीवता को सर्वज्ञ द्वारा विहित निर्देशों के आधार पर असर्वज्ञ जान सकता है। जैसे उष्ण जल या शस्त्रपरिणत जल साधु ग्रहण करता है, उस समय वह सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों को आधार बनाता है, वैसे ही अग्निकाय के लिए सर्वज्ञों द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों को कसकर यह निर्णय लेना असर्वज्ञ के लिए कोई कठिन नहीं है कि विद्युत् (इलेक्ट्रीसीटी) अपने आप में निर्जीव है। उसके कौन-से प्रयोग में अग्निकाय या वायुकाय या त्रसकाय या अन्य कोई जीव की हिंसा हो सकती है या नहीं हो सकती- उसका निर्णय भी सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों के आधार पर भलीभांति किया जा सकता है। जैसे- हाथ-पंखी या पंखे का प्रयोग वायुकाय की विराधना में स्पष्टतः कारणभूत बनता है, वैसे ही बिजली द्वारा चालित पंखा भी वायुकाय की विराधना का कारण बनता ही है। इसीलिए जैन साधु न स्वयं बिजली के
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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