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________________ का अभ्रान्त निर्णय नहीं हो सकता तो छद्मस्थ साधु-साध्वीजी भगवंत उस चीज़ का उपयोग-उपभोग उत्सर्ग मार्ग से नहीं कर सकते। यह बताने के लिए तो श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान के बल से तालाब के पानी को निर्जीव जानते हुए भी अत्यन्त प्यास से व्याकुल साधुओं को उस प्रासुक-निर्जीव जल को पीने की अनुज्ञा नहीं दी, क्योंकि केवलज्ञान द्वारा निर्जीव दिखाई देने वाला वह पानी छद्मस्थ जीवों के पास रहने वाली ज्ञान-सामग्री से निर्जीव स्वरूप निश्चित हो सके, ऐसा संभव नहीं था। ऐसा होने पर भी प्यास से व्याकुल साधुओं को यदि वैसे पानी को पीने की छूट दें तो भविष्यकाल में अनेक साधु अपने पास उपलब्ध साधन-सामग्री से निर्जीव स्वरूप नहीं जान पाने वाली चीज़ वस्तुओं का भी प्रस्तुत दृष्टान्त से आलंबन द्वारा उत्सर्ग मार्ग से उपयोग करने लगेंगे- यह प्रबल संभावना थी। ऐसी गलत परंपरा का प्रारम्भ हो जाएगा। परमकृपालु परमात्मा कैसे होने देते? इसलिए उन्होंने वह पानी निर्जीव होते हुए भी उस पानी को पीने की आज्ञा नहीं दी। यह समस्त घटना आचारांगवृत्ति में श्रीशीलांकाचार्य ने इस प्रकार से बताई है 'कालतस्त्वचित्तता स्वभावतः स्वायुःक्षयेण वा। सा च परमार्थतोतिऽतिशयज्ञानेनैव सम्यक् परिज्ञायते, न छाद्मस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति। अतएव च तृषाऽतिपीड़ितानामपि साधूनां स्वभावतः स्वायु:क्षयेणाऽचित्तीभूतमपि तड़ागोदकं पानाय वर्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान्, इत्थंभूतस्याऽचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां दुर्लक्ष्यत्वेन मा भूत् सर्वत्राऽपि तड़ागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसंग इति कृत्वा' (आचारांगनियुक्ति अध्ययन-1, पृथ्वीकाय/गा. 13 की वृत्ति) इस अति उत्तम ऐतिहासिक और आगमिक आदर्श को नजर के समक्ष रखकर, प्रकाश-दाहकता इत्यादि तेउकाय के लक्षण जिसमें दिखाई देते हैं, वैसी इलेक्ट्रीसीटी का, विद्युत्प्रकाश का, इलेक्ट्रीसीटी पर आधारित समस्त साधनों का औत्सर्गिक उपयोग, सर्व हिंसा का जीवनभर त्याग करने वाले साधु-साध्वीजी भगवंत किस प्रकार से कर सकते हैं? इससे निष्कर्ष निकलता है कि केवलज्ञान द्वारा निर्जीव स्वरूप में निश्चित हुआ पानी भी श्रुतज्ञान की दृष्टि से निर्जीव रूप सिद्ध न हो तब उसका सजीव के रूप में व्यवहार करना यही सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंतों को मान्य है। मतलब कि सजीव-निर्जीव का व्यवहार तथा निर्णय करने के लिए हमारे लिए केवलज्ञान की तुलना में श्रुतज्ञान बलवान प्रमाण सिद्ध होता है। इस अपेक्षा से केवलज्ञान की तुलना में श्रुतज्ञान बलवान सिद्ध होता है तो मंदबुद्धि या शुष्क तर्क की तुलना में तो श्रुतज्ञान ज्यादा बलवान बनता ही है। हमारे तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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