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________________ हैं तो फिर धर्म-उपदेश एवं प्रचार के कार्य को उस प्रकार क्यों नहीं कर सकते? पुस्तक मुद्रण और माइक, लाइट आदि के साथ साध्य की संलग्नता समान है। निश्चित ही संयम-धर्म को विशुद्ध रखकर ही जैन साधु धर्म-प्रचार करे, यही वांछनीय है। आचार्य तुलसी ने तेरापंथ की नीति को स्पष्ट करते हुए "माइक आदि विषय" की चर्चा इस प्रकार की हैतटस्थता की नीति संशोधन और परिवर्तन की नीति के साथ कुछ विषयों में हमने तटस्थता की नीति अपनाई है। फोटो, टेपरिकॉर्डिंग, बिजली आदि कुछ ऐसे विषय हैं। गृहस्थ अपने प्रयोजनों से इनका प्रयोग करता है, उसमें साधु तटस्थ रहे तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता। तटस्थता की नीति से मेरा अभिप्राय है-निषेध और अनुमोदन, इस द्वंद्व से बचकर अप्रमत्तभाव से व्यवहार करने की नीति । प्रमादवश कुछ भूलें हो जाना असम्भव नहीं है। भूल का समर्थन भी नहीं किया जाना चाहिए। यदि इन कार्यों में साधु की प्रेरणा या लगाव हो तो वह वांछनीय नहीं है। इसके साथ-साथ यह मानकर भी नहीं बैठना चाहिए कि इन कार्यों में प्रेरणा या लगाव हुए बिना कोई रह ही नहीं सकता। व्यवहार की ऐसी अनेक प्रवृत्तियाँ हैं, जिनसे साधु को तटस्थ रहना जरूरी होता है- समर्थन और निषेध, इन दोनों से बचकर अपनी स्थिति में रहना होता है। माइक का प्रयोग मुख्यतः सुनने वालों की उपयोगिता है। साधु इस पर बोले तो उसकी भी पूरी तटस्थता बरतनी होती है। इसका निषेध न करे तो उसकी प्रेरणा भी नहीं करनी चाहिए। निषेध और प्रेरणा के बीच का रास्ता अवश्य ही बहुत संकरा है। किन्तु उस पर चला नहीं जा सकता, ऐसा नहीं माना जा सकता। उक्त प्रवृत्तियों में मुनि निमित्त बनता है और निमित्त बनने से बचना देह धारणा और व्यवहार की स्थिति में सम्भव भी कहाँ है? यदि मुनि उन प्रवृत्तियो में लिप्त न हो तो वह उनकी आसक्ति से अपने आपको बचा सकता है। प्रश्न-35. एक ओर महत्त्व की बात तो यह है कि सचित्त (सजीव) तेउकाय के लक्षण जिसमें दिखाई देते हैं, वैसी इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश में निर्जीवता का निश्चय असर्वज्ञ को किस प्रकार से हो सकता है? असर्वज्ञ व्यक्ति तो ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। यदि स्वयं के पास उपलब्ध साधन सामग्री द्वारा किसी चीज की निर्जीवता 54 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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