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तत्त्वार्थसूत्र और जैन सिद्धान्त दीपिका की विषयवस्तु में पर्याप्त साम्य होना स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान का ही प्रकाशन करते हैं तथापि इस नवग्रन्थ के निर्माण का अपना उद्देश्य है। नवीनता के बिना नई कृति का निर्माण कोई महत्त्व नहीं रखता। तत्त्वार्थसूत्र एवं जैन सिद्धान्त दीपिका का अध्ययन करने पर विदित होता है दीपिका में अनेकविध नवीनताएँ हैं। यहाँ पर यह भी उल्लेख करना प्रासङ्गिक होगा कि जैन सिद्धान्त दीपिका की रचना का प्रारम्भ चुरू नगर में विक्रम संवत् 2002 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। फिर द्वितीय एवं तृतीय संशोधित एवं परिवर्तित आवत्तियाँ क्रमशः बैंगलोर एवं लाडनूं में तैयार हुईं। आज तृतीय वृत्ति का संस्करण उपलब्ध है। उसी को प्रस्तुत अध्ययन का आधार बनाया गया है।
जैन सिद्धान्तदीपिका के निर्माण के अनेक हेतुओं में एक हेतु तेरापंथ संघ को प्रामाणिक, नया सिद्धान्त सूत्र-ग्रन्थ उपलब्ध कराना भी रहा है, इसीलिए ग्रन्थ की प्रशस्ति में कहा गया है
यावन्मेरुर्धरामध्ये, व्योम्नि चन्द्रदिवाकरः। तावत्तेरापंथाम्नाये, जैनसिद्धान्तदीपिका॥
यहाँ पर यह उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ भले ही तेरापंथ आम्नाय के लिए निर्मित हुआ हो, किन्तु यह सभी जैन सम्प्रदायों के द्वारा समादृत हो सकता है। एकाध स्थलों के अतिरिक्त यह सम्पूर्ण ग्रन्थ जैनधर्म के किसी भी सम्प्रदाय को अस्वीकार्य नहीं हो सकता।
तत्त्वार्थसूत्र से तुलना करने पर विदित होता है कि जैन सिद्धान्तदीपिका उसका एक पूरक ग्रन्थ भी है। तत्त्वार्थसूत्र में जिन अनेक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण उपलब्ध नहीं हैं, उनके लक्षण जैन सिद्धान्तदीपिका में सम्प्राप्त हैं। उदाहरण के लिए लोक, अलोक, परमाणु, स्कन्ध, देश, प्रदेश, गुण, पर्याय, अर्थ पर्याय, व्यञ्जन पर्याय, स्वभावपर्याय, विभावपर्याय, उपयोग, साकारोपयोग, अनाकारोपयोग, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि पाँचों ज्ञानों, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, औत्पत्तिकी, वैनयिकी आदि चारों बुद्धियों के लक्षण जैन सिद्धान्तदीपिका में सूत्रनिबद्ध हैं। इसी प्रकार इन्द्रिय, मन, भाव, उपशमादि पाँचों भाव, पर्याप्ति, प्राण, अजीव, कर्म, प्रकृति, स्थिति आदि चतुर्विध बन्ध, पुण्य, पाप, मिथ्यात्व-अविरति आदि पाँच आस्रव, लेश्या, करण, सम्यक्त्व, अविरति आदि पाँच संवर, निर्जरा, सिद्ध आदि के लक्षण भी दीपिका की विशेषता को स्थापित करते हैं। षष्ठम प्रकाश में सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत,
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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