________________
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसीहिं।।'
जैनागमों में तप एवं चारित्र के भेद अलग से प्राप्त होते हैं तथा दोनों का अपना महत्त्व है। चारित्र जहाँ संयम या संवर की प्रधानता रखता है वहाँ तप में निर्जरा की प्रधानता है। अतः तप' को मोक्षमार्ग में पृथक् से स्थान दिया जाना उचित ही है।
(5) समस्त कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का लक्षण तो जैनदर्शन में प्रसिद्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः।” जैन सिद्धान्तदीपिका में कर्मक्षय के साथ आत्मा का स्वरूप में अवस्थान मोक्ष कहा गया है, यथा- 'कृत्स्नकर्मक्षायादात्मनः स्वरूपावस्थानं मोक्षः' इससे यह भी ध्वनित होता है कि समस्त कर्मों का क्षय होने के पश्चात् आत्मा की सत्ता बनी रहती है तथा वह अपने ज्ञान-दर्शन स्वरूप में अवस्थित रहती है। आचार्य श्री ने सूत्र की वृत्ति में यह भी स्पष्ट किया है कि समस्त कर्मों का क्षय होने के पश्चात् पुनः कर्मों का बन्ध नहीं होता है।
(6) षड्द्रव्यों में जीवद्रव्य का निरूपण करते हुए आचार्य श्री तुलसी ने तृतीय प्रकाश के पञ्चम सूत्र की वृत्ति में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में चेतना की सिद्धि के लिए हेतु प्रस्तुत किए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। पृथ्वी में चेतना सिद्ध करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यंच जीवों के घावों में सजातीय मांसांकुर उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पृथ्वी में खोदी हुई खानों में सजातीय पृथ्वी के अंकुर उत्पन्न होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी सजीव हैसमानजाती-यांकुरोत्पादात्। जल में जीवन की सिद्धि करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च गर्भावस्था के प्रारम्भ में तरल होते हैं वैसे ही जल तरल है। अतः वह जब तक किसी विरोधी वस्तु से उपहत नहीं होता तब तक सजीव हैशस्त्रानुपहतद्रवत्वात्। ईंधन आदि आहार के द्वारा अग्नि बढ़ती है, इसलिए अग्नि सजीव है- आहारेणवृद्धिदर्शनात् । वायु बिना किसी प्रेरणा के ही अनियमित रूप से घूमती है, अत: वह सजीव है- अपराप्रेरितत्वे तिर्यगनियमितगतिमत्त्वात् । वनस्पति का छेदन आदि करने से उसे ग्लानि आदि का अनुभव होता है, अत: वनस्पति सजीव हैछेदादिभिग्लानिदर्शनात् । वनस्पति की सजीवता की सिद्धि आचारांगसूत्र में मनुष्य के साथ तुलना करते हुए विस्तार से की गई है।
(7) जैनसिद्धान्तदीपिका में भी तत्त्वार्थसूत्र की भाँति धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव- इन पाँच अस्तिकाय द्रव्यों का कथन करने के पश्चात् काल को औपचारिक
12
-
- तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org