SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य का बन्ध कैसे करेगा? जैनसिद्धान्तदीपिका में आचार्य श्री तुलसी ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि मिथ्यात्वी भी मोक्षमार्ग के देश-आराधक होते हैं। यदि ऐसा न हो तो उनके निर्जराधर्म ही न हो एवं वे कभी सम्यक्त्वी ही न बन सकें। आचार्यश्री ने शुभकर्म को पुण्य कहते हुए जिस निमित्त से पुण्य का बन्ध होता है उसे भी उपचार से पुण्य कहा है। इस प्रकार उपचार से अन्न, पान, अशन, शयन, वस्त्र, मन, वचन, शरीर एवं नमस्कार के आधार पर नौ पुण्य होते हैं। ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों को पाप कहा गया है। उपचार से पाप के हेतु प्राणातिपात आदि को भी पाप माना गया है, जिसके 18 भेद प्रसिद्ध हैं। (3) जैन सिद्धान्तदीपिका के चतुर्थ प्रकाश में ही शुभ एवं अशुभ योग की चर्चा करते हुए आचार्यश्री ने शुभयोग को सत्प्रवृत्ति एवं अशुभयोग को असत्प्रवृत्ति कहा है। शुभ एवं अशुभयोग से क्रमशः शुभकर्म-पुद्गलों एवं अशुभ कर्मपुद्गलों का आस्रव होता है। इस सामान्य नियम का उल्लेख करने के साथ ही एक विशेष उल्लेखनीय सूत्र उपनिबद्ध किया गया है- यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा अर्थात् जहाँ शुभयोग होता है वहाँ नियम से निर्जरा होती है। आचार्यश्री ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुभयोग कर्मबन्ध का हेतु होने से आस्रव के अन्तर्गत परिगणित है, किन्तु वह नियम से अशुभ कर्मों को तोड़ने वाला है, इसलिए निर्जरा का कारण भी है। नाना द्रव्यों से निर्मित औषधि जिस प्रकार रोग का शोषण एवं शरीर का पोषण-दोनों कार्यों को सम्पन्न करती हैं उसी प्रकार शुभयोग से पुण्यकर्म का बन्ध एवं अशुभकर्मों का क्षय दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं । इस तथ्य की पुष्टि में आचार्यश्री ने उत्तराध्ययनसूत्र से एक उद्धरण भी दिया है, यथा- वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? गोयमा! वंदणएणं नीयागोयं कमयं खवेइ, उच्चागोयं निबंधइ इत्यादि। भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि हे भगवान् ! वन्दना करने से क्या लाभ होता है? भगवान ने उत्तर दिया- गौतम! वन्दना करने से नीचगोत्र कर्म का क्षय और उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि शुभयोग के समय अशुभयोग का निरोध होता है। अतः अपेक्षा से संवरधर्म भी पाया जाता है। (4) मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हुए 'जैनसिद्धान्तदीपिका' में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के साथ सम्यक्तप को भी पृथक् से स्थान दिया गया है, यथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि मोक्षमार्ग:45 तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति द्वारा तप का चारित्र में ही समावेश कर लिया गया है किन्तु चारित्र से तप का पृथक् कथन आगमों में भी प्राप्त होता है, यथा तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 - - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy