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________________ भी महाआरम्भ को तो छोटे-बड़े प्रत्येक साधक को छोड़ना आवश्यक है। उपर्युक्त अनेक आगम प्रमाणों की साक्षी से विद्युत् प्रकाश सजीव सिद्ध होने से उसकी विराधना को छोड़ना प्रत्येक साधक का कर्त्तव्य बन जाता है । तदुपरांत षड्जीवनिकाय की विराधना में भी अग्निकाय की विराधना महाआरम्भ स्वरूप होने से जरूर त्याग करने के योग्य बन जाती है ।" भगवतीसूत्र में भगवान श्रीमहावीर स्वामीजी कालोदायी को बताते हैं कि – 'जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणतराए चेव । ..जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जाले से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारंभति, बहुतरागं आउक्कायं समारंभति, अप्पतरायं तेऊकायं समारंभति, बहुतरागं वाऊकायं समारंभति, बहुतरागं वणस्सइकायं समारंभति, बहुतरागं तसकायं समारंभति' (भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशो 10, सूत्र 307 ) अर्थात् “ अग्निकाय को जलाने वाले जीव बहुत से पृथ्वीकाय, जलकाय इत्यादि जीवों को नष्ट कर डालते हैं । इसीलिए वे महाकर्म बंध करते हैं, महाआरम्भक्रिया करते हैं, महाआश्रव का भोग बनते हैं, षड्जीवनिकाय को महावेदना देते हैं।" इससे अग्नि को जलाने वाले तथा बल्ब वगैरह के चालू करने के द्वारा विद्युत् प्रकाश को उत्पन्न करने वाले व्यक्ति वास्तव में महाआरंभ ही करते हैं - ऐसा सिद्ध हाता है। 75 इसी प्रकार आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, निशीथभाष्य, निशीथसूत्रचूर्णि, प्रश्नव्याकरणसूत्र आदि में भी अग्निकाय के महाआरम्भ संबंधी सन्दर्भ प्राप्त हैं । " उत्तर - अग्निकाय तेउकाय की हिंसा को जिस रूप में महाआरम्भ बताया है, उस रूप में उसे महाआरम्भ स्वीकार करने में कहां आपत्ति है? उसी प्रकार तेउकाय को आचारांग में दीर्घलोकशस्त्र, उत्तराध्ययन में सव्वभक्खी, दशवैकालिक में तीक्ष्ण शास्त्र के रूप में जो प्रतिपादित किया है, उसे कौन अस्वीकार करता है? यदि विद्युत् (इलेक्ट्रीसीटी) भी तेउकाय (अग्नि) रूप सिद्ध हो जाए, तो उस पर भी वही बात लागू हो जाएगी। इलेक्ट्रीसीटी किस रूप में तेउकाय बन सकती है और किस रूप में नहीं, इसकी विस्तृत चर्चा हम कर चुके हैं। इसलिए जहाँ इसका तेउकायिक रूप प्रगट होता है, वहाँ उसको अग्नि की भाँति ही महाआरम्भ माना ही जाए पर जहाँजहाँ वह केवल पौद्गलिक परिणमन के रूप में ही है, वहाँ-वहाँ आरम्भ वाली बात लागू नहीं होती। 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126 www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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