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बार स्वामीचादित तातीर्थकाइतिहास
Collbllèk lys
જૈન ગ્રંથમાળા
દાદાસાહેબ, ભાવનગર,
eechese-2020 :
5272008
संलग्न मन्त्र विभाग
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श्री राजस्थान जैन संघ द्वारा निर्वाचित
श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन धर्म टेम्पल एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट द्वारा संचालित प्रवृत्तियाँ -
१) श्री ऋषभदेव स्वामी जैन मंदिर २) श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन मंदिर ३) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन मंदिर ४) अधिष्ठायक श्री मणिभद्रवीर स्थानक ५) श्री वल्लभ गुरु मंदिर (आत्मवल्लभ हॉल) ६) श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन पाठशाला ७) श्री वर्धमान आयंबिल खाता ८) श्री मणिभद्र जैन भोजनशाला ९) श्री महावीर मानव क्षुधा तृप्ति केन्द्र १०) श्री कंचनसागरजी ज्ञान भंडार ११) श्री विजय वल्लभ साधर्मिक सहाय फंड १२) श्री भाता खाता १३) श्री कपूर प्याऊ (एस. टी. बसस्थानक) १४) श्री राजस्थान पंचायत भवन
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श्री मुनिसुव्रत स्वामी चरित एवं थाना तीर्थ का इतिहास ( संलग्न मंत्र विभाग )
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लेखक
पू. पन्यास श्री पूर्णानंदविजयजी ( कुमार श्रमण )
रजिस्टर नं. A11 (T) प्रकाशक
श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन धर्म टेंपल
ठाणे
एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट एवं
श्री मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय
टेंभी नाका
थाने 400601.
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592389
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श्री मुनिसुव्रत स्वामी चरित एवं थाना तीर्थ का इतिहास
लेखक
( कुमार श्रमण)
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प्रकाशक व प्राप्ति स्थान
* श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन धर्म टेम्पल एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट, ठाणे
● श्री मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय
टेंभी नाका थाने 400601 (महाराष्ट्र)
पू. पन्यास श्री पूर्णानंदविजयजी
प्रकाशन वर्ष १९८९
प्रतियॉ २०००
मुद्रक
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मूल्य सात रुपये
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साजसज्जा जे. के. संघवी
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चैतन्य एन्टरप्रायझेस, थाने.
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प्रासंगिक जैन धर्म में तीर्थंकरों की परंपरा अनूठी है। तीर्थंकर परमात्मा विश्व तत्त्व के ज्ञाता तो होते ही है; पर साथ ही वे मोक्ष मार्ग के प्रकाशक भी होते है। वर्तमान अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में कुल चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जिन्होंने अपने अपने काल में . मोक्षमार्ग को प्रकाशित किया और साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ की स्थापना की। उनके नाम इस प्रकार है -
श्रीऋषभदेवजी, श्री अजितनाथजी, श्रीसंभवनाथजी, श्री अभिनन्दनस्वामीजी, श्रीसुमतिनाथजी, श्रीपद्मप्रभुजी, श्रीसुपार्श्वनाथजी, श्रीचन्द्रप्रभस्वामीजी,
श्रीसुविधिनाथजी, श्रीशीतलनाथजी,
श्रीश्रेयांसनाथजी, श्रीवासुपूज्यस्वामीजी,
श्रीविमलनाथजी, श्रीअनन्तनाथजी, श्रीधर्मनाथजी, श्रीशांतिनाथजी, श्रीकुन्थुनाथजी. श्रीअरनाथजी, श्रीमल्लिनाथजी, श्रीमुनिसुव्रतस्वामीजी, श्रीनमिनाथजी, श्रीनेमिनाथजी, श्रीपार्श्वनाथजी और श्रीमहावीर स्वामीजी।। . त्रिषष्ठि शलाकापुरुष चरित्र में कलिकाल सर्वज्ञ श्री. हेमचंद्राचार्य महाराज ने इन तीर्थंकर भगवन्तों का चरित्र विस्तार से प्रकट किया है। इनमें से श्रीऋषभदेव, श्रीशान्तिनाथ, श्रीनेमिनाथ, श्रीपार्श्वनाथ.
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और श्रीमहावीर स्वामी भगवान के चरित्र विविध घटनाओं से परिपूर्ण है; पर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के चरित्र में घटना बाहुल्य नहीं है। इनके चरित्र में एक ही घटना उभर कर सामने आती है और वह है - अश्वावबोध।
ठाणे श्री संघ की आग्रह भरी विनंती को ध्यान में लेकर पू. पन्यास श्री पूर्णानन्द विजयजी कुमार श्रमण' महाराज ने इस मुनिसुव्रत चरित्र की रचना की
में घट
यद्यपि श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के चरित्र में घटनाओं की प्रचुरता नहीं है। फिर भी उनके शासनकाल में अनेक घटनाएँ घटी है और पूज्य मुनिश्री ने उन घटनाओं को इस चरित्र में स्थान दिया है। यही कारण है कि इस चरित्र के अन्तर्गत कार्तिकसेठ का
प्रसंग लिया गया है और श्रीपाल चरित्र भी अंशिक रुप .. से प्रकट किया गया है।
आशा है, पाठक गण इस चरित्र से प्रेरणा प्राप्त करेंगे और पूज्य मुनिराज के इस प्रयत्न को सफल बनायेंगे।
- चंदनमल पूनमचंदजी जैन । वि.संवत २०४५ अध्यक्ष, श्री राजस्थान जैन संघ, था
। श्रमण भगवान महावीर । जन्म कल्याणक
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प्रास्ताविक जैन धर्म में २४ तीर्थंकर माने गये है। तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकर कहलाते है। हम सभी पर तीर्थंकर भगवंतो के अनन्य उपकार है।
बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी थाना तीर्थ के मूलनायक है। जैनों में वर्ष में दो बार नवपदजी की ओली के समय श्रीपाल रास पढ़ा व सुना जाता है। महाराजा
श्रीपाल कथानक में थाना का उल्लेख होने से उसका र ऐतिहासिक महत्व और भी बढ़ जाता है।
संवत २०४३ का मेरा चातुर्मास थाना तीर्थ की पावन धरा पर था। विविध धार्मिक प्रवृत्तियों के साथ ही श्री
संघ की भावना 'श्री मुनिसुव्रत स्वामी चरित एवं थाना का के इतिहास' प्रकाशित करने की हुई। भावना के अनुरुप मैने
चरित एवं इतिहास के साथ मंत्र विभाग का संकलन भी
जोड दिया। सम्पादन में श्री बसंतीलाल जैन का सहयोग - अभिनन्दनीय है।
पुस्तक द्वारा श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवंत का जीवन विवरण एवं थाना तीर्थ की महिमा जानकर दर्शन-पूजन एवं स्तवना भाव की वृद्धि होते हुए आप सभी पुण्यानुबंधि पुण्य का उपार्जन करें, यही मंगल कामना।
- पं. पूर्णानंदविजय (कुमार श्रमण) :
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4.
श्री राजस्थान जैन संघ द्वारा निर्वाचित श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन टेम्पल एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट के वर्तमान पदाधिकारी
फोन * शा बाबुलाल भीकमचंदजी जैन (खिवांदी) – मैनेजिंग ट्रस्टी
591177 - 508490 * शा दीपचंद रावतमलजी जैन (बाली) - उपमेनेजिंग ट्रस्टी
501257 * शा मिश्रीमल बक्षीरामजी ढेलरिया वोरा (खीवाडा) – मंत्री
503631 - 593437 * शा धनराज शिवराजजी सुराणा (जोजावर) - सहमंत्री
502605 * शा रुपचंद गणेशमलजी रांका (बाली) – ट्रस्टी
504195 * शा जुगराज केसरीमलजी राठौड (सादडी) - ट्रस्टी
503192 * शा नारमल केसरीमलजी ढेलरिया वोरा (खींवाडा) – ट्रस्टी
505151 - 505011 * शा जुगराज जावंतराजजी पुनमिया (रानी) - ट्रस्टी
594319 - 592686 * शा वस्तीमल जवानमलजी भंडारी (लेटा) - ट्रस्टी * शा वग्तावरमल छगनराजजी दुग्गड (आहोर) – ट्रस्टी
595367 - 503719
एवं शा चंदनमल पूनमचंदजी बलदोटा (बिजोवा) अध्यक्ष, श्री राजस्थान जैन संघ, थाने.
594253
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__ थाने के जैन मंदिर श्री ऋषभदेव स्वामी जैन मंदिर टेंभी नाका, थाने-१
श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन मंदिर टेंभी नाका, थाने-१
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन मंदिर टेंभी नाका, थाने - १
• श्री चंद्रप्रभु जैन मंदिर
आराधना सिनेमा के सामने, पेट्रोल पंप, थाने-२
श्री अजितनाथ जैन मंदिर राम मारुती रोड, नौपाडा, थाने-२
श्री वासुपूज्य जैन मंदिर गुणसागर नगर, कलवा, थाने-६
श्री दिगम्बर जैन मंदिर उत्तलसर, केसलमिल नाका, थाने-२
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थाने की कार्यरत जैन संस्थायें . श्री राजस्थान जैन संघ
श्री तेरापंथ जैन संघ श्री कच्छी वीसा ओसवाल जैन संघ श्री अचलगच्छ जैन संघ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन संघ श्री दिगम्बर जैन संघ श्री हालारी वीसा ओसवाल जैन संघ श्री थाना जैन मित्र मंडल श्री सिध्दचक्र जैन नवयुवक मंडल श्री महावीर जैन मंडल श्री वर्धमान जैन मंडल
श्री अभिनंदन जैन मंडल . श्री शाश्वत धर्म प्रकाशन कार्यालय
श्री जैन सेवा संघ श्री मुनिसुव्रत स्वामी महिला मंडल श्री केसरिया गुण महिला मंडल श्री चंद्रप्रभु महिला मंडल श्री आदिनाथ महिला मंडल श्री अभिनंदन महिला मंडल श्री राजस्थानी महिला सेवा मंडल
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कोंकण शत्रुजय थाना तीर्थ मूलनायक श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान
खिंवाडा निवासी स्व. शा बक्षीराम ओकाजी ढेलरिया वोरा की
पुण्यस्मृति में फर्म इशार गाविमा योजनाणी .... अागो २ की ओर से दर्शन
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श्री ऋषभदेव स्वामी (थाना तीर्थ)
स्व. सौ. मंजु मेहता की स्मृति में खिंवाडा निवासी अ. सौ. सायरबाई केसरीमलजी ढेलरिया वोरा की ओर से दर्शनार्थ
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श्री केसरियाजी (थाना तीर्थ)
खिंवाडा निवासी श्रीमति कुसुमबाई बक्षीरामजी ढेलरिया वोरा फर्म : मे. आर. बी. ट्रेडर्स - थाने
की ओर से दर्शनार्थ
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श्री सिमंधर स्वामी (थाना तीर्थ)
श्रीसिमंधर स्वामी
मे. बी. बी. डेव्हलपर्स – थाने
की ओर से दर्शनार्थ
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श्री सिद्धचक्र यन्त्र (थाना तीर्थ)
OF
मे. पी. आर. एन्टरप्रायझेस - थाने की ओर से दर्शनार्थ
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श्री मणीभद्रवीर (थाना तीर्थ )
खिंवाडा निवासी
शा मिश्रीमल बक्षीरामजी ढेलरिया वोरा फर्म : जैन ट्रेडर्स थाने २ की ओर से दर्शनार्थ
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अनुक्रम
श्री मुनिसुव्रत स्वामी : संक्षिप्त परिचय हरिवंश की उत्पत्ति प्रभु का पूर्व भव प्रभु का जन्म एवं दीक्षा प्रभु का उपदेश अश्वावबोध शकुनिका विहार प्रभुका निर्वाण कोकण प्रदेश थाना नगर थाना और श्री मुनिसुव्रत स्वामी
श्रीपाल महाराज की सिध्दचक्र आराधना है। मंत्रविभाग # अनुभूत विविध मंत्र
सिध्दि प्रदाक यंत्र चौवीस तीर्थंकरों का कल्प
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श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान
संक्षिप्त परिचय
तीर्थकर
बीसवें
नाम
।
च्यवन
.....
च्यवन कल्याणक
......
...
जन्म कल्याणक
.
...
.
नक्षत्र राशि
mase.
नगरी
पिता माता दीक्षा कल्याणक केवलज्ञान कल्याणक लंछन
श्री मुनिसुव्रत स्वामी अपराजित विमान से श्रावण सुदि पूनम जेठ वदी आठम श्रवण मकर राजगृही सुमित्र राजा पद्मावती फाल्गुण सुदी बारस फाल्गुण वदी बारस कछुआ बीस धनुष्य अठारह तीस हजार वर्ष तीस हजार पचास हजार अशोक वृक्ष जेठ वदी नौमी .
देहमान
गणधर
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आयु साधु साध्वी दीक्षा वृक्ष निर्वाण कल्याणक
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हरिवंश की उत्पत्ति देवाधिदेव श्री अरिहन्त परमात्मा तथा पूज्य गुरूदेव को नमस्कार कर मैं वर्तमान चौवीसी के बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी का पावन चरित प्रारंभ करताहूँ।
किसी भी देश, जाति, कुल या वंश के नाम के मूल में इतिहास होता है; कोई न कोई घटना होती है। जैसे - प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान के इक्ष्वाक वंश की स्थापना इन्द्र महाराज ने की थी। उस समय भी ऋषभ देव शिशु रूप में थे और माता मरूदेवी की गोद में बिराजमान थे। श्री इन्द्र महाराज अपने कंधे पर गन्नाले कर भगवान के पास पहुँचे; तब गन्ना लेने के लिए
भगवान ने अपने नन्हे नन्हे हाथ आगे बढा दिये। उस समय इन्द्र • महाराज ने विचार किया कि भगवान गन्ना चाहते हैं। गन्ने को
- संस्कृत में इक्षु कहते हैं; अतः इक्षु के कारण उन्होंने भगवान के वंश it का नाम इक्ष्वाकुरखा।
हरिवंश की उत्पत्ति भगवान शीतलनाथ के शासन काल में हुई। उस काल में कौशाम्बी नगर में सुमुख राजा राज्य करता था। यद्यपि वह सत्यवादी था; फिर भी धर्म के सत्य स्वरूप से अनजान था। प्रजा पालक होते हुए भी उसका जीवन न्याय-नीतियुक्त नहीं था और स्वभाव से सरल होते हुए भी वह धर्म मार्ग से दूर था। इसी कारण से वह विषय-मोगों में लिप्त रहता था। उसे अपनी रानियों के साथ उद्यानों में विहार करने का और सरिता सरोवरादि में जलक्रिडा करने का बडाशौक था। __उसी नगर में एक जुलाहा रहता था। उसका नाम था वीर
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umāra, Surat-
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कुविन्द। उसकी पत्नी वनमाला बड़ी सुन्दर थी। उसकी आँखे हिरनी के समान थीं। वह जवान थी और उसे अपने रूप का बड़ा घमंड था। वीरकुविन्द सीधा सादा और स्वभाव से बड़ा सरल था। यद्यपि वह अपनी पत्नी को बहुत चाहता था; फिर भी वनमाला अपने पति से सन्तुष्ट नहीं थी। उसकी चंचल आँखे कोई दूसरा मार्ग ढूँढ रही थी।
यद्यपि पत्नी के लिए पति ही परमेश्वरतुल्य होता है; फिर भी यदि उसे अपने माता-पिता के घर शील और सदाचार की शिक्षा न मिली हो, तो वह ससुराल में भी भटक सकती है। बेलगाम घोडा
और ब्रेकरहित वाहन पर सवारी करने वाला कभी भी खतरे में पड़ जाता है; इसी तरह श्री अरिहंत परमात्मा द्वारा प्ररूपित व्रत रूपी लगाम जिसके मन पर न लगी हो, उस मनुष्य का जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। असंयमी मनुष्य संमय की तो हानि करता ही है; पर वह दूसरों के जीवन को भी बरबाद करता है।
एक दिन राजा सुमुख अपने परिजनों के साथ नगर भ्रमण के लिए निकला। वनमाला राजा की सवारी बड़े ध्यान से देख रही थी। राजा जब उसके घर के सामने से निकला; तब दोनों की आँखें चार हो गयीं। आँखों ही आँखों में इशारे हो गये और वह राजमहल
में पहुँच गयी। अब वह राजरानी बन गयी। सच ही तो है-निरंकुश .. इन्द्रियाँ और असंयमी मन इन्सान को किस समय गलत मार्ग पर ले जायेंगे; यह कहा नहीं जा सकता।
अतः अरिहंत परमात्मा द्वारा प्ररूपित व्रत-माला ही अपने - मार्ग से भटक जानेवाले मनुष्य को सही मार्ग पर ला सकती है। ... जिन शासन में ऐसी व्रतमाला को धारण करनेवाले मनुष्य को
।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २ Shree Sudharmaswami-Cyanbham
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भावपूर्वक प्रणाम किया जाता है। कहा है-सीमाधरस्स वन्दे अर्थात व्रत की सीमा धारण करनेवाले आराधक को मै वन्दन करता हूँ।
आजीविका की खोज में बाहर गया हुआ वीरकुविन्द जब घर लौटा, तब सूने घर को देखकर चकित रह गया। जगह जगह उसने वनमाला की खोज की, पर उसका पता न लगा। बेचारा मन मसोस कर रह गया। पत्नी के प्रेम में वह दीवाना हो गया और गली गली वह वनमाला को पुकारता हुआ भटकने लगा। उसकी स्थिती बड़ी दयनीय हो गयी।
सच ही तो है कि माता-पिता के अन्ये, नापाक और बेदरकार प्रेम के कारण कुँवारी कन्या का जीवन बनता नहीं है; अपितु वह बिगडता है। उसकी आँखों में लज्जा के बजाय निर्लज्जता आ जाती है और उसके दिलो-दिमाग में कुसंस्कार दृढ हो जाते हैं। इसके कारण बाहय दृष्टि से लावण्य संपन्न स्त्री भी अपने माता-पिता तथा अपने पति से विश्वासघात कब करेगी; यह कहना बड़ा कठिन है।
___ इसी प्रकार राजवंश के लोगों को राजनीति की शिक्षा देते वक्त जब मदिरा, मदिराक्षी और शिकार का पाठ पढ़ाया जाता है; तब उनके नसीब में मात्र प्रजा का शाप ही रह जाता है। राजेश्वरी उनके लिए भवान्तर में नरकेश्वरी बन जाती है।
मोहनीय कर्म जितना खतरनाक है, उतने अन्य कर्म नहीं हैं। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का घात करता है। इसी के कारण जीव उल्टीचाल चलने लगता है और संसार में भटक जाता है। उसे रास्ता नहीं सूझता। कहा भी है
मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमत बादि।
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श्री तीर्थकर परमात्माने मोहनीय कर्म को तेज शराब की' ... उपमा दी है। शराब के कारण मनुष्य की मनुष्यता खत्म हो जाती है, उसकी बुध्दि प्रष्ट हो जाती है और उसके खानदान की इज्जत । मिट्टी में मिल जाती है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय के कारण ... - मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। मोह के नाश में वह बेभान, बेकरार, बेरहम और बेईमान भी बन जाता है। अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए वह विश्वासघात और हत्या तक कर बैठता है। विषय-वासना से ग्रसित मनुष्य को इस बात का जरा भी ख्याल नहीं : रहता कि किसी का दिल दुखाना, किसी का घर बरबाद करना या किसी की भी इज्जत लूटना कितना बड़ा पाप है।
वीरकुविन्द पागल बन गया था। वह गली गली भटकता .. था। एक बार वह राजमहल के समीप आ गया। झरोखे में वनमाला राजा के पास बैठी आमोद-प्रमोद कर रही थी। अचानक उसकी नजर वीरकुविन्द पर पड़ी। अपने पति की दयनीय दुर्दशा देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। वीरकुविन्द ने भी वनमाला को देख लिया पर वह कुछ भी न कर सकता था। वनमाला को राजमहल से वापस ले जाना आसान नहीं था।
वीरकुविन्द के दर्शन से वनमाला को अब पश्चाताप होने लगा। उसने अपने प्रेमी राजा से भी अपने पति की दुर्दशा की बात कही। राजा को उसके पति पर दया आ गयी। उसे अपने दुराचरण पर पछतावा होने लगा। उसने वनमाला को उसके पति के पास भेजने का निश्चय किया। वनमाला भी अपने पति के पास जाने के लिए तैयार थी; पर उन दोनों की यह इच्छा पूरी नहीं हुई। अचानक आसमान से बिजली गिरी और उन दोनों की मृत्यु हो गयी।
श्रीमनिसबत स्वामी चरित४
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मरणोपरान्त वे दोनों अकर्मभूमि क्षेत्र में युगलिक रूप में उत्पन्न
हुए।
उन दोनों की मृत्यु से वीरकुविन्द को अत्यन्त हर्ष हुआ। हर्षातिरेक में वह बोला, "अच्छा हुआ दोनों मर गये। पापी अपने खुद के पापों से ही मरता है। पापी पापेन पच्यते।" अब वीरकुविन्द को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह जंगल में जा कर तप करने लगा। उसका तप बाल तप था। वह अज्ञान से भरा हुआ था। इस प्रकार तप करते करते वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और मर कर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ।
देवताओं को अवधिज्ञान होता है। अपने अवधिज्ञान के उपयोग से उसने यह जान लिया कि वनमाला और सुमुख राजा युगलिक रूप में उत्पन्न हुए हैं। यह जानकर उसके मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हुई। उसने सोचा कि पिछले जन्म में इसने मेरा घर बरबाद किया था, मेरी औरत को यह भगा ले गया था; अतः अब इसे यह बतला देना चाहिये कि पाप कर्म और कामासक्ति का फल (परिणाम) कितना भयंकर होता है।
इस प्रकार सोचकर वह बदला लेने के लिए उचित अवसर ढूँढने लगा। संसार के इस मायाजाल में बांधे गये कर्म का हिसाब पूरा किये बना छुटकारा नहीं होता। हर जीव को अपना हिसाब किसी न किसी जन्म में चुकाना ही पड़ता है। बैरी अपना बैर वसूल किये बना नहीं रहता। कमठ ने दस-दस भव तक मरुभूति से अपने वैर का बदला लिया था।
देवगति को प्राप्त वीरकुविन्द उन दोनों से बदला लेना चाहता है। उन्हे दुर्गति में पहुँचाना चाहता है; पर यह काम बड़ा
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ५ Shree Sudhalmaswami Syanbhandar-Umara;-Surat-.---.wrumaragyanbhandar.com
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कठिन है। भोग भूमि के युगलिक अपने क्षेत्र के प्रभाव से मरणोपरान्त नरक तिर्थचादि दुर्गति में नहीं जाते; अपितु वे देवगति ही प्राप्त करते है।
पर वीरकुविन्द (दव) तो उन्हें दुर्गति में डालना चाहता था; अतः उसने उन दोनों को कर्मभूमि के किसी प्रदेश का राजा-रानी बनाने का निश्चय किया। उसे यह मालूम था कि राज्य प्राप्ति के पश्चात् विषय-मोग और मांस मदिरादि के सेवन में लुब्य हो जायेंगे। परिणाम स्वरूप मरणोपरान्त ये नरक गति को प्राप्त होंगे। कहा भी है-राजेश्वरी सो नरकेश्वरी।
जीवन के किसी भी भाग में बोये गये बैर के बीज द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के अनुसार जब अकुंरित होते हैं, अर्थात् फलदान के ? योग्य बनते हैं। तब बदला लेने वाला जीव चाहे देवलोक में हो; फिर भी वह बदला लेने के लिये तत्पर होजाता है। पूर्वजन्म का वैरानुबंध तीव्रातितीव्र होने के कारण तपादिद्वारा प्राप्त देवलोक के अत्युत्तम पौद्गलिक सुखोंको छोडकर भी वह वैर का बदला लेने के लिये प्रयत्नशील रहता है। इससे यह बात अच्छी तरह मालूम हो जाती है कि, नाशवंत पदार्थों को लेकर किया गया राग-द्वेष कितनी जबरदस्त ताकत वाला होता है।
वीरकुविन्द देव ने अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात किया कि भरत क्षेत्र में स्थित चंपापुरी का राजा चन्द्रकीर्ति मृत्यू को प्राप्त हो : गया है और उसके कोई पुत्र न होने के कारण उसका राज्य लावारिस ' हो गया है। यह ज्ञात होते ही वह उन युगलिकों को राज्य प्रलोभन देकर अपनी देवशक्ति से चंपापुरी ले आया और उन्हें गांव के बाहर एक सम्मान में छोड दिया। उनमे से पुरुष का नाम हरि था और स्त्री
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का नाम हरिणी था।
फिर उनसे आकाश में रहकर यह घोषणा कि - "हे नगरजनो! तुम्हारा राज्य अबतक राजा रहित था; पर अब मैं तुम्हारे लिये राजाले आया हूँ। इसी नगर के बाहर उद्यान में एक युगल पेड के नीचे आराम कर रहा है। पुरुष का नाम हरि और स्त्री का नाम हरिणी है। दोनो गौरांग हैं और प्रकाशमान भी है। पुरुष के हाथ पैरों में चक्र, गदा, तोरण, आदि शुभचिन्ह हैं। वे दोनो आजानुबाहु हैं और आँखें कमल के पत्तों के समान दीर्घ हैं। पुरुष शरीर पर श्रीवत्स, मत्स्य, कलशादि चिन्ह भी है। उसी पुरुष में राज्य संचालन करने की योग्यता है। तुम सब लोग उसे नगर का राजा बना दो। यद्यपि उसके साथ कल्पवृक्ष है; पर तुम लोग उसे मदिरा-मांसादिके स्वाद से भी परिचित करा दो।
नगरजनों ने उस देववाणी का पालन किया। वे हरि और हरिणी को गाजे-बाजे के साथ नगर में ले आये और उनका राज्याभिषेक कर दिया। अब राजा-रानी दोनो सुखपूर्वक रहने लगे
और मदिरा-मांसादि तथा विषयभोगों का रुचिपूर्वक सेवन करने लगे। धीरे-धीरे उनका पुण्यकर्म घटता गया और पापकर्म बढ़ता गया। अंत में मरणोपरान्त वे नरक गति में उत्पन्न हुए और दारुण वेदना भोगने लगे। उनकी इस स्थिति से उस देव को परम संतोष हुआ। उसके खुशी का पार न रहा।
एक युगलिक का कर्मभूमि में आगमन और उनके द्वारा राज्य संचालन तथा मदिरा-मांसादि का सेवन ये सब बातें एक बहुत बड़ा आश्चर्य है। ऐसा कभी नहीं होता; पर कर्म की विचित्रता के कारण ही यह अद्भुत घटना दसवें तीर्थंकर श्री
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित७ Shree Sudharthaswami Gyanbhandari Umera-Surat--.
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शीतलानाथ परमात्मा के समय में घटी।
इस हरि राजा से हरिवंश की उत्पत्ति हुई। हरिवंश में हरि के पश्चात् ऐसे अनेक राजा हुये जिन्होंने संयम ग्रहण करके धर्म की आराधना की और केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गमन किया।
__ वर्तमान चौबीसी के बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी परमात्मा भी इसी हरिवंश में उत्पन्न हुये हैं। वे गर्भ से मति-श्रुत अवधिज्ञान के धारक थे। दीक्षा लेते ही उन्हें चौथा मनःपर्यय ज्ञान हुआ था और केवल ज्ञान पाने के पश्चात् उन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना की थी।
महावीर वाणी
जरा जाब न पीडेइ बाही जाब न बटइ। जाविन्दिया न हायन्ति तार धम्म समायरे।।
जब तक बुढापा नही सताता, जब तक रोग नही बढ़ता .. और जबतक इन्द्रियाँ कमजोर नहीं होती; तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिये। बुढापा आने पर, शरीर रोग जर्जर : होने पर और इंद्रिया ढीली ढाली होने पर धर्म का आचरण असंभव है।
जा जा बच्चा रयणी न सा परिनियत्ता। महम्मं कुणमाणस्स बफला जन्ति राइबो।।
जो जो रात बीत जाती है, वह फिर नही लौटती। जो मनुष्य अधर्म के आचरण में लगा रहता है; उसके लिए सब रातें निष्फल होती है।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ८
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प्रभु का पूर्वभव जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में भरत नामक विजय में चंपानगरी बसी हुई थी। वह अपनी विशालता, रमणीयता और दर्शनीयता में देवलोक अमरावती (इन्द्रपुरी) से किसी प्रकार कम नहीं थी। वहाँ का राजा सुरश्रेष्ठ यथा नाम तथा गुण था। वह सुरश्रेष्ठ अर्थात् देवेन्द्र के समान वैभवसंपन्न था।
राजा सुरश्रेष्ठ, दानवीर, रणवीर, धर्मवीर और सदाचार संपन्न था। उनके महल से कोई भी याचक खाली नहीं जाता था। रणभूमि में वह कभी पीठ नहीं दिखाता था। युद्ध के समय उसकी तलवार यमराज की जीभ के समान लपलपाती थी। अन्यायी और दुराचारी राजा उसके आगे थरथर कांपते थे। मनुष्यता को अलंकृत करनेवाले आचारधर्म का वह स्वयं तो पालन करता ही था, पर प्रजा से भी उसका पालन करवाता था। वह धर्म के सत्य स्वरूप से पूरी तरह परिचित था, उसका वचन सापेक्ष होता था और वह धर्म की आराधना श्रध्दापूर्वक किया करता था।
ऐसे गुणसंपन्न राजा का आदेश भला कौन नहीं मानेगा? उसके प्रजाजन उत्साहपूर्वक उसके आदेश का पालन करते थे। जुआ, मांस भक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, परस्त्री गमन, शिकार, चोरी आदि सप्त व्यसनों से प्रजा मुक्त थी। महाव्रती मुनिजनों एवं तपस्वी गुणीजनों का वहाँ सत्कार होता था। राजा के शास्त्रज्ञान की मुनिजन भी प्रशंसा करते थे। गृहस्थ होते हुए भी धर्मप्रिय राजा आराधना के मार्ग में बड़ा उत्साही था। राज्य संचालन कुशलतापूर्वक करते हुये भी वह धार्मिक अनुष्ठानों में
त स्वामी चरित dhamaswamidyaribhandar-Umarasurat-------wowowsumeragyanbhandar.com
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सदा अग्रसर रहता था ।
मनुष्य का जीवन स्वच्छ, सुंदर और पाप की गन्दगी से रहित हो, तो वह आर्त और रौद्र ध्यान से सहज ही छुटकारा पा सकता है और धर्म ध्यान का आलंबन लेकर शुक्ल ध्यान की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है। राजा सुरश्रेष्ठ भी धर्म मार्ग में अपने लक्ष्य की ओर गतिशील था ।
एक बार नन्दन ऋषि उस नगर में अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे और वहाँ के उद्यान में ठहर गये । उद्यान पालक ने राजप्रासाद में जाकर राजा को बधाई दी और नन्दन ऋषि के आगमन का सन्देश दिया । सन्देश पाकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और हर्षातिरेक में उसने अपने शरीर के अलंकार उस उद्यान पालक को भेट स्वरूप प्रदान किये ।
राजा ने पूरा नगर सुशोभित किया, हाट-बाजारों में ध्वजा पताकाएँ लगवायी और घर-घर तोरण बंधवाये। फिर वह ठाठ-बाठ के साथ उद्यान में पहुँचा । दूर से ही मुनिराज के दर्शन से उसे परम सन्तोष हुआ । मुनिराज के ललाट पर तेज था, उनकी आँखें निर्विकार थीं।
मुनिराज के निकट पहुँच कर राजा ने उन्हें भक्तिभाव पूर्वक वन्दन किया और सुखशाता पृच्छा की। मुनिराज ने आशीर्वाद के रूप में राजा को धर्म लाभ दिया । सचमुच इस संसार में धर्मलाभ ही तो सारभूत है। धर्म से ही इहलोक और परलोक में भी सुख, शांति तथा समाधि की प्राप्ति होती है। धर्म के ज्ञान से ही जीव और अजीव का भेद मालूम होता है और जीवों को अभयदान दिया जा सकता है ।
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जैन धर्म और जैन दर्शन अहिंसा प्रधान ही है; इसलिए तो किसी कवि ने कहा है -
तीन लोक में भर रहे, थावर जंगम जीव । सब मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव | अपने सन्मुख जिज्ञासू जनों को उपस्थित देखकर मुनिराज ने अपनी पीयूषवर्षिणी देशना प्रारंभ की। उन्होंने कहा
अपनी आँखो से दिखाई देनेवाला यह संसार तत्वदृष्टि से सर्वथा असार है । जीवन पानी के बुलबुले सा है, जवानी कांच की चुडी सी है, रईसी बिजली की चमक सी है, पारिवारिक प्रेम सरिता प्रभाव सा है, अधिकार हाथी कान सा चंचल है और यह शरीर भी मिट्टी के पात्र के समान नाशवान है । कहा भी है
-
जीवन गृह गोधन नारी, हयगय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय भोग छीन थाई, सुर धनु चपला चपलाई ।।
यौवन, घर, गाय, बैल, द्रव्य, स्त्री, घोडा, हाथी, आज्ञाकारी नौकर तथा इन्द्रियों के विषय भोग ये सब क्षणिक हैं, स्थायी नहीं है । इनका अस्तित्व बिजली के अस्तित्व सा चंचल है । संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है ।
यह देह मांस, खून, पीब और विष्ठा की थैली है - गठरी है । हाड़, चरबी आदि अपवित्र वस्तुओं के कारण मैली है। सरस और सुगंधी द्रव्यों का इस देह पर चाहे जितना विलेपन करो, कुछ समय बाद वे सब द्रव्य इसी शरीर के कारण घृणास्पद और दुर्गंधमय बन जायेंगे ।
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संसार में धर्म ही कल्याण मित्र है। शरीर तो नित्य मित्र के समान दगाबाज है। यह भवान्तर को बिगाड़ता है और दुर्गति में ले जाता है। यह पापोत्पादक और पापवर्धक है तथा अगले जन्मों में दुःख, दरिद्रता, बीमारी और मानसिक संताप प्रदान करता है। यह भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी तथा वियोगमय है और संसार दुःखमय है। अतः इस शरीर से पापोपार्जन की अपेक्षा धर्मोपार्जन करना श्रेयस्कर है। इहलोक और परलोक में सुखप्राप्ति का यही! राजमार्ग है। कहा भी है
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण धर्म पंथ साधे बिना, नर तीर्यच् समान ।।
अतः धर्म की आराधना हमेशा करते रहना चाहिये। धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तपधर्म है। दान, शील तप
और भाव धर्म है। इस धर्म के पालन में जो तत्पर रहता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं।
धर्म दो प्रकार का है - मुनि धर्म और श्रावक धर्म। संसार - परिभ्रमण से मुक्ति का एकमेव उपाय मुनि धर्म का पालन है; अतः
: यदि शक्ति हो तो महाव्रतों को ग्रहण कर मुनि धर्म की आराधना .., करनी चाहिये। इससेही संसार भ्रमण क्रमशः घटता जाता है। - मुनि राज के उपदेश से राजा बहुत प्रभावित हुआ। यह
। संसार उसे असार लगने लगा। उसकी भवाभिनन्दिता और ... पुद्गलाभिनन्दिता घटने लगी। उसका जीवन वैराग्य रंग में रंगा
गया। जब मोक्षाभिलाषिणी पुरूषार्य शक्ति और आसन्न भव्यता का मेल बैठगजाता है, तबसंयम ग्रहण की भावना बढ़ने लगती है।
राजा ने भागवती दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया।
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उपदेश ग्रहण कर वह महल में लौट गया। उसने पुत्र को राज्य सौंप दिया। फिर अपने पुत्र से और परिवार जनों से संयम ग्रहण करने की अनुमति प्राप्त की और शुभदिन, शुभनक्षत्र, शुभयोग और स्थिरलग्न आने के उपरान्त जब स्वयं का चन्द्रस्वर आया तब उसने गुरू महाराज से दीक्षा अंगीकार की।
मनुष्यजन्म, आर्यकुल, पंचेन्द्रिय परिपूर्णता और धर्म आदि की प्राप्ति पुण्योदय से होती है; पर इससे आगे बढ़ने में पुण्य कर्म के साथ साथ आत्मपुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। पुरुषार्थ के बिना संयमपालन, गुणस्थान आरोहण, यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान प्राप्ति असंभव है। संयम की प्राप्ति पुरुष के पुण्योदय से होती है; पर चारित्र के पालन में मोह कर्म का क्षय या उपशम करना पडता है और यह पुरुषार्थ के बिना संभव नहीं।
मुनि सुरश्रेष्ठ ने संयम की आराधना शुरू की। उनका लक्ष्य था तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन। इस दिशा में उन्होंने अपना प्रयत्न शुरू किया। सामान्य केवली अन्य जीवों के उपकारी हो भी सकते है और नहीं भी हो सकते; पर तीर्थंकर केवली संसार के समस्त जीवों के उपकारी होते हैं। वे धर्म मार्ग का प्रवर्तन करते हैं; इसीलिए सुरश्रेष्ठ तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करना चाहते थे।
बीस स्थानक तप की आराधना से तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन होता है। इस तप में बीस ऐसे स्थान है; जो श्रेष्ठतम है और आत्मोन्नति का चरमशिखर प्राप्त कराते हैं।
स्थानक दो प्रकार के होते हैं - द्रव्य स्थानक और भाव - स्थानक। शराब घर, वेश्या घर, परस्त्री का आवास, जुआ घर, . शिकारगाह, बाजार, सिनेमा घर आदि भी स्थानक ही हैं, पर इनके
बत स्वामी चरित १३ Shree Sudharmaswāmi Gyānphanuar-umata, surat
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कारण आत्मा का तेज और पुण्य खत्म हो जाता है और मनुष्य मानसिक और शारीरिक व्याधियों से ग्रसित हो जाता है । ये अशुभ द्रव्य स्थानक हैं ।
जिनमंदिर, उपाश्रय, पाठशाला, आयंबिल भवन आदि शुभ द्रव्य स्थानक हैं। इनके कारण मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है और पुण्य बढ़ता है। भावस्थानक के कारण पुराने पापों का नाश होता है और कर्मों का आसव-बंद होता है । भाव स्थानकों से कर्मों का संवर होता है और निर्जरा होती है । अतः आराधकों के लिए शुभ द्रव्य स्थानक और भाव स्थानक सर्वदा उपादेय है ।
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बीस स्थानक भाव स्थानक हैं। इनमें से अरिहन्त, सिध्द और जिनेश्वर ये तीन देवतत्त्व है। आचार्य स्थविर, उपाध्याय, मुनि, ब्रह्मव्रतधारी, संयमधारी तथा गौतम स्वामी गुरु तत्त्व हैं और प्रवचन, ज्ञान, दर्शन, विनय, चारित्र, क्रिया, तप, नूतन ज्ञान, श्रुत तथा तीर्थ धर्मतत्त्व हैं। इस प्रकार इन बीस स्थानकों की आराधना देव, गुरु, और धर्म की ही आराधना है ।
जिस तरह किसी इमारत की दृढता के लिए नींव, खंभे और गाडर की दृढता आवश्यक है, इसी प्रकार आत्मोन्नति के लिए देव, गुरु और धर्म की शुद्धता अत्यन्त आवश्यक है । देव तत्त्व की आराधना नींव है, गुरु तत्त्व की आराधना स्तंभ है और धर्म तत्त्व की आराधना इन स्तंभो का जोडनेवाली गाडर के समान है । देव और 'गुरु की आराधना - उपासना से कर्मों का संवर होता है और धर्म तत्त्व की आराधना से पाप कर्मों की निर्जरा होती है ।
बीस स्थानकों में पहला अरिहंत पद है। इस पद की आराधना करते समय साधक सोचता है कि मैं स्वयं अरिहंत स्वरूप
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का हूँ; पर कर्मों के कारण संसारी बना हुआ हूँ; अतः ज्ञानवरणीय,
दर्शनावरणीफ, मोहनीय और अन्तराय आदि घाती कर्मों का नाश . करके मुझे मेरे असली स्वरूप को प्राप्त करना चाहिये और समस्त जीवों के कल्याण में सहायक बनना चाहिये । मुझे मेरा मूल स्वरूप प्राप्त हो और सब जीवों का कल्याण हो, ऐसी भावदया का विकास करना ही अरिहंत पद की आराधना है। इसी प्रकार संसार के शुभाशुभ मोह उपादानों से मुक्त हो कर निरंजन-निराकार सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना सिद्धपद की आराधना है।
तीसरा पद है - प्रवचन । प्रवचन अर्थात् द्वादशांगी। केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् श्री तीर्थंकर परमात्मा समवसरण में संसार का सत्त्य स्वरूप तीन पदों में प्रकट करते हैं - उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा अर्थात् पर्यायों की उत्पत्ति होती है, विनाश . होता है, फिर भी द्रव्यरूप से वह ध्रुव अर्थात् अपने मूल रूप में बना रहता है। इस त्रिपदी को प्राप्त कर गणधर भगवान द्वादशांगी की रचना मुहूर्त मात्र में करते हैं। अरिहंत परमात्मा अर्थ रूप में तत्व प्रकट करते हैं और गणधर भगवान उसे सूत्र रूप प्रदान करते हैं। यह द्वादशांगी ही प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट वचन है। यह प्रवचन जीव मात्र के भवरोगों का नाश करने में समर्थ है। ऐसे प्रवचन की श्रध्दापूर्वक की जानेवाली उपासना - स्वाध्याय, मनन, चिन्तन आदिही सच्ची आराधना है।
अगला पद है -आचार्य। पंच परमेष्ठी में आचार्य का स्थान । तीसरा है। आचार्य छत्तीस गुणों केधारक होते हैं। वे पाँच महाव्रतों से युक्त होते हैं, पाँच प्रकार के आचार का पालन करते हैं और पाँच
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समिति तथा तीन गुप्तियों का अर्थात् अष्ट प्रवचन माता का पालन करते हैं। इसी प्रकार वे पाँच इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रखते हैं, शील की नौ वाडों की रक्षा करते हैं और चार प्रकार के कषायों से मुक्त होते हैं। वे हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँचो पापों से सर्वथा मुक्त होते हैं। चौथे पद में ऐसे आचार्य पद की आराधना की जाती है ।
अब आगे आता है - स्थविर स्थानक । वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और तपोवृद्ध मुनि स्थविर कहलाते हैं। पाँचवे पद में इनकी आराधना की जाती है ।
छठे स्थान में हैं उपाध्याय । पंच परमेष्ठी में इनका स्थान चौथा है। उपाध्याय पद के बारे में श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज । फरमाते है -
उवज्झाय महागुणी, चौथे पद से जेह । आचारिज सरिखा, हुं वन्दु धरी नेह । ।
परमारथ पूरा, कूडा नहीं जस वेण । सुख पामे चेला, देखता जस नेण । । उपाध्याय पद वंदिये, हरे उपाधि जेह । सूरीश्वर पद योग्य है, स्वाध्याये सुसनेह । । मूरख शिष्य ने शीखवे, महाबुद्धि बलवन्त । आगम सूत्र उच्चारवा, स्वर वर्णादिक खन्त । । अतिशय ठाणांगे कहया, जेहना सूत्र मझार । सूरिराजेन्द्रे दाखिया, मुनिजन के आधार ।। श्री उपाध्याय भगवन्त मानसिक अध्यवसाय में शिथिल
संघ को पठन-पाठन और युक्ति प्रयुक्ति द्वारा धर्ममार्ग में दृढ
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हैं। वे स्वयं आगम का स्वाध्याय करते हैं और अन्य मुनिजनों को , भी आगम की वाचना देते हैं। ये पच्चीस गुण युक्त होते हैं। छठे स्थानक में इनकी आराधना की जाती है।
सातवें स्थानक में साधु पद की आराधना की जाती है। पाँच परमेष्ठी में साधु का स्थान पाँचवा है। साधु को मुनि या अन्तेवासी भी कहते हैं। साधु अपनी आत्मा का कल्याण करता है और दूसरों का भी कल्याण करता है। जो मौन धारण करता है, उसे मुनि कहते हैं और जो अपने गुरु की सेवा वफादारी पूर्वक करता है, उसे अन्तेवासी कहते हैं। साधु पाँच महाव्रतों का और अष्टप्रवचन माता का पालन करते हैं।
आठवें से चौदहवे स्थानक में सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, विनय, सम्यचारित्र, क्रिया तप तथा अभिनव ज्ञान का समावेश होता है।
पन्द्रहवाँ स्थानक है - ब्रह्मचर्यव्रत धारी का। ब्रह्मचर्यव्रत संसार में दीपक के समान है। इन्द्रमहाराज भी ब्रह्मव्रत केधारक को . प्रणाम करके सिंहासन पर विराजमान होते हैं। यह व्रत आत्मोन्नति में परम सहायक है। ब्रह्मव्रती भी आराध्य होने के कारण उच्चस्थान में विराजमान हैं।
सोलहवे स्थान में है-श्री गौतमस्वामी। ये चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे और परम विनयी थे। भगवान महावीर पर इनका प्रशस्त अनुराग था। ये अनेक लब्धियों केधारक -- थे। भगवान महावीर के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर ये मोक्ष में गये। इनके हाथ से जिस किसी ने भी दीक्षा ली, उसने अवश्य ही केवलज्ञान प्राप्त किया। ये आत्मलब्धि से सूर्य की किरण का
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अवलंबन ले कर आकाशमार्ग से अष्टापद तीर्थ पर गये थे और वहाँ उन्होंने पन्द्रहसौ तापसों का उद्धार किया।
अगला स्थान है संयमधारी का। जो पुरूष संसार तथा संसार के सुखों को पापोत्पादक, पापवर्धक और पाप परंपरक मानकर उनका त्याग कर संयम ग्रहण करता है, वह संयमी है। सतरहवें स्थानकम में संयमी साधक की आराधना की जाती है।
___ अठारहवाँ स्थानक है नूतनज्ञान । आगमज्ञान के आलोक में जिस नूतन श्रुतज्ञान को प्राप्त कर आराधक आसवों का त्याग कर संवर मार्ग अपनाता है, वह नूतन श्रुतज्ञान भी आराध्य है।
उन्नीसवाँ स्थान हैं जिनेश्वर देव का। जिन वे है जो राग-द्वेषादि अभ्यन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। कहा भी है
रागद्वेषादि शत्रून् जयतीति जिनः आत्मोत्थान के लिए 'जिन' की आराधना भी अनिवार्य है।
अन्तिम स्थानक है तीर्थ। जो तारता है, वह तीर्थ है। तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियाँ तीर्थ हैं। इनकी आराधना भी आराधक के लिए अनिवार्य है।
राजर्षि सुरश्रेष्ठ ने इन बीस स्थामकों की उत्कृष्टतम आराधना की और तीर्थकर नाम कर्म निकाचित किया। इन बीस स्थानकों की आराधना बाहय एवं अभ्यन्तर तपपूर्वक की जाती है। राजर्षिने निरतिचार चारित्र पालन किया और अन्तिम समय में अनशनपूर्वक देहोत्सर्ग करके प्राणत देवलोक प्राप्त किया।
पुण्य कर्म की चरम सीमा तीर्थकर परमात्मा के चरण कमलों में समाप्त होती है। पुण्यकर्म की चरम सीमा है तीर्थकर नाम कर्म। श्री तीर्थकर परमात्मा की आत्मा तीर्थंकर भव के पूर्व तीसरे भव में
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बीस स्थानक तप की आराधना करती है और तीर्थंकर नाम कर्म. 'निकाचित करती है । फिर देवगति प्राप्त कर के उसके पश्चात् मनुष्य गति प्राप्त करती है और संयम ग्रहण करके घाती कर्मों का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त कर केवल तीर्थकर पद प्राप्त करती है ।
राजर्षि सुरश्रेष्ठ की आत्मा ने भी देवगति की आयु पूरी करके भारत वर्ष में मनुष्य रूप में जन्म लिया और दीक्षा ग्रहण कर केवल ज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर पद प्राप्त किया। इन्हीं तीर्थंकर नाम श्री मुनिसुव्रत स्वामी है ।
अगले अध्याय में उन्हीं का पावन चरित्र प्रकट किया जायेगा ।
महावीर वाणी
पाणेय नाइवाएज्जा अदिनं पि य नायए । साइयं न मुसं बूया एस धम्मे बुसीम ओ ।।
प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी हुई वस्तु न लेना, कपंटयुक्त असत्य वचन न बोलना; ऋषियों के मत से यह धर्म
है।
नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्व वादें । न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः कषाय मुक्ति किलमुक्तिरेव । । श्वेतांम्बरत्व, दिगंबरत्व, तत्ववाद, तर्कवाद तथा पक्षपात के आश्रय से कभी मुक्ति प्राप्त नही होती। कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।
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प्रभु का जन्म एवं दीक्षा जीव मात्र का कल्याण करनेवाली श्री मुनिसुव्रत स्वामी परमात्मा की आनन्द-मंगल वर्धिनी, तथा सुख-शान्ति कारिणी, · समाधि प्रदात्री, धर्मदशना को मैं भक्ति-भावपूर्वक वन्दन करता हूँ। मेरी यह कामना है कि भवान्तर में भी जिनवाणी मेरा कल्याण करे।
___ भारतवर्ष में साढे पच्चीस देश आर्य देश माने गये हैं, उनमें मगध देश का स्थान सर्वोपरि है। उस काल में मगध देश अपनी विशालता, भव्यता और धार्मिकता के लिए तीनों लोक में प्रसिध्द था। देवलोक के देव भी इसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। चौबीसों तीर्थकर परमात्माओं के पाँचों कल्याणक उत्तरापथ में ही हुए है। बारह चक्रवर्ती और नौ वासुदेव भी उत्तरापथ में ही हुए हैं। और मगध देशभी उत्तरापथ में ही तो हैं।
__ उस काल में उस समय में मगध देशान्तर्गत राजगृही नगरी में : 1 हरिवंश कुलोत्पन्न राजा सुमित्र राज्य करता था। राजगृही के लोग अपने रूप गुण में देवताओं को भी मात करते थे। अर्थ और काम पुरुषार्थ के सेवन में भी वे सदा धर्म का ध्यान रखते थे। वहाँ के लोग
व्यापार-धंधे में, लेन-देन में, हिसाब-किताब में और नाप-तौल में .: किसी को ठगते नहीं थे। वे ईमानदार थे और चरित्रवान भी। .. अपनी न्याय-निती के लिए वे समस्त भारतवर्ष में विख्यात थे। - गृहस्थाश्रम के पालन से उपार्जित पापकर्म की आलोचना
हेतु वे सामायिक प्रतिक्रमण-पौषधादि धर्मक्रियाओं में रत रहते थे
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और पुण्यकर्म की अभिवृद्धि हेतु वे देववन्दन, पूजन आदि आराधना भावोल्लास पूर्वक किया करते थे। उनकी धर्माराधना प्रशंसनीय, अनुमोदनीय व अनुकरणीय थी।
राजा सुमित्र राज्य-संचालन, प्रजापालन, सज्जन-सत्कार और दुष्ट-दलन आदि के लिए ख्याति प्राप्त था। वह प्रजाजनों से अल्प कर भार लेता था, पर प्रजाहित के कार्य अधिक किया करता था। द्विपद-चतुष्पद आदि प्राणियों की रक्षा व सुख सुविधा के लिए वह प्रयत्नशील रहता था। वह स्त्री जाति का सम्मान करता था। स्त्री का अपमान करनेवाले को वह कड़ा दंड देता था। धर्मप्रम उसकी रग रग में समाया हुआ था।
उसकी रानी का नाम पद्मावती था। अपनी सुन्दरता में वह कामदेव की पत्नी रति से मुकाबला करती थी। उसकी आँखें हरिणी की आँखों के समान थी। उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर था और ललाट सूर्य नारायण के समान तेजस्वी था। उसकी आँखें निर्विकार थी, वाणी मधुर थी और उसके हाथ परोपकारी थे। उसका हृदय दया से परिपूर्ण था।
पातिव्रत्य धर्म उसका प्राण था, शील मर्यादा उसकी चूनडी थी और सत्यवचन ही उसके कंकण थे। वह अपने दाम्पत्य जीवन का निर्वाह अपने पति के साथ सुखपूर्वक करती थी। एक बार श्रावण शुक्ला पौर्णिमा की रात के अंतिम प्रहर में उसने चौदह शुभ स्वप्न देखे। सर्व प्रथम उसने मदोन्मत हाथी देखा और उसके बाद हृष्ट-पुष्ट सफेद बैल। इसी क्रमसे उसने केसरी सिंह, गजाभिषिक्त लक्ष्मी देवी, पंचरंगी पुष्पमाला, पूर्णचंद्र, अत्यंत प्रकाशमान सूर्य, रंगबिरंगी इंद्रध्वजा, स्वच्छ जल से परिपूर्ण कलश,
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पद्मसरोवर, रत्नाकर, देव विमान और अनमोल रत्नों का ठेर देखा...
और अन्त में देखी निर्धूम आग। ये सब सपने दर्शनीय व विलोभनीय थे।
स्वप्नदर्शन के पश्चात् रानी जाग गयी। इन सपनों को उसने अपने जीवन में देव की कृपा, गुरु का आशीर्वाद और धर्माराधना का फल माना। वह तुरंत महाराज सुमित्र के पास गयी
और उन्हे अपने सपनों का हाल कह सुनाया। राजा ने स्वप्न पाठकों को आमंत्रित किया। उनसे स्वप्न का फल जानकर अत्यंत हर्ष हुआ। स्वप्न दर्शन का फल था, एक ऐसे पुत्ररत्न का जन्म, जो ... तीनो लोकों में वन्द्य हो।
स्वप्न फल के ज्ञान से हर्षित रानी सावधानीपूर्वक गर्भ का पालन करने लगी। गर्भकाल पूरा होनेपर ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को .. जब चन्द्र श्रवण नक्षत्र में था, तब उसने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। पुत्र के जन्म से तीनो लोकों मे हर्ष छा गया। नारकी जीवों के को भी क्षणभर के लिए सुखद अनुभव हुआ। यह तीर्थंकर : मुनिसुव्रत स्वामी का जन्म कल्याणक था। अपराजित विमान से . उनका च्यवन हुआ और राजगृही में जन्म।
प्रभु का जन्म होते ही छप्पन्न दिक्कुमारिकाएं माता के पास पहुँची और उन्होंने सूति कर्म किया। उन्होंने प्रभू के आगे नाटक, । नृत्य, संगीत आदि कार्यक्रम प्रस्तुत किये। प्रभु का दर्शन करके ।
उन्होंने हर्ष का अनुभव किया और अन्त में हमें भी तीर्थंकर की - माता बनने का अवसर प्राप्त हो, ऐसी भावना करती हुई वे अपने
अपने स्थान पर चली गयीं। . प्रभु के जन्म के समय इन्द्र महाराज का सिंहासन हिल उठा;
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तब अवधिज्ञान के उपयोग से उन्हें यह ज्ञात हुआ कि, तीर्थंकर परमात्मा का जन्म हुआ है। उन्होंने हरिणगमेषी देव को तुरंत सुघोषा घंटा बजाने की आज्ञा दी । सुघोषा के बजते ही बत्तीस लाख देव विमानों की घंटियाँ बज उठीं। घंटानाद से सब देवी देवता सावधान हो गये और तीर्थंकर परमात्मा का जन्म कल्याण मनाने के लिए तैयार हो गये। चौसठ इन्द्र अपने देव देवी के परिवार के साथ राजमहल उपस्थित हुये । फिर वे बाल प्रभु को मेरु पर्वत पर ले गये। वहाँ उन्होंने परमात्मा का क्षीरसमुद्र के जल से अभिषेक किया ।
संसार में उत्सव तो अनेक आते हैं और लोग उन उत्सवों को हर्ष पूर्वक मनाते भी हैं, पर उन सांसारिक उत्सवों से आत्मा का भला नहीं होता । आत्मा का भला तो अलौकिक उत्सव से ही होता है। प्रभु का जन्मोत्सव, आराधक का दीक्षोत्सव, प्रभु का केवल ज्ञानउत्सव आदि ऐसे उत्सव है; जिनसे आत्मा का निश्चित रूप से कल्याण होता है। देवताओं ने प्रभु का जन्मोत्सव बड़े उत्साह से मनाया ।
•
अभिषेक के पश्चात् इन्द्र महाराज ने प्रभु की स्तुति करते हुये कहा - " हे नाथ! आप इस अवसर्पिणी काल रूप सरोवर में कमल के समान हैं और हम भरे हैं। हम संसारी है, संसार से पार होना चाहते हैं, अतः हमारा आपके पास आना अनिवार्य है । भ्रमर कमल के पास गये बिना कैसे रहेगा? आपके चरण कमलों को प्राप्त कर आज हमारा जीवन कृतकृत्य हो गया ।
""
“हे वीतराग! यद्यपि हम देवों में शक्ति अपार होती है; एक साधारण सा देव भी चक्रवर्ती की सेना को तहस-नहस करता है;
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फिर भी यह हमारी यह ताकत भौतिक है। इससे आत्मा का अधःपतन होता है; अतः आपसे आत्मिक शक्ति की याचना करते है।
यह संसार उपादेय नहीं, हेय है। विषयभोग विष से भी भयंकर हैं। ये जन्म जन्म में आत्मा को मारते हैं - दुर्गति में डालते है; अतः आपकी शरण ही स्वीकार्य है। इस असार संसार में यदि
कोई सारभूत तत्व है, तो वह आपका स्तवन और कीर्तन ही है। • आपके ध्यान-स्मरण और वन्दन-पूजन से ही आत्मा का कल्याण .... होता है।"
___“हे प्रभो! इस संसार में उन्हीं का जीवन धन्य है; जो आपके ।' दर्शन करते हैं; आपकी पूजा करते हैं और आपको हृदयकमल में । । प्रतिष्ठित करते हैं। आपका स्मरण करनेवाले देव-दानव और मनुष्य तथा तिर्यच भवान्तर में भी सुख प्राप्त करते हैं।"
"हे संसार-तारक! वही प्राणी इस संसार समुद्र से पार होगा, ... जो अपनी आँखों से आपके दर्शन करेगा। हाथ जोडकर ललाट से आपको वन्दन करेगा, आपकी पूजा करेगा और जीभ से आपका '' गुणगान करने के साथ कानों से आपके वचनामृत का पान ... करेगा।"
"हे परमात्मा! आपके गुण स्मरण से मन की वक्रता, आँखों ५. के विकार, हृदय की क्रूरता आदि दुर्गुण खत्म हो जाते हैं। आपके
केवल ज्ञान से आलोकित अहिंसा, संयम और तप इन तीन रत्नों की आराधना से प्राणियों का जीवन वैरमुक्त और धन्य बनता है।
"रूपवती ललनाओं के सहवास से प्राप्त विषयसुख किंपाक .. फल के समान हमारे लिए आत्मघाती है। हे सर्वशक्तिमान! हमें
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ऐसी शक्ति प्रदान करो, जिससे हम विषय विकारों से मुक्त होकर आत्मसुख प्राप्त करें । "
" हे गुणसागर ! हम आपके गुणोंकी बारबार अनुमोदना करते हैं और आपसे प्रार्थना करते हैं कि भव-भव में हमें आपका स्मरण बना रहे और आपकी चरण सेवा प्राप्त हो ।
""
इस प्रकार प्रभु की स्तुति कर के इन्द्र महाराज ने प्रभु को पुनः माता पद्मावती के पास ले जाकर रख दिया और उन्हें पुनः पुनः वन्दन करते हुए वे देवलोक में चले गये ।
राजा सुमित्र ने भी प्रभु का जन्मोत्सव 'धूमधाम से मनाया । सारे नगर में खुशियाँ छा गयी । नामकरण संस्कार के समय प्रभु का नाम मुनिसुव्रत रखा गया; क्योंकि भगवान जब गर्भ में थे, तब माता के मन में व्रत - नियम और दान-शील, तप आदि का पालन करने के अनेक शुभ भाव हुए थे ।
भगवान जन्म से ही चार अतिशय सम्पन्न और तीन ज्ञानयुक्त थे। धीरे धीरे दूज के चंद्रमा के समान वे बड़े हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए। माता-पिता से प्रभावती सहित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह किया। कुछ समय बाद प्रभावती ने योग्य समयपर एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसका नाम सुव्रतकुमारं रखा गया ।
भगवान के प्रभाव से राज्य में सुखशान्ति थी । प्रजाजनों में भाईचारे का भाव था । दुराचार का कहीं नामोनिशन नहीं था । राजा सुमित्र ने प्रभु का राज्याभिषेक कर दिया था। प्रभु कुशलतापूर्वक राज्य संचालन करने लगे ।
इस प्रकार राज्य संचालन करते हुए प्रभु को पन्द्रह हजार
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वर्ष बीत गये। प्रभु के दीक्षाग्रहण का अवसर निकट आ गया। नौ लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभुको उद्बोधित किया। प्रभु दीक्षा ग्रहण के लिए तैयार हो गये। वो दान देकर उन्होंने लोगों की दुःख-दरिद्रता दूर की और अपने पुत्र को राज्यमार सौंपकर उन्होंने फाल्गुन सुदि बारस के दिन शुभ मुहूर्त में एक हजार राजाओं के साथ भागवती दीक्षा ग्रहण की। देवों ने प्रभु का दीक्षा कल्याणक गाजे-बाजे का साथ मनाया। दीक्षा लेते ही प्रभु को चौथा मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ।
__दीक्षा के दिन प्रभु ने बेला का तप किया था। खीर ग्रहण कर प्रभु ने तप का पारणा किया। ग्यारह महीने तक छद्मस्थ अवस्था में प्रभु ने गांव गांव विहार किया। ध्यान और तप के द्वारा उन्होंने । ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अन्तराय इन घाती कर्मों का अवरण हट जाते ही फाल्गुन वदी बारस के दिन उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
देवताओं ने प्रभू का केवलज्ञान कल्याणक बनाया और समवसरण की रचना की। भगवान समवसरण में विराजमान हुए। इन्द्र महाराज ने प्रभु की स्तुति करते हुए कहा___“हे वीतराग! हम जैसे समस्त संसारी प्राणी मोह और मिथ्यात्व के गहरे अंधकार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। हमारे उद्धार हेतु ही आपने राज्य वैभव, कुटुम्ब कबीला तथा वस्त्राभूषणों का साँप की केंचुली की तरह त्याग कर महाभिनिष्क्रमण किया और कठोर । तप और ध्यान की अग्नि में चारों घाती कर्मों को जलाकर भस्म कर दिया और केवल ज्ञान की दिव्य ज्योति प्रज्वलित की।"
'आपके रोम रोम में रही हुयी भावदया का विचार जब हमें
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आता है; तब हमारा मस्तक अपने आप आपके कदमों में झुक जाता है।'
___ 'जिस आराधक ने आपका प्रक्षालन और पूजन किया है, आँखों से बार बार दर्शन किया है, जीभसे गुणगान किया है और कानों से आपका उपदेश सुना है; सचमुच उसीका जीवन धन्य है, वह बधाई का पात्र है।'
: 'हे कालजयी! आपने कालचक्र पर विजय प्राप्त कर ली; पर हम तो काल के गुलाम हैं। कालचक्र के अनुसार हमें नाना पर्याय धारण करके जन्म-मरण धारण करना पड़ रहा है।' ___'हे देवाधिदेव! हम देव हैं। पौद्गलिक सुख के साधन तो हमारे पास चक्रवर्ती से भी ज्यादा है, फिर भी हम सुखी नहीं हैं। क्या कभी नाग से अमृत, सूर्य से शीतलता प्राप्त हो सकती है? कभी नहीं। इस पौद्गलिक साधन सामग्री से तथा इससे उत्पन्न राजसिकता व तामसिकता से आज तक किसी भी जीव को
शान्ति-समाधि तथा समता प्राप्त नहीं हुई है।' .. 'हे नाथ! आप शान्ति के सागर हैं और अहिंसा, संयम और .: तप का मूर्त रूप हैं। आप ही कृपा सिंधु हैं। हम तो मात्र आपकी
दया चाहते हैं और आपसे यही प्रार्थना करते हैं कि भव भव में हमें : आपके चरणों की सेवा मिलती रहें।'
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प्रभु का उपदेश इस प्रकार भगवान की स्तुति करके इन्द्र महाराज अपने स्थान पर विराजमान हुए। देवगण भी अपने अपने स्थान पर बैठ गये। राजा-रानी, सेठ-सेठानी आदि लोग भी अपने विभाग में
स्थित हुए। परमात्मा मुनिसुव्रत स्वामी ने तीर्थ स्थापना हेतु अपना। - प्रवचन प्रारंभ किया। उन्होंने कहा
यह संसार जड और चेतन की क्रीडास्थली है। जड भैर चेतन . दो मूल तत्त्व हैं। जिसमें चेतना अर्थात जीव के गुण स्पष्ट या
अस्पष्ट रूप से विद्यमान हैं, वह चेतन है और जिसमें चेतना गुण का र पूर्ण अभाव है, वह जड है।
हाट-हवेली, वस्त्राभूषण, पैसा-टका, मृतशरीर और जीवधारी शरीर तथा उसके अवयव और कर्म पुद्गल आदि जड : पदार्थ हैं। जिस प्रकार आत्मा शक्तिमान है, उसी प्रकार कर्म भी शक्तिमान है। कर्म अपने कर्ता को उसी प्रकार पहचान लेता है, जैसे कोई बछडा अनेक गायों में से अपनी माँ को। चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, अमीर उमराव, रूपवान स्त्री-पुरुष आदि समस्त। लोगों को और संसार के जीव मात्र को संयोगी-वियोगी और सुखी-दुःखी करने की तथा हँसाने रुलाने की संपूर्ण शक्ति। कर्मसत्ता के पास रही हुई है। कोई शूरवीर हो चाहे वाक्पटु हो,।। किसी की भी चालाकी कर्मसत्ता के आगे नहीं चल सकती। संसार का कोई भी शस्त्रकर्मसत्ता का नाश नहीं कर सकता। इस कर्मसत्ता की शक्ति के बारे में अधिक क्या कहें? ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २८ Shree Sudhátmaswami Gyanbhandarumara. Surat
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जीव भी वहाँ से पतित होता हुआ प्रथम गुणस्थान में आ जाता है। . कर्म गति टाले नहीं टलती।
इस चतुर्गतिमय संसार में मनुष्य गति एक जंक्शन है। मोक्ष की प्राप्ति सिर्फ मनुष्य गति से ही संभव है। स्वर्ग के देवता भी मनुष्य गति पाने के लिए तरसते हैं। संयम धर्म की आराधना इस मनुष्य गति में ही हो सकती है।
धर्मसत्ता ही कर्मसत्ता को नष्ट कर सकती है; इसलिए धर्मसत्ता की शरण में जाना श्रेयस्कर है। समझदार के लिए इशारा काफी होता है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह कार्य-कारण भाव को समझे। संसार में रहा हुआ एक एक पदार्थ सम्यक् ज्ञान सहित वैराग्य भाव जगाने में समर्थ है।
पंचेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना, क्रोधादि कषायों का दमन करना, कामादि षड्रिपुओं को जीतना, कुविचारों का त्याग करना और पौद्गलिक भावों से मन को दूर हटाना ही सच्ची धार्मिकता है। इस मनुष्य भव में भी यदि पाप का पोषण होता रहा तो भवांतर कभी नहीं सुधरेगा। इस भव के कुसंस्कार अन्य भव में भी आत्मा का अहित किये बिना नहीं रहेंगे। अतः दुर्गति के गर्त में धकेलने वाले पापकार्यों का त्याग कर सम्यकत्व ग्रहण पूर्वक अनासक्त -
भावसे जीवन जीनेका प्रयत्न करना चाहिये। जीवन में सुख प्राप्ति :कायही सरल मार्ग है।
धर्ममय जीवन आदर्श होता है। धर्म क्या है? हिंसा, दुराचार तथा भोगलालसा के कारण दुर्गति में जाते हुये जीव को जो सद्गति
की तरफ ले जाता है, वहीधर्म है। 3 वस्तु स्वभाव ही धर्म है। दुष्कर्मोंका त्याग कर सत्कर्मों का
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. श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २९ ....
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आचरण करते हुये अपने स्वभाव में स्थित रहना ही धर्म है। स्वरूपाचरण धार्मिकता है।
मुक्ति क्या है? क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से । मुक्त होना मुक्ति है। निराकुल जीवन में मुक्ति का आनंद समाया हुआ है।
अहिंसा, संयम और तप जैन शासन है। इन तीनों की आराधना ही जैन शासन की आराधना है। अनादिकालीन हिंसा के संस्कारों का त्याग करके अहिंसक जीवन जीना अहिंसा पालन है। दुराचार का त्याग करके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचो महाव्रतों का पालन करना संयम है। अनशन, ' ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, काय क्लेश और संलीनता, : . बाहयतप है। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग आभ्यंतर तप है। उपवास आयंबिल आदि बाहय तप ... भी आभ्यंतर तपपूर्वक करना चाहिये। तभी पापकर्मोकी निर्जरा,
होती है। तप उत्कृष्ट भावमंगल है। - व्रत मनुष्य जीवन के अलंकार हैं। व्रतधारण से देवपद प्राप्त
होता है और अंत में मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिये व्रत धारण करना . मनुष्य जीवन का सार है।
समवसरण के श्रोताओंपर प्रभु के उपदेश का अच्छा प्रभाव . पड़ा। अनेक आराधकों ने व्रत नियम आदि ग्रहण किये हैं। कई .. लोगों ने मुनि धर्म अंगीकार किया और अनेक आराधककों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया।
प्रभु के अठारह गणधर थे; उनमें इन्द्र गणधर प्रमुख थे। : उनके शासन में तीस हजार साधु और पचास हजार साध्वियों थीं।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३० Shree Sudhalinaswami-cyanibhand
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- प्रभू के शिष्यों में पाँचसौं मुनि चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। अठारह सौ
मुनि अवधि ज्ञानी थे, पन्द्रह सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे और अठारह सौ केवलज्ञानी थे। प्रभु के पास दो हजार मुनि वैक्रिय लब्धि संपन्न थे और बारह सौ वादी मुनि थे। एक लाख बहत्तर हजार श्रावक और तीन लाख पांच हजार श्राविकाएँ आदि गृहस्थ प्रभु के आराधक थे।
वरुण देव प्रभु शासन रक्षक था। इसी प्रकार स्फटिक के समान गौरवर्णीय नरदत्ता शासनदेवी थी। वरुणदेव जटाधारी और श्वेतवर्णी था। उसके चार मुख और तीन आँखें थीं। उसके आठ हाथ थे। दाहिनी ओर के चार हाथों में बीजोरा, गदा, बाण और शक्ति थी और बायीं ओर के हाथों में नकुल, माला, धनुष्य तथा परशु थे। उसका सवारीका साधन वृषभ था।
तीर्थंकर का समवसरण संसार का एक अद्भुत आश्चर्य होता है। उन्हें केवल ज्ञान होते ही देवगण समवसरण की रचना .. करते हैं। सम्यग्दृष्टि देवों के मन के परिणाम अत्यंत सुन्दर होने के कारण उन्हें तीर्थंकर परमात्मा के चरणों में अतीव आनन्द प्राप्त होता है। सब जीवों को धर्म की प्राप्ति हो और उन्हें स्वर्ग मोक्षादि की प्राप्ति हो इसी शुभहेतु सेवेसमवसरण की रचना करते हैं।
वायुकुमार देव एक योजन भूमि साफ करते हैं, मेघकुमार देव वहाँ सुगंधित छिडकते हैं, व्यन्तर देव सुवर्ण तथा रत्न पत्थरों से जमीन की सीमा बाँधते हैं और उस भूमि में पुष्पवृष्टि करते हैं तथा चारों दिशाओं में श्वेत छत्र, ध्वजा, स्तंभ आदि से युक्त तोरण बांधते हैं।
समवसरण के मध्य में भवनपति देव रत्न पीठ बनाते है और
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उसके चारों ओर सुनहरी नक्काशीयुक्त चांदी का किला बनाते है । उसके बीच में ज्योतिषी देव रत्नों से सुशोभित सुवर्ण का किला बनाते हैं और उसपर वैमानिक देव रत्नों का किला बनाते हैं । हर किले के चारों दिशाओं में चार दरवाजे होते है ।
फिर देवगण देवछन्द, चैत्यवृक्ष और रत्न सिंहासन की रचना करते हैं । देवछन्द पर तीन छत्र और दोनों ओर चामरधारी देव रहते हैं । समवसरण के आगे धर्मचक्र रहता है। यह धर्मचक्र यह सूचित करता है कि तीनों लोक में धर्मचक्रवर्ती तीर्थंकर परमात्मा के समान अन्य कोई नहीं है ।
श्रीभगवान देव निर्मित नौ नौ सुवर्ण कमलोंपर अपने कदम रखते हुए समवसरण में प्रवेश करते है; उस समय देव गण उनकी जयजयकार करते हैं। श्रीभगवान पूर्वाभिमुख हो कर सिंहासन पर विराजमान होते हैं और 'नमो तित्थस्स' शब्द का उच्चारण करते हैं। शेष तीन दिशाओं में भगवान की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती हैं; जिससे चारों दिशाओं से लोगों को प्रभुग्का दर्शन हो सके । समवसरण में देव दुंदुभी नाद से सबको जागृत रखते हैं ।
समवसरण में बारह विभाग होते हैं । पूर्वद्वार से प्रवेश करके मुनिगण प्रभुको नमस्कार करते हैं और वे आग्नेय कोन में बैठते हैं । वैमानिक देवियों तथा साध्वियों पिछले भाग में खड़ी रहती है। भवनपति, ज्योतिषी और व्यंतर देवियाँ दक्षिण द्वार से समवसरण में प्रवेश करती है और वायव्य दिशा में बैठती हैं। वैमानिक देव, मनुष्य और स्त्रियाँ आदि उत्तर दिशा से प्रवेश करते हैं। तथा वे ईशान्य कोने में अपना आसन ग्रहण करते हैं। दूसरे किले में तिर्यंच और तीसरे किले में देवों के वाहन होते हैं । इस प्रकार बारह प्रकार
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की परिषद समवसरण में उपस्थित होती है और प्रभु का उपदेश श्रवण करती है।
अर्थ तथा काम, पुरुषार्थ तो जीव अनादि काल से करता रहा है पर धर्म पुरुषार्थ के मामले में वह हमेशा पीछे रहा है। जीव ज्यों ज्यों उम्र से बढता जाता है, त्यों त्यों अर्थसंस्कार और कामसंस्कार उसे अपने आप होने लगते है। धन कमाना और उसका उपभोग करना आदि बातें सिखाने जरूरत नहीं होती। हर व्यक्ति ये सब बाते सीखता ही है; पर धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ हर.. कोई नहीं कर सकता। धर्म का ज्ञान हासिल करने के लिए साधु-सन्तों का समागम आवश्यक है। धर्म का ज्ञाता ही मोक्ष पुरुषार्थ की साधना कर सकता है और धर्म के सत्य स्वरूप का ज्ञान : . तीर्थकर परमात्मा ही करवाते है। इसीलिए प्रार्थना सूत्र में परमात्मा कोजगद्गुरूकहा गया है।
श्री तीर्थंकर परमात्मा केवल ज्ञानी होते हैं। उनका ज्ञान सर्वोत्कृष्ट होने के कारण प्रत्येक द्रव्य की अनन्त पर्यायों का साक्षात्कार करता है। भगवान को पहले केवलज्ञान होता है और फिर केवलदर्शन; पर छद्मस्थ (जो केवली नहीं है) को पहिले दर्शन होता है और ज्ञान। दर्शन सामान्य रूप से होता है और ज्ञान विशेष रूप से।
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अश्वावबोध
अहिंसा, संयम और तप धर्म का विराधक कोई एक जीव किसी जन्म में भगवान श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की आत्मा से संबंधित था । भवभ्रमण करते करते वह इस जन्म में तिर्यच गति में अश्व पर्याय में उत्पन्न हुआ था । वह अश्व भरुच नगर के राजा जितशत्रु की अश्वशाला में जीवन यापन कर रहा था ।
वह अश्व पुण्यवान होने के कारण सब अश्वों में सर्वोपरि था और राजा का प्रियपात्र था। राजाने उसके लिए खास सेवक की व्यवस्था की थी । वह उसे खरहरा करता, नहलाता और दाना-पानी डालता था। वह जातिवन्त अश्व रूप रंग और डीलडौल से भी दर्शनीय था ।
परमात्मा मुनिसुव्रत स्वामी का समवसरण जहाँ पर विद्यमान था, वहाँ से भरुच नगर साठ योजन दूर था। उस अश्व का पुण्योदय हुआ और अचानक प्रभु ने भरुच नगर में पदार्पण किया। देवों ने कोरण्ट वन में समवसरण की रचना की और प्रभु वहाँ विराजमान हुये ।
राजा जितशत्रु उस अश्व पर दल-बल सहित प्रभु के दर्शन के लिए पहुँचा और प्रभु को वन्दन कर समवसरण में उपदेश सुनने लगा । प्रभु ने अपने प्रवचन में सर्व विरति धर्म और देश विरति धर्म की प्ररूपणा की और कहा
'अरिहन्त परमात्मा की अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा ही प्रमुख आलंबन होती है। जो भाग्यशाली तीर्थकर परमात्मा की
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३४
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प्रतिमा जिनालय में प्रतिष्ठित करता है; वह सर्वोत्कृष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है और अन्त में संसार भ्रमण से मुक्त होता है।
जैसे गृहस्थ को अपना जीवन मापन करने के लिए अर्थार्जनादि का आलंबन आवश्यक है; वैसेही आत्मोन्नति के लिए अरिहंत परमात्मा का अलंबन अत्यंत आवश्यक है। गृहस्थ चाहे जितना तप करे या धर्म की आराधना करे, फिर भी वह पाँचवे गुणस्थानक से आगे नहीं बढ़ सकता। इस पाँचवे गुणस्थानक में ऐसे अनेक अशुभ निमित्त आगे आते है; जिनसे आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान हो सकता है; ऐसी स्थिती में जिन प्रतिमा के आलंबन का निषेध करना और प्रभू प्रतिमा को निरूपयोगी बताना सर्वथा अनुचित है। यह एकप्रकार का अज्ञान है, नादानी है।
गृहस्थ सवा वीसा अर्थात बीस में से सवा भाग दया का पालन ही कर सकता है। वह पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु तथा वनस्पति का उपयोग छोड़ नहीं सकता। गृहस्थाश्रम का स्वीकार करना, विषय भोगों का सेवन करना, बाल-बच्चों को जन्म देना, उनका विवाहादि करना, अनाज आदि का व्यापार करना, कोयले, बगिचे आदि का ठेका लेना, साहूकारी करना, अपने परिवार जनोंको स्नानादि के लिये आदेश देना, पुष्पमालाओं का उपयोग करना आदि कामों में गृहस्थ को पाप दिखता नहीं है; फिर शुभ संस्कारों को बढ़ाने वाले परमात्मा की मूर्ति के अभिषेक, पूजन, सत्कार आदि में पाप का विचार क्यों? परमात्मा की प्रतिमा की पूजा यतनापूर्वक और उपयोग पूर्वक करनी चाहिये। यही सर्वश्रेष्ठ और उपादेय मार्ग है।
परमात्मा के प्रवचन से उस अश्व को बहुत खुशी हुयी वह
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रोमांचित हो गया और अपने पांवों को कुछ मोड कर सीर झुकाकर प्रभू बार बार प्रमाण करने लगा ।
उसी समय इन्द्र महाराज ने प्रभू से पुछा - 'हे नाथ! आप साठ योजन लंबा विहार करके यहाॅ पधारे है और प्रवचन दिया है । आपके प्रवचन से वास्तव लाभान्वित कौन हुआ है ? कृपया स्पष्ट किजिये ।
प्रभुने उत्तर देते हुए कहा -व' हे इन्द्र । समवसरण के बाहर 11 जो अश्व सिर झुकाकर खड़ा है; वही मेरे उपदेश से लाभान्वित हुआ है। उसके लिए ही मैंने इतना लंबा विहार किया है।
प्रभू के उत्तर से सब चकित रह गये । राजा जितशत्रु भी आश्चर्य चकित हो गया। उसने अपनी जिज्ञासा पूरी करने के लिए प्रभू से पूछा - 'हे प्रभो! कृपा करके आप हमें इस अश्व का पूरा हाल सुनाइये । इस अश्व को ही आपका उपदेश क्यों लगा? किस कारण से इसे अश्व का जीवन प्राप्त हुआ?'
तब प्रभु से सब बातें स्पष्ट करते हुए कहा -
देव दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करने के बाद भी जो जीव धन-दौलत तथा मिथ्या प्रतिष्ठा आदि के माध्यम से संस्कृति और धर्म से भ्रष्ट होता है, वह मृत्यु के पश्चात् दुर्गति में ही जाता है ।
पद्मिनीखंड नगर में जिनधर्म नामक श्रावक रहता था । वह यथानाम तथा गुण था। वह स्वभाव से सरल, सत्यवादी, ईमानदार और एक पत्नीव्रत का धारक था । उसका दिल दिया और दान से परिपूर्ण था । वह दुश्मन को भी नेक सलाह देता था । इसी कारण वह राजमान्य और लोकमान्य बन गया था ।
उसी नगर में शैवधर्मी सागरदत्त सेठ भी रहता था। वह
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३६
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अपने कुलधर्म के अनुसार चलता था। फिर भी उसे मदिरा पान, मांस भक्षण, पशुबलि आदि असत्कर्म अच्छे नहीं लगते थे; इसलिए वह एक सन्मित्र की तलाश में था। वह हिंसा, दुराचार तथा भोगलालसा के पाप से छुटकारा पाना चाहता था।
संयोग से जिनधर्म के साथ एक दिन उसकी मुलाकात हो गयी और दोनों में मित्रता हो गयी। धीरे धीरे उनकी मित्रता बढ़ती गयी। सुसंगति का परिणाम यह हुआ कि उसे हिंसादि पापों से नफरत होने लगी और वह अपने मित्र के साथ जिनमन्दिर, उपाश्रय आदि में जाने लगा। इस प्रकार वह देव दर्शन, गुरुदर्शन, व्याख्यान श्रवण आदि का लाभ लेने लगा।
एक दिन उसने व्याख्यान में सुना कि जिनमंदिर निर्माण करनेवाले को और जिनबिंब की प्रतिष्ठा करनेवाले को अपार पुण्यलाभ होता है। भगवान की प्रतिमा प्रमादी जीवों को वीतरागता का पाठ पढ़ाती है और उन्हें मुक्तिमार्ग में आगे बढ़ाती है। जिन प्रतिमा आत्मोन्नति के लिए पुष्ट आलंबन है; अतः भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करनेवाला अल्पसंसारी होता है।
सागरदत्त सेठ को ये सब बातें बड़ी अच्छी लगीं। उसने जिनधर्म की सलाह के अनुसार एक जिनमंदिर बनवाया और उसमें प्रभुप्रतिमा प्रतिष्ठित की। अपने इस पुण्यकार्य से वह बहुत प्रसन्न
हुआ।
इसके पूर्व में सागरदत्त सेठ ने एक शिवमंदिर बनवाया था। उस मंदिर की देखभाल एक महंत और उसके शिष्य करते थे। एक पुजारी वहाँ पूजा पाठ किया करता था।
एक बार उस महन्त ने शिवमंदिर में एक यज्ञ का आयोजन
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किया। कई सेठ साहूकार उस यज्ञ में सम्मिलित हुए थे। सागरदत्त भी वहाँ समय पर पहुँच गया था। होम हवन प्रारंभ हुआ। आहुति के लिए वहाँ घी के घडे विद्यमान थे। उन पर हजारों चींटियाँ लग गयी थीं।
यह देख कर पुजारी ने उन घडों को कपड़े से रगड रगडकर साफ कर दिया। सब चींटियाँ बेमौत मर गयीं। अहिंसा धर्म के ज्ञान के अभाव में सब काम निर्दयता पूर्वक होते हैं।
सागरदत्त ने इस प्रकार चींटियों को मरते हुए देखा, तो उसे अच्छा नहीं लगा। उसने पुजारी को फटकारते हुए कहा - 'काम कोई भी हो, धार्मिक हो या घरेलू, उसे विवेवकपूर्वक करना चाहिये। भगवान के मंदिर में तो किसी भी प्रकार की हिंसा होनी ही नहीं चाहिये। देखो, घडों को साफ करते वक्त तुमने कितनी चीटियाँ मार डालीं। यह अच्छी बात नहीं है।'
सेठ की बात का पुजारी पर कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा - 'पाप-पुण्य के अपने विचार आप अपने पास रखिये। हम भगवान के पुजारी हैं। धर्म की बात हम अच्छी तरह समझते हैं। भगवान के लिए ये चींटियाँ तो क्या, यदि किसी पशु का भी बलिदान कर दिया जाये; तो वह भी स्वर्गगामी होता है।'
पुजारी से प्रतिवाद करना व्यर्थ समझकर सेठ ने महंत से पुजारी की शिकायत की और उसे समझाने के लिए कहा; पर महंत ने भी सेठ को उल्टा जवाब दे दिया। उसने कहा - यहाँ पर हमारे धर्म के अनुसार जो कुछ भी हो रहा है, ठीक ही हो रहा है। आपको पूजा में बैठना हो तो बैठ जाईये, अन्यथा घर जाइये।
यह सब सुनकर सेठजी दुविधा में पड गये। धर्म के सही
'Shree Sadhainaswami Cyanbhaश्रीमुनिसबत स्वामी चरित ३८
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स्वरूप के विषय में वे कोई पक्का निर्णय नहीं ले सके ।
अपना जीवन उन्होंने इसी प्रकार पूरा किया। मरणोपरान्त भव भ्रमण करते करते उनकी आत्मा ने वर्तमान जन्म में घोडे का शरीर प्राप्त किया । हे राजन् ! तुम्हारे पास जो घोडा है; उसमें उसी सेठ की आत्मा है । यह घोडा ही अनेक जन्म पहले सागरदत्त सेठ था ।
सागरदत्त की मृत्यु से जिनधर्म को बड़ा दुःख हुआ । मित्र की मृत्यु से दुःख होना स्वाभाविक ही है। वे अब अधिक श्रद्धापूर्वक धर्म की आराधना करने लगे । 'शिवमस्तु सर्व जगतः ' की भावना से वे ओपप्रोत हो गये थे । वे चाहते थे कि सब जीव परोपकारी बनें ।
अपनी अन्तिम अवस्था में उन्होंने पापों की आलोचनापूर्वक अन्तिम आराधना की। अरिहंत, सिध्द, साधु और केवली प्रणीत धर्म की शरण स्वीकार करके उन्होंने आमरण अनशन किया और देहत्याग के पश्चात् उन्होंने देवगति प्राप्त की ।
हे नृपति! उस जन्म में मै जिनधर्म था और यह अश्व सागरदत्त । हम दोनों की आत्मिक मित्रता के कारण ही उसके कल्याणक की भावना से ही मेरा यहाँ आगमन हुआ है ।
परमात्मा के मुख से अश्व का वृत्तान्त सुनकर राजा ने उस अश्व को मुक्त कर दिया। अश्वने भी परमात्मा के प्रवचन से प्रभावित हो कर छह महिने तक श्रावक के व्रतों का पालन किया
और अन्त में अनशन पूर्वक देहत्याग करके उसने सौधर्म देवलोक प्राप्त किया। वह देव अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव को जानकर उसी समय पुनः प्रभु के समवसरण में आया और उसने प्रभु कौ
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भक्तिभाव से वन्दन किया ।
जिस स्थान पर प्रतिबोध प्राप्त अश्व ने अनशन किया था; वह स्थान 'अश्वावबोध' के नाम से जाना जाने लगा। उस देव ने वहाँ प्रभु श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के मंदिर का निर्माण किया और प्रभु की मूर्ति के आगे उसने अश्वरूप में अपनी मूर्ति भी स्थापित की। उस समय से वह स्थान अश्वावबोध तीर्थ के रूप में जाना जाने लगा ।
महावीर वाणी
जं कीरइ परिरक्खा, णिच्चं मरण - भयभीद - जीवाणं । तं जाण अभयदाणं, सिहामणिं सव्वदाणाणं । ।
मृत्यू के भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना अभयदान कहा जाता है। यह अभयदान सभी दानों में शिरोमणी के समान है।
गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ।।
(कोई भी व्यक्ति) गुणों से साघु एवं अगुणों से असाधु बनता है। इसलिये साधु के गुणों को धारण करो एवं असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा द्वारा जानकर जो समभाव में रहते है वे ही पूज्य है।
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्य कीसन्ति जंतबो । ।
जन्म दुःख है; बुढापा दुःख है; रोग दुःख है एवं मृत्यू दुःख है। ओह, संसार दुःख ही है, इसमें जीव को क्लेश प्राप्त होता रहता है।..
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शकुनिका विहार सम्यक्त्व मूल देशविरति धारण करके उस अश्व ने जिस स्थान पर अनशन करके देहत्याग किया था; उस स्थान पर राजकुमारी सुदर्शना ने 'शकुनिका विहार' नामक जिनमन्दिर बनवाया था। उस मन्दिर में उसने श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। उसका वृत्तान्त आगे दिया जा रहा है।
वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में गगनवल्लभ नगर था। वहाँ का राजा था अमितगति। उसकी रानी का नाम जयसुन्दरी था। उसके एक पुत्री थी। उसका नाम था विजया। वह रूप गुण संपन्न थी। राजा रानी ने उसे अच्छा पढाया लिखाया और धार्मिक अभ्यास भी करवाया।
एक बार अपनी सखियों के साथ वह वैताठ्य पर्वत की उत्तर दिशा में घूमने गयी। रास्ते में उसे कुक्कुट सर्प दिखाई दिया। वह सर्प बड़ा भयंकर था। राजकुमारी ने उसे तीर चलाकर मार डाला।
आगे रत्नसंचय नगर आया। वहाँ श्री शान्तिनाथ भगवान का रमणीय मन्दिर था। वहाँ का राजा सुवेग उस मंदिर में हमेशा पूजा पाठ किया करता थी। राजकुमारी उस मंदिर में पहुँची। उसने
भक्तिभाव से भगवान के दर्शन किये। भगवान की आंगी (श्रृंगार) - देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका सम्यक्त्व निर्मल हुआ।
वहाँ से वह दूसरे मंदिर में गयी। वह श्री ऋषभदेव भगवान का मंदिर था। वहाँ इन्द्र-इन्द्राणी और उनके देवी देवता प्रभु की भक्ति कर रहे थे। देवों का भक्ति नृत्य वह तन्मयता से देखने लगी। उस समय किसी अप्सरा की एक पायल उसकी गोद में पड़
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गयी। उस दिव्य पायल को देखकर उसे लोभ हुआ। उसे लेकर वह तुरन्त वहाँ से निकल पड़ी और अपने महल में आ गयी।
हिंसा और चोरी के पाप का उसने कभी प्रायश्चित नहीं किया, अतः मृत्यु के बाद उसे तिर्यंच गति प्राप्त हुई। भरुच नगर के बाहर एक वटवृक्ष पर शकुनिका (चील)के रूप में उसका जन्म हुआ। वहाँ वह नर चील और अपने बच्चों के साथ रहने लगी। . एक बार नर पक्षी वहाँ से उड़कर चला गया और फिर लौट कर
कभी नहीं आया। . . अब दाना-पानी के लिए वह स्वयं बाहर जाने लगी। एक ।
बार वर्षा ऋतु में वह कहीं बाहर गयी। उस समय हवा भी जोर से . : चल रही थी। जब वह अपने घौसले की ओर लौट रही थी; उस समय एक शिकारी ने उसे तीर चलाकर घायल कर दिया; फिर भी वह किसी प्रकार अपने घौंसले तक पहुँच गयी। वह उस पेड़ के नीचे गिर पड़ी। माँ की यह हालत देखकर बच्चे भी चिल्लाने लगे। बेचारी माँ तड़पती हुई अन्तिम घडियाँ गिनने लगी।
संयोग से एक मुनि की नजर उसपर पड़ गयी। मुनि को उस पर दया आ गयी। उसके कल्याण के लिए उन्होंने उसे नवकार... मन्त्र सुनाया और उसी समय उसके प्राण पखेरू उड गये। नवकार
मन्त्र और चार शरणों का प्रभाव अचिन्त्य है। इनके प्रभाव से उस * चील ने पुनः मनुष्य गति प्राप्त की।
वह सिंहलद्वीप केराजा चन्द्रगुप्त के यहाँ उत्पन्न हुई। रानी चन्द्रलेखा उसकी माता थी। राजाने उसका नाम सुदर्शना रखा। . वह रूप गुण संपन्न थी और धर्म प्रेम उसकी नस नस में प्रवाहित . था। उसकी वाणी में मधुरता थी।
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भरुच नगर का एक व्यापारी ऋषभदत्त एक बार व्यापार के सिलसिले में सिंहलद्वीप पहुँच गया। वृषभदत्त आर्हतधर्म का उपासक और नवकार मन्त्र का आराधक था। वह खाली समय में नवकार मन्त्र का ही स्मरण किया करता था। ईमानदारी के कारण 'वह दूर देश के राजओं का भी विश्वास पात्र बन गया था।
___ जहाज से उतरते ही वह बहुमूल्य नजराना लेकर राजा के ___ दरबार में पहुँचा। मन्त्री, दण्डनायक, सेनापति, कोषाध्यक्ष आदि
अधिकारी दरबार में उपस्थित थे। सुदर्शना भी अपने पिता के पास बैठी थी। उसने अपने कपड़ों पर इत्र छिडक रखा था।
उस समय इत्र की सुगंध के कारण सेठ को अचानक छींक आ गयी। छींक आते ही अपनी आदत के अनुसार उन्होंने तुरन्त 'नमो अरिहंताणं' पद का उच्चारण किया। 'नमो अरिहंताणं' । शब्द कान में पडते ही राजकुमारी सुदर्शना ऊहापोह में पड़ गयी। वह सोचने लगी कि ये शब्द मैने पूर्व में कभी सुने हैं। सोचते सोचते उसे उपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो गया। वह उस स्मरण में खो गयी।
होश में आने पर उसने अपने माता पिता को अपने पूर्व जन्मों का हाल कह सुनाया। उसकी इच्छा के अनुसार राजा रानी ने उसके लिए भरुच जाने की व्यवस्था की। राजकुमारी सुदर्शना ऋषभदत्त सेठ के साथ भरुच पहुँची। अपने पूर्व जन्म के उपकारी मुनिराज को उसने ढूँढ लिया और उन्हें भावपूर्वक वन्दन किया। उन मुनिराज के उपदेश से उसने अश्वाबोध तीर्थ का पुनरुद्धार । किया। वहाँ चौबीस जिनालय युक्त मंदिर बनवाया। इस घटना के कारण यह मंदिर शंकुनिका विहार के नाम से प्रसिध्द हुआ।
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गुजरात के सम्राट कुमारपाल के मंत्री उदयन के पुत्र : आम्रभट्ट ने भी शकुनिका विहार का जीर्णोद्धार करवाया था।
मुनिराज के उपदेश से राजकुमारी ने सम्यक्त्वमूल बारह व्रत । ग्रहण किये और उत्तम धर्म की आराधना की। अन्त में अनशन "पूर्वक उसने देहत्याग करके देवगति प्राप्त की।
भश्च नगर में 'शकुनिका विहार' जिनप्रासाद आज भी विद्यमान है और उस में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है; पर यह मन्दिर मूलमन्दिर नहीं है। मुसलमानों के शासन काल में मूलमन्दिर ग्यासुद्दिन तुगलक के द्वारा इ. स. १३२९ में नष्ट कर दिया गया था और उसका मस्जिद में रूपान्तर कर दिया गया था। वह मन्दिर भरुच में आज भी विद्यमान है और उसमें जिनमदिः के अवशेष दिखाई देते हैं। मंदिर की मूर्तियाँ दीवारों में उल्टी लगा दी गयी हैं और उनकी पीठ पर कुरान की '. आयतें खोदी गयी है। वर्तमान में यह मंदिर/मस्जिद भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के अधिकार में है।
महावीर वाणी हयं नाणं कियाहीणं, स्या अण्णाणो किया। पासंतो पंगुलो दइटो, धावमाणो य अंधमो।।
जिस प्रकार लंगडा व्यक्ति वन में लगी हुई आग देखने पर भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है एवं व्यक्ति
दौड सकते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जलकर मरता है, * उसी प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की . क्रिया व्यर्थ है।
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प्रभु का निर्वाण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्रभु श्रीमुनिव्रत स्वामी ने भरुच बन्दर में अश्व को प्रतिबोधित करने के पश्चात् वहाँ से विहार किया और हस्तिनापुर पधारे।
हस्तिनापुर भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहीं पर में प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव भगवान को दीक्षा ग्रहण के साल भर
बाद अक्षय तृतीया के दिन राजा श्रेयांस के द्वारा प्रथम बार आहार प्राप्त हुआ था और भगवान ने इक्षुरस से पारणा किया था। भगवान का तप बढ़ते बढ़ते वर्षीतप हो गया था। राजा श्रेयांस उन्हीं का पौत्र था।
फिर यही हस्तिनापुर सोलहवें, सतरहवें और अठारहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ, श्रीकुंथुनाथ और श्री अरनाथ प्रभु की पदरज से पावन हुआ। ये तीनों तीर्थंकर भगवान पूर्व में चक्रवर्ती सम्राट भी थे। चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार और आठवें चक्रवर्ती सुभूम तथा पाँचों पांडवों की जन्मभूमि भी यही हस्तिनापुर है।
भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय में यहाँ कार्तिक सेठ रहता था। उस काल में यहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। कार्तिक सेठ सम्यक्त्व व्रतधारी, ईमानदार और एक पत्नीव्रती था। वह सप्त व्यसनों का त्यागी होने के कारण राजमान्य और . लोकमान्य था।
कार्तिक सेठ दृढ सम्यक्त्वी श्रावक था। एक हजार . आराधकों के साथ वह धर्म की आराधना किया करता था। श्रावक . की ग्यारह प्रतिमाओं में से पाँचवी प्रतिमा का पालन उसने सौ बार किया था। इसलिए वह शतक्रतु के नाम से भी प्रसिध्द था। वह
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अरिहंत परमात्मा तथा पंचमहाव्रती साधु मुनिराज के सिवा अन्य : ... किसी के भी आगे देवबुध्दि से और गुरुबुध्दि से सिर नहीं झुकाता __ था। इस प्रकार वह दृढ़तापूर्वक धर्म का पालन किया करता था।
एक बार उस नगर में गैरिक नामक एक तापस का आगमन हुआ। नगर के लोग उसके दर्शनार्थ फल-फूल, मेवा मिष्ठान्नादि ले कर गये। राजा ने भी वहाँ जा कर उसका सत्कार किया; पर कार्तिक सेठ वहाँ नहीं गया। इससे तापस को उस सेठ पर बहुत गुस्सा आया। वह उसे नीचा दिखाने के लिए अवसर ढूँढने लगा। ...
___ एक बार राजा ने उस तपस्वी को भोजन के लिए अपने महल में आमंत्रित किया। तपस्वी ने राजा से कहा कि यदि कार्तिक सेठ में अपनी पीठ पर भोजन की थाली रख कर मुझे भोजन कराये, तो मैं । - आपके यहाँ भोजन के लिए आ सकता हूँ। . राजाने उसकी बात स्वीकार कर ली। फिर उसने कार्तिक
सेठ को बुलाकर कहा - 'सेठ! गैरिक तापस को मैने भोजन के लिए आमंत्रित किया है; अतः उसे भोजन परोसने के लिए आप
राजमहल में पधारें।' सेठ को राजा की बात मान लेनी पड़ी। राजा ' का आदेश भला कौन टाल सकता है?
नियत समय पर तापस राजमहल में उपस्थित हुआ। सेठ भी वहाँ हाजिर था। उसने थालीमें खीर परोसी, पर तापस ने
भोजन नहीं किया। वह तो सेठ को अपने आगे झुकाना चाहता था; - इसलिए उसने कहा, - 'सेठ मेरे आगे झुक कर थाली अपनी पीठ
पर रखे, तो ही मैं भोजन करूँगा; अन्यथा नही।' । राजाके आदेश के कारण सेठ को झुकना पड़ा। सेठ की
| उँगली में जिन प्रतिमांकित अंगूठी थी। सेठ ने उस प्रतिमा को
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भिक्तिभाव से प्रणाम किया और वह उस तापस के आगे झुक गया।
तापस ने सेठ की पीठपर थाली रखी और वह खीर खाने लगा। गरम खीर के कारण सेठ की पीठ जलने लगी; पर सेठ ने सब: ।। दुःख समभाव से सहन किया। तापस भोजन करते करते सेठ की नाक ऊंगली से घिसने लगा और कहने लगा - 'देख, तू मेरे पाँव
पड़ने नहीं आया; इसलिये मै तेरी नाक काट रहा हूँ और तुझे नमन में करता हूँ।'
सेठ ने अपमान और वेदना को समता भावपूर्वक सहन किया। तापस का भोजन पूरा हुआ और वह अपने आश्रम में चला गया। सेठ की पीठ से वह थाली अधिक उष्णता के कारण चिपक गयी थी। बड़ी मुश्किल से वह थाली अलग की गई।
अब सेठ ने सोचा कि यदि मैने पहले ही दीक्षा ग्रहण कर ली होती तो आज यह अपमान सहन न करना पड़ता। यह सोचकर सेठ ने वैराग्य भाव से एक हजार आराधकों के साथ श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के पास चारित्र ग्रहण किया और द्वादशांगी का अध्ययन किया। बारह वर्षतक चारित्र पालन करके कार्तिक मुनि ने देहत्याग किया और वे देवलोक में उत्पन्न हुए। वे देवों के इन्द्र सौधर्मेन्द्र बने।
गैरिक तापस भी अज्ञान तप करता हुआ अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुआ और मृत्यु के पश्चात् उसी सौधर्मेन्द्र का वाहक देव
ऐरावत हाथी बना। फिर वह देव हाथी का रूप धारण करके इन्द्र के z पास आया। इन्द्र महाराज जब उस पर सवार होने लगे; तब
अवधिज्ञान से उस हाथी को यह मालूम हुआ कि यह इन्द्र पूर्वजन्म का कार्तिक सेठ है। यह जानकर वह वहाँसे दूर भागने लगा; पर
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इन्द्र ने उसे मजबूती से पकड़ लिया और वे उसपर सवार हो गये । उन्हें भी अवधिज्ञान से जब यह मालूम हो गया कि यह देव गैरिक तापस का जीव है; तब उन्होंने उसे समझाते हुये कहाँ - 'हे गैरिक! तूने मेरी पीठ पर खीर की थाली रखकर भोजन किया था; इसलिये इस जन्म में तू मेरा वाहन बना है। यह ध्यान में रख कि किया हुआ - बाँधा हुआ कर्म भोगे बिना कभी नहीं छूटता । '
यह सुनकर वह देव लज्जित हुआ और शांत होकर इन्द्र का सेवक वाहन बन गया ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में यही अंतर है । सम्यक्त्व की आराधना से जीव का उत्तरोत्तर विकास होता है और मिथ्यात्व के कारण उसका विकास रुख जाता है तथा अधःपतन भी हो जाता है । मिथ्यात्व ही जीव को चतुर्गति में भ्रमण कराता है। इसलिये सम्यक्त्व की आराधना दृढ़तापूर्वक करनी चाहिये ।
भगवान श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने 'तिन्नाणं तारयाणं' बिरुद को सार्थ करते हुये अनेक जीवोंका उद्धार किया और अन्त में शुक्ल ध्यान में लीन होकर शेष अघाती कर्मों का नाश करके अपनी चरम देह के त्याग के पश्चात सिध्द शिलापर बिराजमान हुये । मल्लीनाथ भगवान के निर्वाण के चौवन्न लाख वर्ष पश्चात् उनका निर्वाण हुआ ।
+ महावीर वाणी
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ । ।
जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योध्दाओं को जीतता है उसकी अपेक्षा जो पुरुष मात्र स्वयं को जीतता है, उसकी विजय परम विजय है।
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LOTHER aittarprachikni
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कोकण प्रदेश वर्तमान अवसर्पिणी काल में धर्मतीर्थ की स्थापना सर्वप्रथम श्री ऋषभदेव ने की। ये प्रथम राजा, प्रथम मुनि और प्रथम तीर्थंकर थे। इनके पिता का नाम नाभिराज था। मरुदेवी इनकी माता थी। इनके समय में भोगभूमि का रूपान्तर कर्मभूमि में होने लगा था। इन्होंने ही लोगों को सर्वप्रथम असि, मसि और कृषि का ज्ञान दिया। अर्थात् अस्त्र-शस्त्र चलाना, व्यापार करना और खेती करना सिखाया; अंकज्ञान और अक्षरज्ञान सिखाया तथा राजकाज की शिक्षा भी दी। इनके समय में ही सर्व प्रथम जंगल में आग प्रकट हुई और इन्होंने लोगों को आग का सदुपयोग करना सिखाया तथा अनेक प्रकार की कलाएँ सिखायीं। अन्त में केवलज्ञान प्राप्ति के बाद इन्होंने लोगों को धर्ममय जीवन जीना भी सिखाया। इन्होंने ही राजकीय, सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था निर्माण की और लोगों का जीवन सुख-शान्तिमय बनाया। इन्होंने युगलिक धर्म का निवारण किया। इसलिए ये ही आदिनाथ हैं या बाबा आदम हैं। इनका जन्म अयोध्या में और निर्वाण अष्टापद पर्वत पर हुआ था।
भरत के नाम से भरत क्षेत्र का नाम भारत वर्ष पड़ा। ये प्रथम चक्रवर्ती थे और इन्हीं ऋषभदेव के पुत्र थे। भारत वर्ष जंबूद्वीप में है
और वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में स्थित है। इसमें साढे पच्चीस आर्य प्रदेश हैं; शेष भूमि में अनार्य प्रदेश हैं। । यद्यपि भरत क्षेत्र अत्यन्त विशाल है; फिर भी धर्म, जाति, भाषा आदि के कारण इसके कई बार टुकड़े होते गये हैं। अष्टापद तीर्थ की सुरक्षा हेतु सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने जो खाई निर्माण की थी
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उसके कारण भी जमीन की जगह पानी और पानी के स्थान पर जमीन हो गयी। अनेक तानाशाहों के कारण भी इस भूमि के टुकडे हुए हैं। इसी प्रकार भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी भूप्रदेशों में परिवर्तन होता गया है। ___वैताठ्य पर्वत के उत्तर में भी विशाल भूप्रदेश है। यह मात्र ) अनार्य भूमि है। इस भूमि में तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषों : का जन्म नहीं होता। इसी कारण यहाँ के लोग आत्मधर्म से विमुख , हैं। चक्रवर्ती सम्राट छह खंडोंपर विजय प्राप्त करने के लिए वैतान्य पर्वत की तमिना गुफा को पार कर इस भूमि में प्रवेश करता है और यहाँ के अनार्य राजाओं पर विजय प्राप्त करता है।
भारत वर्ष का यह सौभाग्य है कि इस भूमि में शलाका पुरुषों ' . का जन्म होता है। कुल शलाका पुरुष तिरसठ हैं। चौबीस
तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ बलदेव और नौ प्रतिमा . वासुदेव। ये सब शलाका श्रेष्ठ पुरुष हैं। तीर्थंकर परमात्मा के
प्रवचनों के कारण लोगों को अहिंसा, संयम और तप का ज्ञान होता है और वे धर्म की आराधना में लगते हैं। उनके समवसरण में
उपस्थित हो कर राजा-महाराजा और सेठ-साहूकार धर्मज्ञान प्राप्त न करते हैं और संयम धर्म की आराधना करते हैं। उन्ही के कारण इस
देश में भगवती अहिंसा की उपासना की जाती है और लोग दयालु
बनते हैं। आत्म-धर्म की उन्नति इसी प्रदेश में होती है। | भारत वर्ष के दक्षिण में महाराष्ट्र राज्य है। महाराष्ट्र के पश्चिम में अरबी समुद्र है। यहाँ के लोग मराठी भाषा बोलते हैं। कोकण प्रदेश भी महाराष्ट्र का ही एक भाग है। यहाँ की भाषा (कोकणी है। महाराष्ट्र के पश्चिम भाग में यह प्रदेश दक्षिणोत्तर फैला)
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हुआ है। इसके पूर्व में सहय पर्वत दक्षिणोत्तर फैला हुआ है और पश्चिम में अरबी समुद्र है । यहाँ की मुख्य फसल चावल है ।
पुराने समय में यहाँ के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिऐ मात्र जलमार्ग था; पर आजकल सड़कें, पुल आदि के कारण यातायात की सुविधा हो गयी है, अतः व्यापार, उद्योग बढ़ गया है । कई जगह कल कारखाने निर्माण हुए हैं । यहाँ के जंगलों में आम, जामुन, फणस, बेर आदि के वृक्ष पाये जाते हैं ।
समय समय पर राजस्थानी लोग भी यहाँ व्यापार हेतु आते गये और बसते गये। इस प्रकार पेण, पनवेल, पोइनाड, नागुठाणा आदि नगरों में जैन लोगों की संख्या बढ़ गयी और जिनमंदिर उपाश्रय, पाठशाला, आयंबिल भवन आदि पवित्र स्थानों से ये नगर समृद्ध होते गये ।
इसी कोकण प्रदेश का एक प्रमुख नगर है - थाना । वर्तमान में इसे ठाणे कहते हैं। यह बंबई से चालीस किलो मीटर दूरी पर स्थित है ।
महावीर वाणी
मिच्छतं वेदंतो जीबी, विवरीय दंसणो होइ । ण य धम्मं रोचेदि हु. महुरं पि रसं जहा जाई दो । ।
जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि
विपरीत हो जाती है। जिस प्रकार ज्वर ग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता है, उसी प्रकार उसे धर्म अच्छा नहीं लगता है।
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थाना नगर जैसे देश का इतिहास बदलता है, वैसे ही समय समर पर : भूगोल भी बदलता है। जिस काल में श्रीपाल महाराज थाना पधारे
थे; उस समय इस नगर की स्थिति कुछ और ही थी। उस काल में । थाना एक व्यापारिक बन्दरगाह था। दूर-दूर के व्यापारी जलमार्ग से . यहाँ आते थे और व्यापार करते थे।
ठाणे शहर के पास वडवली खाडी हैं। वहाँ रेमण्ड वुलन मिल है। पुर्तगालियों का चर्च, झरीमरी माता का मंदिर तथा सिद्धाचल तालाब भी वहाँ है। भूतकाल में वहाँ जैनों और अजैनों के कुल मिलाकर नौ सौ निन्यान्बे मंदिर थे। इसी से अंदाजा लगाया जा
सकता है कि प्राचीन थाना नगर कितना विशाल रहा होगा। प्राचीन | अवशेष यहाँ अब भी यदा कदा प्राप्त होते रहते हैं। नाला सोपारा | गाँव में जैनो के भी प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।
प्राचीन काल में भारतवर्ष में सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी और यदुवंशी राजाओं का राज्य था। मध्ययुग में इस देश पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने इस देशपर अधिकार जमाया। उन्होंने भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया। उनके समय में भौतिकी का अभूतपूर्व विकास हुआ। रेलसेवा, डाकसेवा, तारसेवा आदि सेवाएँ शुरू हुई
और देश में व्यापार बढ़ा। पहली रेल लाईन बम्बई और थाना के बीच ही डाली गयी। थाना नगर का विकास हुआ और विविध व्यवसाय यहाँ चलने लगे।
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है. एक व्यापारी नगर बन जाने के कारण थाना में राजस्थान,
गुजरात, कच्छ-काठियावाड आदिप्रदेशों से जैन लोग आ आकर बस गये। महाजन लोग दयालु, मिष्टभाषी, शान्त और दानी होते हैं तथा अहिंसा धर्म का पालन करते हैं । 'अहिंसा परमो धर्मः' का सन्देश तीर्थंकर परमात्मा ने दिया है। उनके प्रति भक्ति भाव प्रकट करने के लिए और उनकी आराधना के लिए यहाँ के समाज ने जिनमन्दिरों का निर्माण किया।
पहला मन्दिर श्री आदिनाथ भगवान का है। इस मन्दिर की। सभी प्रतिमाएँ रमणीय और चित्ताकर्षक हैं। इनके दर्शन से
आराधक के मन में धर्मभावना जागृत होती है। इसी मंदिर के एक - भाग में माणिभद्रवीर का छोटासा मन्दिर है। श्रीमाणिभद्रजी प्रत्यक्ष चमत्कारी और मनोकामना पूर्ण करनेवाले हैं।
दूसरा मन्दिर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान का है। इस ... मन्दिर का निर्माण रेलविहारी मुनि शान्तिविजयजी के उपदेश से ;
हुआ। वे आत्मारामजी (विजयानन्दसूरिजी) महाराज के शिष्य
थे। वे बड़े विद्वान, तार्किक तथा जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ थे। . उनकी कृपादृष्टि थाना पर ज्यादा थी।
अपने स्वरोदय तथा प्रश्नतंत्र के आधारपर उन्होंने यहाँ के लोगों से कहा कि यदि इस भूमि पर श्रीमुनिसुव्रत भगवान का मन्दिर बन जाये तो यह संघ के लिए श्रेयस्कर होगा। श्रीसंघ ने उनकी बात सहर्ष मान ली और मन्दिर का निर्माण कार्य शुरु किया।
कुछ समय पश्चात् खरतरगच्छीय आचार्य श्रीऋद्धिसूरीश्वरजी महाराज का थाना में आगमन हुआ। वे शुध्द चारित्र पालक
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___ श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ५३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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और ज्ञानी - ध्यानी महात्मा थे। उनके साथ गुलाब मुनि भी थे । उनके सान्निध्य में मन्दिर का काम पूरा हुआ ।
थाना नगर और श्रीपाल महाराजा का घनिष्ठ संबंध है । वे यहाँ के राजा के दामाद थे और सिद्धचक्र के परम आराधक थे । उन्होंने यहाँ पर शाश्वती ओलीकी आराधना की थी। इसी आराधना के कारण पूर्व में उनका कोठ रोग दूर हुआ था ।
इसी प्रसंग को ध्यान में रखते हुए मन्दिर की दीवारों में श्रीपाल और मैनासुंदरी का संपूर्ण जीवन चरित्र उत्कीर्ण किया गया। इसके कारण मंदिर की शोभा में चार चांद लग गये। यह कार्य सेठ मंगलदास त्रिकमचंद झवेरी की देखरेख में पूरा हुआ ।
इसके अलावा श्रीसिद्धचक्र की आराधना हेतु इस मंदिर में श्रीसिद्धचक्र यंत्र की प्रतिष्ठा भी की गयी । यह यंत्र संगमरमर पत्थर में खुदवाया गया है ।
मन्दिर के प्रवेशद्वार पर दोनों ओर दो गजराजों की शोभा देखते ही बनती है । मंदिर में प्रवेश करते ही भक्त भाव विभोर हो जाते हैं और परमात्मा के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य बनाते हैं।
यहीं पर एक सुविशाल उपाश्रय है, जहाँ साधु-मुनिराजों के प्रवचन अक्सर हुआ करते हैं और आराधक श्रावक सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ किया करते हैं ।
यहाँ आसपास के प्रदेशों से यात्री भी आया करते हैं और भगवान की सेवा पूजा करते हैं। उनके ठहरने की सुविधा के लिए यहाँ एक धर्मशाला बनी हुई है। यहाँ की भोजनशाला में यात्रियों के भोजन की सुव्यवस्था है। उन्हे यहाँ शुध्द और सात्त्विक भोजन
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प्राप्त होता है। इसके अलावा यहाँ यात्रियों के लिए शनिवार रविवार को भाते की भी सुन्दर व्यवस्था है । यहाँ पर आयंबिल भवन भी विद्यमान है । वर्धमान तप, नव पद ओली आदि तप करनेवालों के लिए यहाँ आयंबिल करने की उत्तम व्यवस्था है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों के अवसर पर आराधक अधिक संख्या में आयंबिल तप करते हैं ।
यहाँ की जैन पाठशाला में विद्यार्थी धार्मिक अध्ययन करते हैं। यहाँ पर प्रतिक्रमण सूत्रोंका और जैन तत्वज्ञान का अभ्यास करवाया जाता है। सचमुच मंदिर, पाठशाला, उपाश्रय और आयंबिल भवन जैन संस्कृति की सुरक्षा के केन्द्र हैं ।
यहाँ के जैन संघ द्वारा यहाँ पर 'मानव क्षुधा तृप्ति केन्द्र' चलाया जाता है। इस केन्द्र द्वारा प्रतिदिन गरीब और निराधार लोगों को रोटी और सब्जी (साग) का मुफ्त वितरण किया जाता है । थाना में प्रति वर्ष साधु मुनिराजों के चातुर्मास हुआ करते हैं; जिससे श्रीसंघ में धर्मभावना के साथ साथ संगठन की भावना भी बढ़ती रहती है ।
यहाँ श्री ऋषभदेवस्वामी जैन मंदिर ट्रस्ट श्वेतांबर पेढी द्वारा मन्दिर की व्यवस्था सुचारू रूप से की जाती है ।
महावीर वाणी
जं जं समये जीवो आविसह जेण जेण भावेण ।
सो तंमि तंमि समए सुहासु हं बंधए कम्मं ।।
जिस समय जीव जैसा भाव धारण करता है, उस समय
वह वैसा ही शुभ-अशुभ कर्मों को बांधता है।
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थाना और श्रीमुनिसुव्रतस्वामी
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थाना नगर में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी का जिनालय आज शत्रुजय तीर्थ के समान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रतिमास यहाँ हजारों यात्री आसपास के नगर ग्रामों से दर्शनार्थ आते हैं और अपने जीवन को धन्य बनाते हैं। प्रभु के दर्शन से उन्हें अनमोल प्रेरणा प्राप्त होती है और वे जीवन में नई दिशा प्राप्त करते हैं।
तीसरे परमेष्ठी पद पर स्थित आचार्य भगवन्त परम कृपालु और दीर्घद्रष्टा होते हैं। वे शासनोन्नति के साथ साथ समाज कल्याण के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं। यहाँ के जिनालय में श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिष्ठा बड़ी समझदारीपूर्वक की । गयी है।
मद्रास, विजयवाडा, धारवाड, हुबली, बीजापुर, कोल्हापुर, पूना आदि प्रदेशों से बंबई आनेवाले यात्रियों के मार्ग में थाना नगर स्थित है और यह बंबई के निकट है।
राम, लक्ष्मण, हनुमान, रावण जैसे महापुरुष तथा सीता | जैसी महासतियों का आविर्भाव श्रीमुनिसुव्रत स्वामी और श्रीनमिनाथ प्रभु के मध्यकाल में हुआ है। इसी प्रकार अहिंसा, संयम और तप धर्म की प्रभावना करनेवाले श्रीपाल और मैनासुंदरी का जन्म भी श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान के शासनकाल में ही हुआ है। राजपुत्र होते हुए भी कर्मोदय के कारण श्रीपाल को थाना आना पड़ा था और उन्होंने यहाँ सिद्धचक्र भगवान की आराधना की थी। श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिमा श्रीपाल मैना सुंदरी
Shree Stkihanmaswami Gyanisीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ५६
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की आराधना की स्मृति करवाती है। यहाँपर मंदिर में श्रीपाल मैना ! ४. सुंदरी की खड़ी प्रतिमा भगवान के सामने रंगमंडप में स्थित है।
ठाणा जिले में घोलवड और बोरडी नामक स्थानों पर भी श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान के जिनालय विद्यमान है। ( विरार (बंबई) के पास अगासी तीर्थ में भी श्रीमुनिसुव्रत
स्वामी भगवान विराजमान हैं। । आकाश में अगणित तारे हैं। उनमें बारह राशियों के तारे भी * हैं। इन राशियों में परिभ्रमण करनेवाले बारह ग्रह हैं। इसी आकाश
में प्रकाशमान सत्ताईस नक्षत्र भी हैं। यह ज्योतिष्चक्र मेरुपर्वत के चारों ओर गतिमान है। मेरुपर्वत की ऊँचाई को ले कर एक लाख योजन विस्तार वाले जंबूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा का विधान जैन ग्रंथों में किया गया है।
जन्म लेनेवाला जातक अपना शुभ और अशुभ कर्म साथ लेकर अवतरित होता है; अतः पुण्योदय में शुभ ग्रह तथा पापोदय में अशुभ ग्रहों के प्रभाव के कारण वह सुखी या दुःखी होता है।
शनि ग्रह एक राशि में ढाई वर्ष तक रहता है। यह ग्रह क्रूर, मलिन, आलसी और श्यामवर्णी होने के कारण जातक की जन्म | पत्रिका (कुंडली) में यदि शनिस्थान बलवान न हो तो वह जातक अपने जीवन में अभिमानी और दरिद्री होता है और छल प्रपंच, चोरी, लूटमार आदि के कारण हैरान होता है। यहाँ जातक के रोगी, दुःखी और दिवालिया बनने में शनिमहाराज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। शनि महादशा में हो, अवान्तर दशा में हो या प्रत्यन्तर दशा में हो, जातक के लिए तकलीफ भुगतना अनिवार्य हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल या अन्य किसी ग्रह के साथ शनि देव यदि)
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युति-प्रतियुति, षडाष्टक या बीये-बारहवें के योग में हो; तो भी
जातक को परेशान किये बिना रहते नहीं है। ( सारांश यह है कि शनि महाराज यदि नीचगृह में, शत्रुस्थान
में या पापदृष्टि होंगे तो वे जातक को अपना चमत्कार दिखाये बिना नहीं रहेंगे और यदि वे उच्च ग्रह में, मित्र स्थान या शुभदृष्टि होंगे, तो वे जातक को निहाल कर देंगे। शनि की अवकृपा से बचने के लिए मनुष्य को कोई न कोई उपाय ढूँढना ही पड़ता है। .. नौ ग्रह और दस दिक्पालादि देव सम्यग्दृष्टि होने के कारण
तीर्थकर परमात्मा का चरण शरण ही उन्हें प्रिय है। शनि महाराज का वास श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के चरणों में है; अतः शनि की अवकृपा को प्राप्त मनुष्य के लिए श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की
आराधना इष्ट है। श्री मुनिसुव्रत स्वामी की सेवा-पूजा और मंत्र ___ जाप से शनि की अवकपा उससे दूर हो जायेगी।
अरिहंत देव, पंच महाव्रतधारी गुरु और दया से विशुध्द जैन, धर्म की आराधना ही अनिकाचित कर्मों को क्षीण करती है। अन्य सब उपाय छोड़कर सन्मार्ग ग्रहण करके अपने पूर्वार्जित पापों का क्षालन करना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। - कर्मों के दो विभाग हैं - निकाचित और अनिकाचित।। निकाचित कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। उसे भोगे बिना | छुटकारा नहीं; पर अनिकाचित कर्म भोगे बिना भी धर्म की आराधना से नष्ट किये जा सकते हैं, उनका क्षय करना कठिन नहीं
हैं।
पंच महाव्रतधारी मुनिराजों के सत्समागम से आत्मा का सत्पुरुषार्थ जागृत होता है और अरिहंत परमात्मा के साथ तादात्म्य
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संबंध स्थापित करने से प्रचुर परिणाम में कर्मों का क्षय हो जाता है।
जन्मकुंडली में क्रूर स्वभावी शनि ग्रह जब बिगड़ जाता है; तो वह कभी कभी जीवन भर सताता है और कभी मर्यादित समय तक। इस स्थिति में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की आराधना ही डूबती हुई जीवन नैया को बचा सकती है। उनकी आराधना जो कोई करता है तथा शनिवार के दिन आयंबिल, एकासना या बेआसणा करता है; वह अपने जीवन में अवश्य सुखी होता है।
यही कारण है कि थाना के जिनालय में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी भगवान की रमणीय प्रतिमा बिराजमान की गयी है। यह भी सत्य है कि इस मंदिर की प्रतिष्ठा के बाद थाना श्रीसंघ की आबादी बढ़ी है
और श्रीसंघ का विकास हुआ है। साधु-साध्वियों के चार्तुमास लगातार होते रहे हैं और अनेक धार्मिक अनुष्ठान भी संपन्न हुए हैं। थाना श्रीसंघ विकास की ओर गतिमान है।
महावीर वाणी धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो! देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप इसके लक्षण है। जिसका मन हमेशा धर्म में रमता है, उसे देव भी नमस्कार करते है।
सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलासमया असंखया। नरस्स लुध्दस्स न तेहि किंचि, इच्छा हुमागाससमा अणन्तिया।।
यदि सोने और चांदी के असंख्य पर्वत उत्पन्न हो जाये, तो भी लोभी पुरुष को इससे कोई असर नहीं होती (तृप्ति नहीं होती) क्यों कि इच्छा आकाश के समान अनंत है।
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श्रीपाल महाराज की सिद्धचक्र आराधना
श्रीपाल राजपुत्र थे। चंपा नरेश सिंहरथ उनके पिता थे। उनकी माता का नाम कमलप्रभा था। पूर्वोपार्जित पुण्य के कारण वे . रूप-गुण संपन्न थे और राजवंश में उनका जन्म हुआ था। बड़े
लाड़-प्यार में वे पल रहे थे; पर पुण्योदय सदा स्थायी नहीं रहता। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख, यह क्रम हमेशा चलता रहता है।
उनका पापोदय हुआ और उनके पिता का छत्र उनके सिर से हट गया। उनके पिता अचानक चल बसे। उस समय वे केवल दो साल के थे; अतः उनके चाचा अजितसेन राजकाज चलाने लगे। धीरे-धीरे उनके मन में राज्य लोभ जाग गया और उन्होंने छल-कपट से राज्य हडप कर लिया। रानी कमलप्रभा को राज्य छोडकर भाग जाना पडा। राजकुमार श्रीपाल उसके साथ था।
श्रीपाल को साथ ले कर वह एक घने जंगल में पहुँच गयी। वहाँ एक पेड़ के नीचे उसने रात बितायी। सुबह होने पर रानी आगे बढ़ी। अचानक उसे कुछ सिपाही उसका पीछे करते हुए दिखाई दिये। वे अजितसेन के सिपाही थे और श्रीपाल को पकड़ना चाहते थे।
रानी वहाँ से भाग निकली। कुछ दूर जाने पर उसे एक कोढ रोगियों का समूह दिखाई दिया। सैनिक अभी भी उसका पीछा कर रहे थे। श्रीपाल को बचाने के लिए उसने उनके नेता से प्रार्थना की। नेता को उस पर दया आ गयी और उसने माँ-बेटे को छिपा लिया।
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। इतने में सिपाही आ गये। उन्होंने माँ-बेटे के बारे में पूछताछ की; तब एक कोढी ने कहा - 'हमने यहाँ से किसी को भी जाते हुए नहीं देखा है; फिर भी आप चाहें तो हमारी तलाशी ले सकते हैं, पर इतना ध्यान रखना कि हम सब कोढी हैं। हमारे कारण आपको भी कोढ रोग हो सकता है।'
यह सुनते ही सैनिक वहाँ से चले गये। कोढियों के साथ रहने से श्रीपाल कोढ रोग से ग्रस्त हो गये; अतः उनकी माता उन्हें छोडकर किसी कुशल वैद्य की खोज में अन्यत्र चली गयी। उन कोढियों ने श्रीपाल को अपना राजा बनाया और उसके लिए दुल्हन की तलाश में आगे बढे। घूमते घूमते वे उज्जयिनी नगरी के बाहर आ गये। उस काल में उज्जयिनी में प्रजापाल राजा राज्य करता था। उसके दो पुत्रियाँ थीं - सुरसुंदरी और मैनासुन्दरी। प्रजापाल बड़ा अभिमानी राजा था। वह मानता था कि वह ही किसी को सुखी या दुःखी बना सकता है; पर मैनासुन्दरी यह मानती थी कि मनुष्य अपने कर्मों से सुखी-दुःखी होता है। जीव पुण्य कर्म से सुखी होता है और पाप कर्म से दुःखी। इस कारण राजा मैना सुन्दरी से नाराज था। उसने मैनासुन्दरी का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया।
प्रातःकाल के समय मयणा अपने पति के साथ जिनमंदिर गयी। वहाँ भक्तिभाव से उसने भगवान की पूजा की। चैत्यवन्दन किया। उसकी भक्ति से चक्रेश्वरी देवी प्रसन्न हुई। उसने उन दोनों को आशीर्वाद दिया। | देवदर्शन के पश्चात् वह गुरु दर्शनार्थ उपाश्रय में गयी। उसने गुरुवन्दन कर गुरु महाराज से धर्मलाभ प्राप्त किया। श्रीपाल का रोग मिटाने के लिए उन्होंने सिद्धचक्र की आराधना का उपदेश
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दिया। उन्होंने कहा
अशुभ कर्मोदय के कारण शरीर में रोगादि उत्पन्न होते हैं अतः अहिंसा, संयम और तप धर्म की आराधना से वे दूर हो सकते हैं। धर्म की आराधना से वे दूर हो सकते हैं। धर्म की आराधना से अशुभ कर्मोदय दूर हो जाता है। पूर्व भव में किये गये शिकार, जीव हत्त्या आदि पाप कर्म वर्तमान भव में जीव को पीडा पहुँचाते हैं। उनके कारण जीव अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है। पाप कर्म के उदय से ही जीव के शरीर में रोग के कीटाणुओं का प्रवेश होता है और वह रोगी बनता है। वही जीव सद्गुरु के उपदेश से जब तप धर्म की आराधना करता है, तब उन कर्मों की निर्जरा हो जाने के कारण उसका शरीर कीटाणु-मुक्त निरोगी हो जाता है।
कहा भी है - जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन्न। मनुष्य यदि सात्विक आहार ग्रहण करेगा, तो उसके विचार भी सात्विक होंगे। सात्त्विक आहार के कारण शरीर भी स्वस्थ रहता है। अतः सात्त्विक जीवन ही आदर्श जीवन है।
श्रीपाल और मैनासुन्दरी ने गुरु महाराज का उपदेश ग्रहण किया। गुरू महाराज ज्ञानी, ध्यानी और प्रभावक थे। उन्होंने उन | दोनों के ठहरने की व्यवस्था एक धर्मारापक संपन्न श्रावक के यहाँ
कर दी। इस प्रकार वे दोनों सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। उनके दिन धर्माराधना में व्यतीत होने लगे।
समय बीतता गया और चैत्र मास आ गया। चैत्र सुदी सातम से चैत्र सुदी पूनम तक नवपदजी की आराधना आयंबिल तप सहित की जाती है। श्रीपाल और मयणा ने यह आराधना श्रद्धापूर्वक की और श्रीसिद्धचक्र यंत्र के प्रक्षालन जल का उपयोग
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किया। नौ दिन तक विधिपूर्वक आयंबिल तप किया। इस आराधना का सुखद और आश्चर्यजनक परिणाम सामने आया। श्रीपाल का कोढ दूर हो गया। उनका शरीर कंचन-सा दैदीप्यमान हो गया।
शास्त्रकार कहते हैं - जिसकी जैसी भावना होती हैं; उसे वैसा ही फल मिलता है। यदि आत्मा में सरलता हो, मन में सात्त्विकता हो, हृदय में सरलता और श्रध्दा हो तथा आचरण में पवित्रता हो; तो इष्ट सिद्धि होने में देर नहीं लगती।
राजकुल में जन्म होने पर भी लघुवय में पिता का स्वर्गवास, राज्यहरण, कोढी शरण, रोगोत्पत्ति आदि पूर्व भव के पापकर्मों का फल है तथा अप्सरा जैसी गुणसंपन्न कन्या से विवाह, देव-गुरु-धर्म है। की प्राप्ति, आराधना का अवसर, रोगनाश आदि पुण्यकर्मों का फल है। श्रीसिद्धचक्र की आराधना से श्रीपाल को अपूर्व सिद्धियाँ प्राप्त हुई तथा देव सान्निध्य भी उपलब्ध हुआ।
एक बार अपना भाग्य आजमाने के लिए श्रीपाल उज्जयिनी से रवाना हुए। चलते चलते वे भरुच बन्दर पहुंचे। वहाँ उनकी मुलाकात एक शाह सौदागर धवलसेठ से हुई। धवलसेठ नाम से धवल था, पर मन से काला था। उसने श्रीपाल से मित्रता कर ली। श्रीपाल उसके साथ व्यापार के लिए समुद्र मार्ग से रवाना हुए।
श्रीपाल गुणवान थे और पुण्यवान भी। वे महापराक्रमी थे । और उनका हृदय उज्ज्वल था। यही कारण था कि वे जहाँ भी जाते, वहाँ उनका राजसत्कार होता था। उन्होंने कई बार धवल सेठ को राजकोप से भी बचाया था। वे जिस देश की धरती पर कदम रखते थे, वहीं की राजकन्या के साथ उनका विवाह होता था। बर्बर द्वीप
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के राजा महाकाल की पुत्री मदनसेना के साथ उनका विवाह हुआ । इसी प्रकार रत्नसंचया नगरी के राजा कनकध्वज की पुत्री मदन मंजूषा के साथ भी उनका विवाह हुआ। अब श्रीपाल आगे बढे । मदनसेना और मदन मंजूषा उनके साथ थी । धवलेसठ तो साथ में था ही । श्रीपाल का वैभव देखकर वह मन ही मन जल रहा था । उसके मन में पाप विचारों का प्रादुर्भाव होने लगा । श्रीपाल की दोनों ! पत्नियों पर वह आसक्त हो गया। उन्हें पाने के विचार में उसकी नींद हराम हो गयी । जहाज समुद्र में आगे बढ़ रहा था । धवल सेठ के मन में श्रीपाल की हत्या करने के विचार आने लगे । अन्त में उसने अपने मुनीम की सलाह ली और उसकी सहायता से उन्होंने श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया। श्रीपाल का पुण्य बलवान था, इसलिए वह समुद्र में एक मगरमच्छ की पीठ पर गिरा । वह मगरमच्छ उन्हें ले कर आगे बढ़ गया। किनारा आने पर श्रीपाल वहाँ कूद पडे। पर थकान के कारण वे चंपा के पेड़ के नीचे बेहोश हो कर गिर पड़े। थोडी देर बाद जब उन्हें होश आया, तो उन्हें एक सैनिक दिखाई दिया। उसने कहा- 'हे भद्र । यह कोकण प्रदेश की राजधानी थाना नगरी है। यहाँ के राजा वसुपाल ने आपको सादर आमंत्रित किया है; इसलिए हम आपको लेने आये है ।' श्रीपाल यह सब सुनकर चकित रह गये और वे उसके साथ राजमहल में चले गये । राजाने उनका हार्दिक स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वसुपाल ने उन्हें थाना का राज्य सौंप दिया ।
[आगे का हाल जानने के लिए 'श्रीपाल चरित्र' या 'श्रीपाल राजा का रास' पढ़िये । नवपदजी की ओली के दिनों में 'श्रीपाल राजा का रास' श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाता है और जैन श्रीसंघ में यह अत्यन्त लोकप्रिय है । ]
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६४ Umara, Surat
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अनुभूत विविध मंत्र 'अ' से 'ह' पर्यंत जितने भी अक्षर हैं, वे सब अचिन्त्य प्रभावशाली हैं। उदात्त-अनुदात्त, स्वरित, सानुनासिक- । निरनुनासिक जो शब्दों के उच्चारण हैं, उन्हें यदि उसी प्रकार से उच्चारित किया जाये; तो वे शब्द मंत्रस्वरूप बन जाते हैं और वे स्व-परहित के कार्य में सहायक बनते हैं।
मंत्र अपूर्व शक्तिशाली होता है, इसलिए उसकी साधना गुरूगमपूर्वक ही करनी चाहिये। मंत्र गुप्त विद्या है, इसलिए गुरू. सेवा से ही प्राप्त होता है - सिध्द होता है। एक एक अक्षर में जब.. अचिन्त्य शक्ति है; तब अक्षर समूह रूप सार्थक शब्द में कितनी
शक्ति होगी; इसकी तो कल्पना करना भी कठिन है। ' मंत्र की शक्ति में शंका को कोई स्थान नहीं है, पर आज गुरू
गम के अभाव में जो मंत्र-तंत्र की किताबें छपती हैं, वे मात्र किताबें रही है। उनमें लेखक का स्वानुभाव, परोपकार का भाव, सच्चरित्रता
आदि का अभाव होने के कारण वे लेखक को द्रव्य लाभ देने के
अतिरिक्त कुछ नहीं करतीं। 7 आज का मनुष्य दुःखी है, भ्रमित है; इसलिए भटक गया
है। सट्टे के कारण, तेजी-मंदी के कारण अथवा ग्रहों के प्रकोप के | कारण उल्टे चक्कर में फंस गया है। यह सब कर्मों की विचित्र गति के कारण हुआ है।
यद्यपि कर्मगति विचित्र होती है, फिर भी मन-वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक यदि आत्म हितकारक मंत्रो का जप किया जाये; | तो तात्कालिक दुःख से छुटकारा भी हो सकता है। मंत्र कि सिध्दि
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६५ Shree Sudhale awami-Cyanbhander-ciomara-Surat
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... के लिए साध्य और साधन की शुध्दता अत्यंत आवश्यक है। अघोरी ....
बाबा, तांत्रिक आदि के और रागी-व्देषी देवी देवताओं के जो मंत्र हैं, वे सदोष होने के कारण आत्मकल्याण में बाधक होते हैं। उनके कारण हिंसादि पाप प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है और जीव दुर्गति को प्राप्त होता है। इसी कारण महाव्रती साधु-मुनिराजों व्दारा अनुभूत, सर्वथा निर्दोष और स्वपर उपकारक मंत्रों का जाप करनाही आराधक के लिए उचित है।
यहाँ हम कुछ ऐसे मंत्र प्रस्तुत कर रहे हैं; जो आत्म कल्याणकारी और इष्ट सिध्दि दाता हैं। संकट मोचन के लिए इन मंत्रों का उपयोग करना चाहिये।
शनिग्रह से पीडित व्यक्ति के लिए निम्नलिखित मंत्रों का जाप असरकारक होता है. १. ॐ नमो भगवओ अरहओ मुणिसुब्बयस्स सुब्बए सुब्बए
। महासुव्वए अणुसुव्वए वएमइ ठः ठः ठः स्वाहा। 2 २. ॐ हीं अहं श्रीमुनिसुव्रत स्वामिने ॐ हीं अहं नमः मम शान्तिं
कुरू कुरू स्वाहा। ३. ॐ हीं नमो लोएसव्व साहूणं । ४. ॐ हीं मुनिसुव्रत प्रभो! नमस्तुभ्यं मम शान्तिः शान्तिः।
विधि - जन्म पत्रिका में, गोचर में शनि देव की पनोती प्रतिकूल होने पर उपरोक्त चार मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जप तम-मन-वसन शुध्दिपूर्वक करना चाहिये तथा श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की पूजा करनी चाहिये।
नमस्कार मंत्र से संबंधित मंत्र १.ॐ हीं श्रीं अर्ह असि आउ सानमः।
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६६ Shiree sudharmaswami-ayaribhandar-Umera, Suret
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२. ॐ हाँ हाँ हूँ हाँ हः असि आउसा स्वाहा। ६. ३. नमो अरिहंताणं, नमो सिध्दाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोएसव साहूणं।
भाव शुध्दि पूर्वक किया गया उपरोक्त किसी भी मंत्र का जाप इष्ट सिध्दि प्रदायक है। इनके जाप से रोग-शोक नष्ट होते हैं और मनोकामना पूर्ण होती है।
___ यदि घर-परिवार-दूकान-व्यवसाय में क्लेश हो, वैर का या हानि का उपद्रव हो, तो शान्त चित्त से निम्नलिखित मंत्र का जाप - करना चाहिये
४. नमो लोए सव्व साहूणं, नमो उवज्झायाणं, नमो आयरियाणं, नमो सिध्दाणं, नमोअरिहंताणं। प्रकट प्रभावी श्री पार्श्वनाथ भगवान से संबंधित मंत्र१. ॐ हीं श्री अर्ह नमिऊण पास विसहर वसह जिण फुलिंग ॐ ही श्री एँ अहं नमः।
विधि - १) आसो सुदी ८-९ और १० के दिनों में तीन उपवास या तीन आयंबिल पूर्वक धरणेन्द्र पद्मावतीसहित श्री पार्श्वनाथ भगवान की तसवीर के आगे दीप धूप रखकर उपरोक्त मंत्र की १२५ मालाएँ गिनना चाहिये।
२) किसी भी महीने की वदी चौदस के दिन रविवार हो तब | अखंड चावल पास में रखकर उपरोक्त मंत्र की १२५ मालाएँ गिनना। एक एक माला पूरी होने पर एक एक चावल मंत्रित कर
प्रभू के चरण में रखना। इस प्रकार कुल १२५ चावल मंत्रित कर - शुध्द डिब्बी में रखना और उन्हे प्रति दिन दीप-धूप करना।
२. ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय ही धरणेन्द्र
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पद्मावतीसहिताय अट्टे मट्टे क्षुद्र विघट्टे क्षुदान- दुष्टान स्तंभय स्तंभय स्वाहा ।
विधि - चलते-फिरते, कोर्ट-कचेहरी में जाते, यात्रा करते हुए या दुकान की गादी पर बैठे बैठे भी इस मंत्र का जाप किया जा सकता है। यह तत्काल सिध्दिदायक सर्वोत्तम मंत्र है ।
पौष वदी दशमी (मारवाडी) के दिन आयंबिल पूर्वक इस मंत्र के १२,५०० जाप करके चारों तरफ लोहे का खीला जमीन में गाड देने से विघ्न - उपसर्ग, शत्रु, रोग, शोक आदि उपद्रव शान्त हो जाते हैं ।
३. ॐ नमो धरणेन्द्र पद्मावतीसहिताय श्रीं क्लीं ऐं अर्ह नमः ।
विधि - किसी भी शुभ दिन से इस मंत्र की दस मालाएँ प्रतीदिन चालीस दिन तक गिनना । इससे मानसिक शान्ति प्राप्त होगी।
श्री गौतम स्वामीजी से संबंधित मंत्र
१. ॐ नमो भगव ओ गोयमस्स सिध्दस्स बुध्दस्स अक्खीण महाणस्स लध्दिसंपन्नस्स भगवन् भास्कर मम मनोवांछितं कुरू कुरू स्वाहा ।
विधि - श्री गौतम स्वामीजी की तस्वीर के सामने दीप- धूप पूर्वक इस मंत्र की एक माला रोज गिनना । गाँव में आते जाते गौतम स्वामी का सदा स्मरण करते रहना । अवश्य लाभ होगा ।
२. श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् एष योगः फलतु ।
श्री सद्गुरू प्रसादात् एष योगः फलतु ।
प्रत्येक माला के प्रारंभ में इन दोनों पदों को बोलकर फिर पूरी माला में शुभ भावना पूर्वक तथा हृदय की स्वस्थता के साथ
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६८ Umara, Sarat
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. निम्नलिखित मंत्र का जाप करना
____ ॐ हीं श्री गौतम स्वामिने सुवर्ण लब्धि निधानाय ॐ हीं नमः।
वस्त्रशुध्दि, शरीर शुध्दि और मुखशुध्दिपूर्वक इस मंत्र के १२,५०० जाप करना। फिर प्रतिदिन इसी मंत्र की एक माला गिनना। सर्राफ और कपडे के व्यापारियों को लाभ होगा। ३. ॐ हीं श्री गौतमस्वामी प्रमुख सर्वसाधुभ्यो नमः ।
उपरोक्त विधिपूर्वक इस मंत्र का जाप भी किया जाता है। लक्ष्मीदेवी कामंत्र
ॐ ही अहं नमः विशा यंत्रधारिणी लक्ष्मी देवी मम वांछितं पूरय पूरय कुरू कुरू स्वाहा।
विधि-लक्ष्मी देवी की तस्वीर के आगे वीशा यंत्र रखकर और दीप धूप रखकर एकाग्रता पूर्वक उपरोक्त मंत्र का जाप करना
चाहिये। वीसा यंत्र यंत्र विभाग में आगे दिया गया है। 5 घंटाकर्णदेव का मूल मंत्र
___ ॐ हीं श्रीं क्लीं ब्लूँ ही घंटाकर्णो नमोऽस्तु ते नरवीर ठः ठः ठः स्वाहा।
विधि - उत्तर दिशा की ओर मुँह करके लाल रंग की माला हाथ में ले कर इस मंत्र का जाप करना चाहिये। अचूक लाभ होगा। सर्व सिध्दि दायक मंत्र
ॐ हीं श्रीं ऐं लोगस्स उज्जोअगरे धम्म तित्थयरे जिणे, अरिहंते कित्तइस्संचउवीसं पिकेवली मम मनोवांछितं कुरू कुरू ॐ स्वाहा।
विधि - रात के समय शुध्दिपूर्वक रोज एक माला गिनने से
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मनकी इच्छाएँ पूरी होती हैं तथा शान्ति और समाधि प्राप्त होती है। सर्वोत्तम मंत्र
ॐ हीं अहं नमः
विधि - इन बीजाक्षरों को हमेशा अपने मुख में जपते रहना। चाहिये, क्यों किये सर्वशक्ति संपन्न बीजाक्षर हैं। ऋषिमंडल मूल मंत्र ऋषिमंडल स्तोत्र का शुध्द पाठ करने के पश्चात् मूल मंत्र की माला गिनना अधिक लाभकारक होता है।
मंत्र-ॐ हाँ हाँ हुँ हूँ हैं हैं हाँ हः ॐ असि आ उसा ज्ञान दर्शन चारित्रेभ्यो हीँ नमः।
सूचना-उपरोक्त मंत्रो का तथा गुरू महाराज व्दारा दिये गये किसी भी मंत्र का जाप करने के पूर्व साधक को अपनी रक्षा करनी चाहिये। यात्रा करते वक्त भी यदि रक्षा का साधन अपने साथ होता है; तो अपनी यात्रा निर्विघ्न पूरी होती है। इसी प्रकार धर्मकार्य तथा इष्ट सिध्दि के कार्य भी खतरे से खाली नहीं होते; अतः मंत्रसाधक को सर्वप्रथम शरीर, वस्त्र तथा मन-वचन की शुध्दि करनी चाहिये। फिर आत्मरक्षा के लिए अपने मन में निम्नलिखित भाव लाने चाहिये
श्री अरिहंत परमात्मा मेरे मस्तक की रक्षा कर रहे हैं। श्री सिध्द परमात्मा मेरे चक्षु तथा ललाट की रक्षा कर रहे हैं। आचार्य भगवन्त मेरे कानों की रक्षा कर रहे हैं। उपाध्याय भगवन्त मेरी नाक की रक्षा कर रहे है। साधु-मुनिराज मेरे पूरे शरीर की रक्षा कर रहे हैं। ' अतः मै निर्विघ्न और उपद्रव रहित हूँ। मुझे कोई भय नहीं
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इस प्रकार के भाव मन में रखकर यदि मंत्रो का जाप किया जाये; तो पुण्य सहायक होता है, अन्तराय कर्मों का जोर कम होता र है और अपना पुरूषार्थ भी सफल होता है।
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सिध्दि प्रदायक यंत्र जिस प्रकार कोई भी वर्ण अथवा वर्णसमूह शक्तिसंपन्न हैं; उसी प्रकार संख्यावाचक अंक भी प्रकारान्तर से शक्तिसंपन्न में हैं। मंत्र दो प्रकार के होते हैं - मारक और तारक। मारक मंत्र
हिंसक और व्देष भाव से परिपूर्ण होते हैं। मारक मंत्रो की साधना में देवी देवताओं के आगे निरपराध मूक प्राणियों का वध होता है। ऐसे तात्रिक प्रयोगो के व्दारा शत्रुनाश, मारण, उच्चाटन, पीडन आदि कार्य साध्य किये जाते हैं, इसलिए दयालु, पापभीरू और धर्माराधक आत्मसाधक को ऐसे मंत्रों की साधना नहीं करनी चाहिये। अन्न-वस्त्र की उपलब्धि या अनुपलब्धि पूर्वोपार्जित पुण्य-पांप का फल है और लाख प्रयत्न करने पर भी भाग्य नहीं बदला जा सकता; अतः देवदुर्लभ मनुष्य जन्म पा कर ऐसे मंत्र-तंत्रों का त्याग करना ही उचित है। । कुछ अपवाद छोडकर संख्या की जिस रचना में चारों ओर से एकही जोड आवे; उसे यंत्र कहते हैं। जैन धर्म सम्मत ऐसे बहुत से यंत्र हैं; जो साधक को उत्तम फल प्रदान कर सकते हैं।
१) इन यंत्रों में प्रमुख यंत्र है - श्री सिध्दचक्र यंत्र। यह श्रेष्ठतम यंत्र है। इसमें अरिहंत, सिध्द, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन नौ पदों का आलेखन
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कियाजाता है। इन नौ पदों का समाहार ही सिध्दचक्र है।
___ संसार में ये नौ पद सर्वोपरि हैं। इनके नामोच्चारण, दर्शन, वन्दन, पूजन, ध्यान आदि से आत्मशुध्दि होती है। इनके सतत जाप से पाप-नाश होता है। अरिहंत-सिध्द देव तत्व हैं, आचार्यउपाध्याय-साधु गुरू तत्व हैं और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप धर्म तत्त्व है। देव-गुरू-धर्म तत्त्व समावेशक सिध्दचक्र यंत्र की आराधना से आत्म परिणाम निर्मल होते हैं और आराधक स्वयं नवपदमय होता हुआ परम पद को अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त होता है। अनादि काल से अनन्त आत्माओं ने इस यंत्र की आराधना व्दारा अपने शुध्द स्वरूप को प्राप्त किया है और भविष्य में भी अनेक आराधक इसी की सहायता से मंजिल प्राप्त करेंगे। आयंबिल तपपूर्वक की गयी इस यंत्र की आराधना शीघ्र फल प्रदान करती
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२.तिजयपहुत्त यंत्र
श्री अजितनाथ प्रभु के शासन काल में इस भूतल पर एक सौ सत्तर तीर्थंकर भगवान विहरमान थे। उनका आलेखन इस यंत्र में किया जाता है; अतः यह यंत्र अपूर्व महिमा संपन्न है।
1 यह तिजय पहुत्त यंत्र की| २५ | ८० क्षि | १५ | ५०
रचना है। इसमें "क्षि प ॐ स्वा ३० | ७५ हा' ये बीजाक्षर हैं। इनसे शरीर स्वा | हा
रक्षा और आत्मरक्षा होती है। र : 'हर हुं हः' और 'स र सुं|
सः' ये आठ बीजाक्षर अत्यंत ५५ | १० | हा | ६५ ४० प्रभावशाली हैं;
प्रभावशाली है; अतः इस यंत्र का
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| अष्टगंध से आलेखन कर इसकी पूजा करने से अपूर्व लाभ होता है। विघ्न-संकट या रोग उपद्रव के समय घर या दूकान के चारो कोनों में दीप-धूप रख कर 'तिजय पहुत्त' स्तोत्र का पाठ करने से बहुत लाभ होता है। ३.पैंसठिया यंत्र | २२ | ३ | ९ | १५ | १६
यह पैसठिया यंत्र है। इस
यंत्र का आलेखन रवि पुष्य योग । १४ | २० | २१ | २
के दिन अष्ट गंध से करना | १ | ७ | १३ | १९ / २५ | चाहिये। आलेखन करते वक्त | ११ | १७ | २३ | ४
सर्व प्रथम १, फिर २, ३ इस
प्रकार २४ तक लिखना चाहिये; १८ | २० | ५ | ५ | १२| क्योंकि १ से लगाकर २४ तक के अंक तीर्थकर सूचक हैं। अन्त में २५ का अंक लिखना चाहिये। शेष विधि गुरू गमसेजान लेनी चाहिये। ४. वीसा यंत्र
विधि - अष्टगंध से इस यंत्र का आलेखन करके लक्ष्मी देवी के मंत्रों का जाप किया जाता
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...
मंत्रइस प्रकार है१) ॐ हीं नमः वीशा यंत्र धारिणी लक्ष्मीदेवी मम वांछितं
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ७३ Shree Sudharmaswarr GyantirardarForrrara, Surat
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ७३
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पूरयपूरय कुरूस्वाहा। २) ॐ श्रीं हाँ क्लीं महालक्ष्म्यै नमः।
विधि-लक्ष्मीदेवी की तसवीर के नीचे वीसा यंत्र रखकर दीप धूप पूर्वक उपरोक्त दो में से किसी एक मंत्र की प्रति दिन एक माला गिनने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ५. पन्दरिया यंत्र
अपनी अपनी राशि के अनुसार अष्टगंध से इस यंत्र का आलेखन करने से अवश्य लाभ होता है। १) कर्क-वृश्चिक-मीन राशि
४ । ३ । २) मिथुन-तुला-कुंभ राशि
८ । १ ।
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३) वृषभ-कन्या-मकर राशि
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मेष-सिंह- धन राशि
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चौवीस तीर्थंकरों का कल्प
(वैज्ञानिक पध्दति)
स्वयं की श्रध्दा से स्वयं का उपचार
१) ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऋषभदेवाय नमः
विधि - हरेक प्रकार का भय इस जाप से दूर होता है ।
२) ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं अजितनाथाय नमः
विधि - इस जाप की रोज १ माला गिनने से विजय प्राप्त
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होती है ।
३) ॐ ह्रीं श्रीं अहं संभवनाथाय नमः
विधि - एक माला रोज फिराने से नयी वस्तु उत्पन्न होती है जैसे पानी आदि ।
४) ॐ ह्रीं श्रीं अहं अभिनंदननाथाय नमः
विधि - इसकी एक माला गिनने से खुशहाली होती है ।
५) ॐ ह्रीं श्रीं अहं सुमतिनाथाय नमः
विधि - रोज एक माला फिराने से बुध्दि खराब हुयी हो तो
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ७५
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सुधर जाती है ।
६) ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं पद्मप्रभवै नमः
विधि - एक माला रोज फिराने से भाग्य खुलते हैं । ७) ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सुपार्श्वनाथाय नमः
विधि - इस जाप की चार माला फिराकर सोने से इच्छित सवालों के जवाब मिलते हैं ।
८) ॐ ह्रीं श्रीं अहं चंद्रप्रभवै नमः
विधि - इसकी एक माला फिराने के बाद बायें हाथ की बीच की अंगूली से स्वयं के थूक से तिलक करने पर सब वश ( काबु) में होते हैं ।
९) ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सुविधिनाथाय नमः
विधि - एक माला रोज गिनने से अच्छी बुध्दि उत्पन्न होती है । १०) ॐ ह्रीं श्रीं अहं शितलनाथाय नमः
विधि - इस जाप की एक माला रोज गिनने से गरमी की बिमारी शांत होती है एवं "वेयमाणे खय गया" की एक माला गिनने से कैसी भी बिमारी शांत होती है ।
११) ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्रेयांसनाथाय नमः
विधि - इसकी एक माला गिनने से किसी भी प्रकार के आदमी के पास जाने से वह वश में होता है ।
१२) ॐ ह्रीं श्रीं अहं वासुपूज्य प्रभवै नमः
विधि - एक माला रोज फिराने से मंगल ग्रह की शांति होती है । १३) ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह विमलनाथाय नमः
विधि - एक माला रोज गिनने से बुध्दि निर्मल होती है ।
१४) ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह अनंतनाथाय नमः
विधि - इस जाप की एक माला रोज फिराने से विद्या की
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प्राप्ति होती है।
१५) ॐ हीं श्रीं अहं धर्मनाथाय नमः
विधि-रोज एक माला गिनने से जानवरों का उपद्रव मिटता है। १६) ॐ हीं श्रीं अहं शांतिनाथय नमः
विधि - विधियुक्त रोज जाप करने से ग्रामादिक का उपद्रव नाश होता है एवं गुरू ग्रह कीशांति होती है। १७) ॐ हीं श्रीं अहँ कुंथुनाथाय नमः
विधि - इसकी एक माला रोज गिनने से दुश्मन पर विजय प्राप्त होती है। १८) ॐ हीं श्रीं अहं अरनाथाय नमः
विधि-रोज एक माला फिराने से सर्वत्र विजय होती है। १९) ॐ हीं श्रीं अहं मल्लिनाथाय नमः
विधि-इसकी रोज एक माला गिनने से चोरादिक के भय का नाश होता है। २०) ॐ हीँ श्रीँ अहं मुनिसुव्रत नाथाय नमः
विधि - एक माला रोज फिराने से शनि ग्रह की शांति होती
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२१) ॐ ही श्री अहं नमिनाथय नमः
विधि-इस जाप की एक माला रोज गिनने से सभी प्रकार से अच्छा होता है। २२) ॐ हीं श्रीं अहं अरिष्टनेमिनाथाय नमः
विधि - इसका विधियुक्त जाप करने से दुःकाल का नाश होता है। |२३) ॐ हीं श्री अर्ह पार्श्वनाथाय नमः __विधि - इसकी एक माला रोज फिराने से इच्छित कार्य की
.. श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ७७
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सिध्दि होती है। २४) ॐ हीं श्रीं अर्ह महावीराय नमः
विधि - इस जाप की एक माला रोज गिनने से धन-संपत्ति आदि की प्राप्ति होती है।
('जैन रत्न चिंतामणि' से साभार उदृत).
.महावीर वाणी जीवाऽजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाऽऽसवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव।।
जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष – ये नव तत्व अथवा पदार्थ है।
अप्पपसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोसगहण-सीलत्तं। वेर धरणं च सुइरं, तिव्वकसायाण लिंगाणि।।
स्वयं की प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष देखने का स्वभाव होना, लम्बे समय तक वैर की गांठ बांधकर रखना - ये तीव्र कषाय वाले जीवों के लक्षण अथवा चिन्ह है।
सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पण स्सई। एवं कम्माणि णस्संति मोहणिज्जे खयं गए।।
जिस प्रकार सेनापति के मरने के बाद सेना का नाश हो जाता है, उसी प्रकार एक मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने के बाद समस्त कर्म सहजता से नष्ट हो जाते है।
ज अन्नाणि कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडी हिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमि तेणं।।
अज्ञानी व्यक्ति तप द्वारा करोडों जन्मों अथवा वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति तीन गुप्तियों द्वारा एक श्वास मात्र में करता है।
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अवश्य लाभ लीजिये
श्री ऋषभदेव स्वामी के १०५ वर्ष प्राचीन जिन मंदिर के जिर्णोध्दार का कार्य हो रहा है, अतः अर्थ सहयोग देकर पुण्यानुबंधी पुण्य प्राप्त करें।
श्री महावीर मानव क्षुधा तृप्ति केंद्र के अंतर्गत प्रतिदिन १५० निराधार व्यक्तियों को भोजन (प्रत्येक को चार रोटी, स सब्जी, मसाला, चावल व छाछ) दिया जाता है। उसका नकरा
कायमी तिथी १००१ रुपये
सिर्फ एक दिन के १५१ रुपये
● श्री वर्धमान तप आयंबिल खाता कायमी चालू है। उसका नकरा कायमी तिथी के १००१ रुपये है।
● श्री मणिभद्र जैन भोजनशाला कायमी चालू है। उसका नकरा कायमी तिथी के १००१ रुपये है।
निवेदक
श्री ऋषभदेव महाराज जैन धर्म टेम्पल एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट श्री मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय टेंभी नाका, थाने ४०० ६०१.
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________________ શ્રી યશ alcohllo なたに कोकण शत्रुजय थाना तीर्थ के दर्शनार्थ bollers * भगवान मुनिसुव्रत स्वामी की परिक नयनरम्य प्रतिमा अद्वितीय, अनूठा श्री सिध्दचक्र यंत्र श्रीपाल चरित्र, जैन इतिहास, तीर्थंकरों के जीवन विषयक सुंदर चित्र के दर्शन वंदन पूजन कर जीवन में आत्मशान्ति का अनुभव कीजिये। नोट - यहाँ पर शनिवार व रविवार को भाता दिया जाता है। भोजनशाला, आयंबिल शाला आदि सुविधायें, उपलब्ध है। निवेदक 7 592389 श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन धर्म टेम्पल एन्ड ज्ञाती ट्रस्ट-थाने एवं श्री मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय, टेंभी नाका, थाने-४०० 601. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat w ww.umaragyanbhandar.com |