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________________ तब अवधिज्ञान के उपयोग से उन्हें यह ज्ञात हुआ कि, तीर्थंकर परमात्मा का जन्म हुआ है। उन्होंने हरिणगमेषी देव को तुरंत सुघोषा घंटा बजाने की आज्ञा दी । सुघोषा के बजते ही बत्तीस लाख देव विमानों की घंटियाँ बज उठीं। घंटानाद से सब देवी देवता सावधान हो गये और तीर्थंकर परमात्मा का जन्म कल्याण मनाने के लिए तैयार हो गये। चौसठ इन्द्र अपने देव देवी के परिवार के साथ राजमहल उपस्थित हुये । फिर वे बाल प्रभु को मेरु पर्वत पर ले गये। वहाँ उन्होंने परमात्मा का क्षीरसमुद्र के जल से अभिषेक किया । संसार में उत्सव तो अनेक आते हैं और लोग उन उत्सवों को हर्ष पूर्वक मनाते भी हैं, पर उन सांसारिक उत्सवों से आत्मा का भला नहीं होता । आत्मा का भला तो अलौकिक उत्सव से ही होता है। प्रभु का जन्मोत्सव, आराधक का दीक्षोत्सव, प्रभु का केवल ज्ञानउत्सव आदि ऐसे उत्सव है; जिनसे आत्मा का निश्चित रूप से कल्याण होता है। देवताओं ने प्रभु का जन्मोत्सव बड़े उत्साह से मनाया । • अभिषेक के पश्चात् इन्द्र महाराज ने प्रभु की स्तुति करते हुये कहा - " हे नाथ! आप इस अवसर्पिणी काल रूप सरोवर में कमल के समान हैं और हम भरे हैं। हम संसारी है, संसार से पार होना चाहते हैं, अतः हमारा आपके पास आना अनिवार्य है । भ्रमर कमल के पास गये बिना कैसे रहेगा? आपके चरण कमलों को प्राप्त कर आज हमारा जीवन कृतकृत्य हो गया । "" “हे वीतराग! यद्यपि हम देवों में शक्ति अपार होती है; एक साधारण सा देव भी चक्रवर्ती की सेना को तहस-नहस करता है; Shree Sudharaswami Gyan श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २३ www.umaragvanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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