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संसार में धर्म ही कल्याण मित्र है। शरीर तो नित्य मित्र के समान दगाबाज है। यह भवान्तर को बिगाड़ता है और दुर्गति में ले जाता है। यह पापोत्पादक और पापवर्धक है तथा अगले जन्मों में दुःख, दरिद्रता, बीमारी और मानसिक संताप प्रदान करता है। यह भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी तथा वियोगमय है और संसार दुःखमय है। अतः इस शरीर से पापोपार्जन की अपेक्षा धर्मोपार्जन करना श्रेयस्कर है। इहलोक और परलोक में सुखप्राप्ति का यही! राजमार्ग है। कहा भी है
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण धर्म पंथ साधे बिना, नर तीर्यच् समान ।।
अतः धर्म की आराधना हमेशा करते रहना चाहिये। धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तपधर्म है। दान, शील तप
और भाव धर्म है। इस धर्म के पालन में जो तत्पर रहता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं।
धर्म दो प्रकार का है - मुनि धर्म और श्रावक धर्म। संसार - परिभ्रमण से मुक्ति का एकमेव उपाय मुनि धर्म का पालन है; अतः
: यदि शक्ति हो तो महाव्रतों को ग्रहण कर मुनि धर्म की आराधना .., करनी चाहिये। इससेही संसार भ्रमण क्रमशः घटता जाता है। - मुनि राज के उपदेश से राजा बहुत प्रभावित हुआ। यह
। संसार उसे असार लगने लगा। उसकी भवाभिनन्दिता और ... पुद्गलाभिनन्दिता घटने लगी। उसका जीवन वैराग्य रंग में रंगा
गया। जब मोक्षाभिलाषिणी पुरूषार्य शक्ति और आसन्न भव्यता का मेल बैठगजाता है, तबसंयम ग्रहण की भावना बढ़ने लगती है।
राजा ने भागवती दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया।
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १२ Shree Sudharmaswami Gyanohandar-omara, Surat
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