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________________ } बीस स्थानक तप की आराधना करती है और तीर्थंकर नाम कर्म. 'निकाचित करती है । फिर देवगति प्राप्त कर के उसके पश्चात् मनुष्य गति प्राप्त करती है और संयम ग्रहण करके घाती कर्मों का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त कर केवल तीर्थकर पद प्राप्त करती है । राजर्षि सुरश्रेष्ठ की आत्मा ने भी देवगति की आयु पूरी करके भारत वर्ष में मनुष्य रूप में जन्म लिया और दीक्षा ग्रहण कर केवल ज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर पद प्राप्त किया। इन्हीं तीर्थंकर नाम श्री मुनिसुव्रत स्वामी है । अगले अध्याय में उन्हीं का पावन चरित्र प्रकट किया जायेगा । महावीर वाणी पाणेय नाइवाएज्जा अदिनं पि य नायए । साइयं न मुसं बूया एस धम्मे बुसीम ओ ।। प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी हुई वस्तु न लेना, कपंटयुक्त असत्य वचन न बोलना; ऋषियों के मत से यह धर्म है। नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्व वादें । न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः कषाय मुक्ति किलमुक्तिरेव । । श्वेतांम्बरत्व, दिगंबरत्व, तत्ववाद, तर्कवाद तथा पक्षपात के आश्रय से कभी मुक्ति प्राप्त नही होती। कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar - Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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