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प्रभु का निर्वाण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्रभु श्रीमुनिव्रत स्वामी ने भरुच बन्दर में अश्व को प्रतिबोधित करने के पश्चात् वहाँ से विहार किया और हस्तिनापुर पधारे।
हस्तिनापुर भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहीं पर में प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव भगवान को दीक्षा ग्रहण के साल भर
बाद अक्षय तृतीया के दिन राजा श्रेयांस के द्वारा प्रथम बार आहार प्राप्त हुआ था और भगवान ने इक्षुरस से पारणा किया था। भगवान का तप बढ़ते बढ़ते वर्षीतप हो गया था। राजा श्रेयांस उन्हीं का पौत्र था।
फिर यही हस्तिनापुर सोलहवें, सतरहवें और अठारहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ, श्रीकुंथुनाथ और श्री अरनाथ प्रभु की पदरज से पावन हुआ। ये तीनों तीर्थंकर भगवान पूर्व में चक्रवर्ती सम्राट भी थे। चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार और आठवें चक्रवर्ती सुभूम तथा पाँचों पांडवों की जन्मभूमि भी यही हस्तिनापुर है।
भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय में यहाँ कार्तिक सेठ रहता था। उस काल में यहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। कार्तिक सेठ सम्यक्त्व व्रतधारी, ईमानदार और एक पत्नीव्रती था। वह सप्त व्यसनों का त्यागी होने के कारण राजमान्य और . लोकमान्य था।
कार्तिक सेठ दृढ सम्यक्त्वी श्रावक था। एक हजार . आराधकों के साथ वह धर्म की आराधना किया करता था। श्रावक . की ग्यारह प्रतिमाओं में से पाँचवी प्रतिमा का पालन उसने सौ बार किया था। इसलिए वह शतक्रतु के नाम से भी प्रसिध्द था। वह
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ४५ Shree Sudhartrraswatire yarrtrandar-mara,
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