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का हूँ; पर कर्मों के कारण संसारी बना हुआ हूँ; अतः ज्ञानवरणीय,
दर्शनावरणीफ, मोहनीय और अन्तराय आदि घाती कर्मों का नाश . करके मुझे मेरे असली स्वरूप को प्राप्त करना चाहिये और समस्त जीवों के कल्याण में सहायक बनना चाहिये । मुझे मेरा मूल स्वरूप प्राप्त हो और सब जीवों का कल्याण हो, ऐसी भावदया का विकास करना ही अरिहंत पद की आराधना है। इसी प्रकार संसार के शुभाशुभ मोह उपादानों से मुक्त हो कर निरंजन-निराकार सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना सिद्धपद की आराधना है।
तीसरा पद है - प्रवचन । प्रवचन अर्थात् द्वादशांगी। केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् श्री तीर्थंकर परमात्मा समवसरण में संसार का सत्त्य स्वरूप तीन पदों में प्रकट करते हैं - उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा अर्थात् पर्यायों की उत्पत्ति होती है, विनाश . होता है, फिर भी द्रव्यरूप से वह ध्रुव अर्थात् अपने मूल रूप में बना रहता है। इस त्रिपदी को प्राप्त कर गणधर भगवान द्वादशांगी की रचना मुहूर्त मात्र में करते हैं। अरिहंत परमात्मा अर्थ रूप में तत्व प्रकट करते हैं और गणधर भगवान उसे सूत्र रूप प्रदान करते हैं। यह द्वादशांगी ही प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट वचन है। यह प्रवचन जीव मात्र के भवरोगों का नाश करने में समर्थ है। ऐसे प्रवचन की श्रध्दापूर्वक की जानेवाली उपासना - स्वाध्याय, मनन, चिन्तन आदिही सच्ची आराधना है।
अगला पद है -आचार्य। पंच परमेष्ठी में आचार्य का स्थान । तीसरा है। आचार्य छत्तीस गुणों केधारक होते हैं। वे पाँच महाव्रतों से युक्त होते हैं, पाँच प्रकार के आचार का पालन करते हैं और पाँच
- श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १५ Shree Sudharmaswami Gyönbhandar-umara, surat- Www.umaragyanbhandar.com