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________________ नहा आचरण करते हुये अपने स्वभाव में स्थित रहना ही धर्म है। स्वरूपाचरण धार्मिकता है। मुक्ति क्या है? क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से । मुक्त होना मुक्ति है। निराकुल जीवन में मुक्ति का आनंद समाया हुआ है। अहिंसा, संयम और तप जैन शासन है। इन तीनों की आराधना ही जैन शासन की आराधना है। अनादिकालीन हिंसा के संस्कारों का त्याग करके अहिंसक जीवन जीना अहिंसा पालन है। दुराचार का त्याग करके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचो महाव्रतों का पालन करना संयम है। अनशन, ' ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, काय क्लेश और संलीनता, : . बाहयतप है। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग आभ्यंतर तप है। उपवास आयंबिल आदि बाहय तप ... भी आभ्यंतर तपपूर्वक करना चाहिये। तभी पापकर्मोकी निर्जरा, होती है। तप उत्कृष्ट भावमंगल है। - व्रत मनुष्य जीवन के अलंकार हैं। व्रतधारण से देवपद प्राप्त होता है और अंत में मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिये व्रत धारण करना . मनुष्य जीवन का सार है। समवसरण के श्रोताओंपर प्रभु के उपदेश का अच्छा प्रभाव . पड़ा। अनेक आराधकों ने व्रत नियम आदि ग्रहण किये हैं। कई .. लोगों ने मुनि धर्म अंगीकार किया और अनेक आराधककों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया। प्रभु के अठारह गणधर थे; उनमें इन्द्र गणधर प्रमुख थे। : उनके शासन में तीस हजार साधु और पचास हजार साध्वियों थीं। श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३० Shree Sudhalinaswami-cyanibhand Curmaragyenbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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