SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव भी वहाँ से पतित होता हुआ प्रथम गुणस्थान में आ जाता है। . कर्म गति टाले नहीं टलती। इस चतुर्गतिमय संसार में मनुष्य गति एक जंक्शन है। मोक्ष की प्राप्ति सिर्फ मनुष्य गति से ही संभव है। स्वर्ग के देवता भी मनुष्य गति पाने के लिए तरसते हैं। संयम धर्म की आराधना इस मनुष्य गति में ही हो सकती है। धर्मसत्ता ही कर्मसत्ता को नष्ट कर सकती है; इसलिए धर्मसत्ता की शरण में जाना श्रेयस्कर है। समझदार के लिए इशारा काफी होता है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह कार्य-कारण भाव को समझे। संसार में रहा हुआ एक एक पदार्थ सम्यक् ज्ञान सहित वैराग्य भाव जगाने में समर्थ है। पंचेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना, क्रोधादि कषायों का दमन करना, कामादि षड्रिपुओं को जीतना, कुविचारों का त्याग करना और पौद्गलिक भावों से मन को दूर हटाना ही सच्ची धार्मिकता है। इस मनुष्य भव में भी यदि पाप का पोषण होता रहा तो भवांतर कभी नहीं सुधरेगा। इस भव के कुसंस्कार अन्य भव में भी आत्मा का अहित किये बिना नहीं रहेंगे। अतः दुर्गति के गर्त में धकेलने वाले पापकार्यों का त्याग कर सम्यकत्व ग्रहण पूर्वक अनासक्त - भावसे जीवन जीनेका प्रयत्न करना चाहिये। जीवन में सुख प्राप्ति :कायही सरल मार्ग है। धर्ममय जीवन आदर्श होता है। धर्म क्या है? हिंसा, दुराचार तथा भोगलालसा के कारण दुर्गति में जाते हुये जीव को जो सद्गति की तरफ ले जाता है, वहीधर्म है। 3 वस्तु स्वभाव ही धर्म है। दुष्कर्मोंका त्याग कर सत्कर्मों का Ul.. . . . . श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २९ .... .. Shree Sudhamaswami Gyarbtraridaruitrara, Surat curmaragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy