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प्रभु का उपदेश इस प्रकार भगवान की स्तुति करके इन्द्र महाराज अपने स्थान पर विराजमान हुए। देवगण भी अपने अपने स्थान पर बैठ गये। राजा-रानी, सेठ-सेठानी आदि लोग भी अपने विभाग में
स्थित हुए। परमात्मा मुनिसुव्रत स्वामी ने तीर्थ स्थापना हेतु अपना। - प्रवचन प्रारंभ किया। उन्होंने कहा
यह संसार जड और चेतन की क्रीडास्थली है। जड भैर चेतन . दो मूल तत्त्व हैं। जिसमें चेतना अर्थात जीव के गुण स्पष्ट या
अस्पष्ट रूप से विद्यमान हैं, वह चेतन है और जिसमें चेतना गुण का र पूर्ण अभाव है, वह जड है।
हाट-हवेली, वस्त्राभूषण, पैसा-टका, मृतशरीर और जीवधारी शरीर तथा उसके अवयव और कर्म पुद्गल आदि जड : पदार्थ हैं। जिस प्रकार आत्मा शक्तिमान है, उसी प्रकार कर्म भी शक्तिमान है। कर्म अपने कर्ता को उसी प्रकार पहचान लेता है, जैसे कोई बछडा अनेक गायों में से अपनी माँ को। चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, अमीर उमराव, रूपवान स्त्री-पुरुष आदि समस्त। लोगों को और संसार के जीव मात्र को संयोगी-वियोगी और सुखी-दुःखी करने की तथा हँसाने रुलाने की संपूर्ण शक्ति। कर्मसत्ता के पास रही हुई है। कोई शूरवीर हो चाहे वाक्पटु हो,।। किसी की भी चालाकी कर्मसत्ता के आगे नहीं चल सकती। संसार का कोई भी शस्त्रकर्मसत्ता का नाश नहीं कर सकता। इस कर्मसत्ता की शक्ति के बारे में अधिक क्या कहें? ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित २८ Shree Sudhátmaswami Gyanbhandarumara. Surat
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