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________________ - . .." हैं। वे स्वयं आगम का स्वाध्याय करते हैं और अन्य मुनिजनों को , भी आगम की वाचना देते हैं। ये पच्चीस गुण युक्त होते हैं। छठे स्थानक में इनकी आराधना की जाती है। सातवें स्थानक में साधु पद की आराधना की जाती है। पाँच परमेष्ठी में साधु का स्थान पाँचवा है। साधु को मुनि या अन्तेवासी भी कहते हैं। साधु अपनी आत्मा का कल्याण करता है और दूसरों का भी कल्याण करता है। जो मौन धारण करता है, उसे मुनि कहते हैं और जो अपने गुरु की सेवा वफादारी पूर्वक करता है, उसे अन्तेवासी कहते हैं। साधु पाँच महाव्रतों का और अष्टप्रवचन माता का पालन करते हैं। आठवें से चौदहवे स्थानक में सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, विनय, सम्यचारित्र, क्रिया तप तथा अभिनव ज्ञान का समावेश होता है। पन्द्रहवाँ स्थानक है - ब्रह्मचर्यव्रत धारी का। ब्रह्मचर्यव्रत संसार में दीपक के समान है। इन्द्रमहाराज भी ब्रह्मव्रत केधारक को . प्रणाम करके सिंहासन पर विराजमान होते हैं। यह व्रत आत्मोन्नति में परम सहायक है। ब्रह्मव्रती भी आराध्य होने के कारण उच्चस्थान में विराजमान हैं। सोलहवे स्थान में है-श्री गौतमस्वामी। ये चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे और परम विनयी थे। भगवान महावीर पर इनका प्रशस्त अनुराग था। ये अनेक लब्धियों केधारक -- थे। भगवान महावीर के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर ये मोक्ष में गये। इनके हाथ से जिस किसी ने भी दीक्षा ली, उसने अवश्य ही केवलज्ञान प्राप्त किया। ये आत्मलब्धि से सूर्य की किरण का MR. श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १० Shree Sudhámasurarmi Gyanbhandarumaraş Sarat aragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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