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किया। नौ दिन तक विधिपूर्वक आयंबिल तप किया। इस आराधना का सुखद और आश्चर्यजनक परिणाम सामने आया। श्रीपाल का कोढ दूर हो गया। उनका शरीर कंचन-सा दैदीप्यमान हो गया।
शास्त्रकार कहते हैं - जिसकी जैसी भावना होती हैं; उसे वैसा ही फल मिलता है। यदि आत्मा में सरलता हो, मन में सात्त्विकता हो, हृदय में सरलता और श्रध्दा हो तथा आचरण में पवित्रता हो; तो इष्ट सिद्धि होने में देर नहीं लगती।
राजकुल में जन्म होने पर भी लघुवय में पिता का स्वर्गवास, राज्यहरण, कोढी शरण, रोगोत्पत्ति आदि पूर्व भव के पापकर्मों का फल है तथा अप्सरा जैसी गुणसंपन्न कन्या से विवाह, देव-गुरु-धर्म है। की प्राप्ति, आराधना का अवसर, रोगनाश आदि पुण्यकर्मों का फल है। श्रीसिद्धचक्र की आराधना से श्रीपाल को अपूर्व सिद्धियाँ प्राप्त हुई तथा देव सान्निध्य भी उपलब्ध हुआ।
एक बार अपना भाग्य आजमाने के लिए श्रीपाल उज्जयिनी से रवाना हुए। चलते चलते वे भरुच बन्दर पहुंचे। वहाँ उनकी मुलाकात एक शाह सौदागर धवलसेठ से हुई। धवलसेठ नाम से धवल था, पर मन से काला था। उसने श्रीपाल से मित्रता कर ली। श्रीपाल उसके साथ व्यापार के लिए समुद्र मार्ग से रवाना हुए।
श्रीपाल गुणवान थे और पुण्यवान भी। वे महापराक्रमी थे । और उनका हृदय उज्ज्वल था। यही कारण था कि वे जहाँ भी जाते, वहाँ उनका राजसत्कार होता था। उन्होंने कई बार धवल सेठ को राजकोप से भी बचाया था। वे जिस देश की धरती पर कदम रखते थे, वहीं की राजकन्या के साथ उनका विवाह होता था। बर्बर द्वीप
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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