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दिया। उन्होंने कहा
अशुभ कर्मोदय के कारण शरीर में रोगादि उत्पन्न होते हैं अतः अहिंसा, संयम और तप धर्म की आराधना से वे दूर हो सकते हैं। धर्म की आराधना से वे दूर हो सकते हैं। धर्म की आराधना से अशुभ कर्मोदय दूर हो जाता है। पूर्व भव में किये गये शिकार, जीव हत्त्या आदि पाप कर्म वर्तमान भव में जीव को पीडा पहुँचाते हैं। उनके कारण जीव अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है। पाप कर्म के उदय से ही जीव के शरीर में रोग के कीटाणुओं का प्रवेश होता है और वह रोगी बनता है। वही जीव सद्गुरु के उपदेश से जब तप धर्म की आराधना करता है, तब उन कर्मों की निर्जरा हो जाने के कारण उसका शरीर कीटाणु-मुक्त निरोगी हो जाता है।
कहा भी है - जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन्न। मनुष्य यदि सात्विक आहार ग्रहण करेगा, तो उसके विचार भी सात्विक होंगे। सात्त्विक आहार के कारण शरीर भी स्वस्थ रहता है। अतः सात्त्विक जीवन ही आदर्श जीवन है।
श्रीपाल और मैनासुन्दरी ने गुरु महाराज का उपदेश ग्रहण किया। गुरू महाराज ज्ञानी, ध्यानी और प्रभावक थे। उन्होंने उन | दोनों के ठहरने की व्यवस्था एक धर्मारापक संपन्न श्रावक के यहाँ
कर दी। इस प्रकार वे दोनों सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। उनके दिन धर्माराधना में व्यतीत होने लगे।
समय बीतता गया और चैत्र मास आ गया। चैत्र सुदी सातम से चैत्र सुदी पूनम तक नवपदजी की आराधना आयंबिल तप सहित की जाती है। श्रीपाल और मयणा ने यह आराधना श्रद्धापूर्वक की और श्रीसिद्धचक्र यंत्र के प्रक्षालन जल का उपयोग
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ६२ SiNeemuanarthasa ami-Cyanbhandar-dimara-sural
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