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सदा अग्रसर रहता था ।
मनुष्य का जीवन स्वच्छ, सुंदर और पाप की गन्दगी से रहित हो, तो वह आर्त और रौद्र ध्यान से सहज ही छुटकारा पा सकता है और धर्म ध्यान का आलंबन लेकर शुक्ल ध्यान की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है। राजा सुरश्रेष्ठ भी धर्म मार्ग में अपने लक्ष्य की ओर गतिशील था ।
एक बार नन्दन ऋषि उस नगर में अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे और वहाँ के उद्यान में ठहर गये । उद्यान पालक ने राजप्रासाद में जाकर राजा को बधाई दी और नन्दन ऋषि के आगमन का सन्देश दिया । सन्देश पाकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और हर्षातिरेक में उसने अपने शरीर के अलंकार उस उद्यान पालक को भेट स्वरूप प्रदान किये ।
राजा ने पूरा नगर सुशोभित किया, हाट-बाजारों में ध्वजा पताकाएँ लगवायी और घर-घर तोरण बंधवाये। फिर वह ठाठ-बाठ के साथ उद्यान में पहुँचा । दूर से ही मुनिराज के दर्शन से उसे परम सन्तोष हुआ । मुनिराज के ललाट पर तेज था, उनकी आँखें निर्विकार थीं।
मुनिराज के निकट पहुँच कर राजा ने उन्हें भक्तिभाव पूर्वक वन्दन किया और सुखशाता पृच्छा की। मुनिराज ने आशीर्वाद के रूप में राजा को धर्म लाभ दिया । सचमुच इस संसार में धर्मलाभ ही तो सारभूत है। धर्म से ही इहलोक और परलोक में भी सुख, शांति तथा समाधि की प्राप्ति होती है। धर्म के ज्ञान से ही जीव और अजीव का भेद मालूम होता है और जीवों को अभयदान दिया जा सकता है ।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १० Shree Sudharmaswami-Gyanbhandar-Umara, Surat
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