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________________ प्रभु का पूर्वभव जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में भरत नामक विजय में चंपानगरी बसी हुई थी। वह अपनी विशालता, रमणीयता और दर्शनीयता में देवलोक अमरावती (इन्द्रपुरी) से किसी प्रकार कम नहीं थी। वहाँ का राजा सुरश्रेष्ठ यथा नाम तथा गुण था। वह सुरश्रेष्ठ अर्थात् देवेन्द्र के समान वैभवसंपन्न था। राजा सुरश्रेष्ठ, दानवीर, रणवीर, धर्मवीर और सदाचार संपन्न था। उनके महल से कोई भी याचक खाली नहीं जाता था। रणभूमि में वह कभी पीठ नहीं दिखाता था। युद्ध के समय उसकी तलवार यमराज की जीभ के समान लपलपाती थी। अन्यायी और दुराचारी राजा उसके आगे थरथर कांपते थे। मनुष्यता को अलंकृत करनेवाले आचारधर्म का वह स्वयं तो पालन करता ही था, पर प्रजा से भी उसका पालन करवाता था। वह धर्म के सत्य स्वरूप से पूरी तरह परिचित था, उसका वचन सापेक्ष होता था और वह धर्म की आराधना श्रध्दापूर्वक किया करता था। ऐसे गुणसंपन्न राजा का आदेश भला कौन नहीं मानेगा? उसके प्रजाजन उत्साहपूर्वक उसके आदेश का पालन करते थे। जुआ, मांस भक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, परस्त्री गमन, शिकार, चोरी आदि सप्त व्यसनों से प्रजा मुक्त थी। महाव्रती मुनिजनों एवं तपस्वी गुणीजनों का वहाँ सत्कार होता था। राजा के शास्त्रज्ञान की मुनिजन भी प्रशंसा करते थे। गृहस्थ होते हुए भी धर्मप्रिय राजा आराधना के मार्ग में बड़ा उत्साही था। राज्य संचालन कुशलतापूर्वक करते हुये भी वह धार्मिक अनुष्ठानों में त स्वामी चरित dhamaswamidyaribhandar-Umarasurat-------wowowsumeragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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