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________________ प्रतिमा जिनालय में प्रतिष्ठित करता है; वह सर्वोत्कृष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है और अन्त में संसार भ्रमण से मुक्त होता है। जैसे गृहस्थ को अपना जीवन मापन करने के लिए अर्थार्जनादि का आलंबन आवश्यक है; वैसेही आत्मोन्नति के लिए अरिहंत परमात्मा का अलंबन अत्यंत आवश्यक है। गृहस्थ चाहे जितना तप करे या धर्म की आराधना करे, फिर भी वह पाँचवे गुणस्थानक से आगे नहीं बढ़ सकता। इस पाँचवे गुणस्थानक में ऐसे अनेक अशुभ निमित्त आगे आते है; जिनसे आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान हो सकता है; ऐसी स्थिती में जिन प्रतिमा के आलंबन का निषेध करना और प्रभू प्रतिमा को निरूपयोगी बताना सर्वथा अनुचित है। यह एकप्रकार का अज्ञान है, नादानी है। गृहस्थ सवा वीसा अर्थात बीस में से सवा भाग दया का पालन ही कर सकता है। वह पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु तथा वनस्पति का उपयोग छोड़ नहीं सकता। गृहस्थाश्रम का स्वीकार करना, विषय भोगों का सेवन करना, बाल-बच्चों को जन्म देना, उनका विवाहादि करना, अनाज आदि का व्यापार करना, कोयले, बगिचे आदि का ठेका लेना, साहूकारी करना, अपने परिवार जनोंको स्नानादि के लिये आदेश देना, पुष्पमालाओं का उपयोग करना आदि कामों में गृहस्थ को पाप दिखता नहीं है; फिर शुभ संस्कारों को बढ़ाने वाले परमात्मा की मूर्ति के अभिषेक, पूजन, सत्कार आदि में पाप का विचार क्यों? परमात्मा की प्रतिमा की पूजा यतनापूर्वक और उपयोग पूर्वक करनी चाहिये। यही सर्वश्रेष्ठ और उपादेय मार्ग है। परमात्मा के प्रवचन से उस अश्व को बहुत खुशी हुयी वह श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३५ Shree Sud armaswami Gyanbhatidar Umara Sura www.umaragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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