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भिक्तिभाव से प्रणाम किया और वह उस तापस के आगे झुक गया।
तापस ने सेठ की पीठपर थाली रखी और वह खीर खाने लगा। गरम खीर के कारण सेठ की पीठ जलने लगी; पर सेठ ने सब: ।। दुःख समभाव से सहन किया। तापस भोजन करते करते सेठ की नाक ऊंगली से घिसने लगा और कहने लगा - 'देख, तू मेरे पाँव
पड़ने नहीं आया; इसलिये मै तेरी नाक काट रहा हूँ और तुझे नमन में करता हूँ।'
सेठ ने अपमान और वेदना को समता भावपूर्वक सहन किया। तापस का भोजन पूरा हुआ और वह अपने आश्रम में चला गया। सेठ की पीठ से वह थाली अधिक उष्णता के कारण चिपक गयी थी। बड़ी मुश्किल से वह थाली अलग की गई।
अब सेठ ने सोचा कि यदि मैने पहले ही दीक्षा ग्रहण कर ली होती तो आज यह अपमान सहन न करना पड़ता। यह सोचकर सेठ ने वैराग्य भाव से एक हजार आराधकों के साथ श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के पास चारित्र ग्रहण किया और द्वादशांगी का अध्ययन किया। बारह वर्षतक चारित्र पालन करके कार्तिक मुनि ने देहत्याग किया और वे देवलोक में उत्पन्न हुए। वे देवों के इन्द्र सौधर्मेन्द्र बने।
गैरिक तापस भी अज्ञान तप करता हुआ अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुआ और मृत्यु के पश्चात् उसी सौधर्मेन्द्र का वाहक देव
ऐरावत हाथी बना। फिर वह देव हाथी का रूप धारण करके इन्द्र के z पास आया। इन्द्र महाराज जब उस पर सवार होने लगे; तब
अवधिज्ञान से उस हाथी को यह मालूम हुआ कि यह इन्द्र पूर्वजन्म का कार्तिक सेठ है। यह जानकर वह वहाँसे दूर भागने लगा; पर
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ४७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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