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कठिन है। भोग भूमि के युगलिक अपने क्षेत्र के प्रभाव से मरणोपरान्त नरक तिर्थचादि दुर्गति में नहीं जाते; अपितु वे देवगति ही प्राप्त करते है।
पर वीरकुविन्द (दव) तो उन्हें दुर्गति में डालना चाहता था; अतः उसने उन दोनों को कर्मभूमि के किसी प्रदेश का राजा-रानी बनाने का निश्चय किया। उसे यह मालूम था कि राज्य प्राप्ति के पश्चात् विषय-मोग और मांस मदिरादि के सेवन में लुब्य हो जायेंगे। परिणाम स्वरूप मरणोपरान्त ये नरक गति को प्राप्त होंगे। कहा भी है-राजेश्वरी सो नरकेश्वरी।
जीवन के किसी भी भाग में बोये गये बैर के बीज द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के अनुसार जब अकुंरित होते हैं, अर्थात् फलदान के ? योग्य बनते हैं। तब बदला लेने वाला जीव चाहे देवलोक में हो; फिर भी वह बदला लेने के लिये तत्पर होजाता है। पूर्वजन्म का वैरानुबंध तीव्रातितीव्र होने के कारण तपादिद्वारा प्राप्त देवलोक के अत्युत्तम पौद्गलिक सुखोंको छोडकर भी वह वैर का बदला लेने के लिये प्रयत्नशील रहता है। इससे यह बात अच्छी तरह मालूम हो जाती है कि, नाशवंत पदार्थों को लेकर किया गया राग-द्वेष कितनी जबरदस्त ताकत वाला होता है।
वीरकुविन्द देव ने अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात किया कि भरत क्षेत्र में स्थित चंपापुरी का राजा चन्द्रकीर्ति मृत्यू को प्राप्त हो : गया है और उसके कोई पुत्र न होने के कारण उसका राज्य लावारिस ' हो गया है। यह ज्ञात होते ही वह उन युगलिकों को राज्य प्रलोभन देकर अपनी देवशक्ति से चंपापुरी ले आया और उन्हें गांव के बाहर एक सम्मान में छोड दिया। उनमे से पुरुष का नाम हरि था और स्त्री
श्रीमानसबत स्वामी चरित ६ Shree Sudhartaswami Gvanbhandar-mara. Surat
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