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________________ अपने कुलधर्म के अनुसार चलता था। फिर भी उसे मदिरा पान, मांस भक्षण, पशुबलि आदि असत्कर्म अच्छे नहीं लगते थे; इसलिए वह एक सन्मित्र की तलाश में था। वह हिंसा, दुराचार तथा भोगलालसा के पाप से छुटकारा पाना चाहता था। संयोग से जिनधर्म के साथ एक दिन उसकी मुलाकात हो गयी और दोनों में मित्रता हो गयी। धीरे धीरे उनकी मित्रता बढ़ती गयी। सुसंगति का परिणाम यह हुआ कि उसे हिंसादि पापों से नफरत होने लगी और वह अपने मित्र के साथ जिनमन्दिर, उपाश्रय आदि में जाने लगा। इस प्रकार वह देव दर्शन, गुरुदर्शन, व्याख्यान श्रवण आदि का लाभ लेने लगा। एक दिन उसने व्याख्यान में सुना कि जिनमंदिर निर्माण करनेवाले को और जिनबिंब की प्रतिष्ठा करनेवाले को अपार पुण्यलाभ होता है। भगवान की प्रतिमा प्रमादी जीवों को वीतरागता का पाठ पढ़ाती है और उन्हें मुक्तिमार्ग में आगे बढ़ाती है। जिन प्रतिमा आत्मोन्नति के लिए पुष्ट आलंबन है; अतः भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करनेवाला अल्पसंसारी होता है। सागरदत्त सेठ को ये सब बातें बड़ी अच्छी लगीं। उसने जिनधर्म की सलाह के अनुसार एक जिनमंदिर बनवाया और उसमें प्रभुप्रतिमा प्रतिष्ठित की। अपने इस पुण्यकार्य से वह बहुत प्रसन्न हुआ। इसके पूर्व में सागरदत्त सेठ ने एक शिवमंदिर बनवाया था। उस मंदिर की देखभाल एक महंत और उसके शिष्य करते थे। एक पुजारी वहाँ पूजा पाठ किया करता था। एक बार उस महन्त ने शिवमंदिर में एक यज्ञ का आयोजन श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३७ Shree Sudharmaswami..Gyanbhandar-Umara, Surat -...-.--.--Maww.umaragyanbhandar.com
SR No.034967
Book TitleMunisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherRushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
Publication Year1989
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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