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महावीर (निवन्यमाला)
( श्री अखिल भारतवर्षीय पौरवाल महासम्मेलन का मुख पत्र )
नांदिया निवासी पौरवाल वंशीय धनाशाह का बनाया हुआ कपुर का जैन मन्दिर
वर्ष १ ] अगस्त से दिसम्बर सन् १६३४ ई० [ अङ्क ५-६-७-८-६
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सम्पादकगणताराचन्द्र डोसी, सिरोही मीमाशङ्कर शा वकील, सिरोही अखबदास जैन, शिवगञ्ज
प्रकाशकसमर्थमल रतनचदन्जी सिंघी महामंत्री-श्री अखिल भारतवर्षीय पौरवाल महा सम्मेलन
सिरोही (राजपूताना).
इसी छूटक अङ्क का मूल्य ॥) बार्षिक मूल्य मय पोष्टेज रु० ११)
मुद्रकके. हमीरमल लूणिया, दि डायमण्ड जुबिली प्रेस, अजमेर.
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महावीर
(निबन्धमाला) निज देश हित करना सदा, यह एक ही सुविचार हो। प्रचार हो सद् धर्म का, प्राचार पूर्वाचार हो॥
वर्षे १
वीर सं० २४५६, भाद्रपद,माश्विन, कार्तिक,|| अङ्क ५, ६,
मँगसर, पौष सं० १९१० विक्रमी ॥ ७,८वह
ज्ञाति के प्रति दो शब्द (लेखक-शिवनारायणजी पौ० यशलहा, इन्दौर)
हा, क्या करें कैसे रहें, अब तो रहा जाता नहीं ।
- कैसे सहें किस से कहें, कुछ भी कहा जाता नहीं ॥१॥ हा, देव इस दुख सिन्धु में, कहां तक बहाओगे हमें।
- इस रक्त शोषक फूट से, कब तक छुड़ाओगे हमें ॥२॥ कुछ काल पहले आपने, क्या भाव थे हम में भरे।। - हित जाति के सर्वस्व भी, देते रहे पर नहिं डरे ॥ ३ ॥ क्या आज भी हम हैं वही, प्राग्वाट हमारी ज्ञाति है।
. कुछ काल से पहले जिन्होंने, पाइ जग में ख्याति है ॥ ४ ॥ था दण्ड नायक वीर योद्धा, विमल जिसका नाम था।
. धर्मी बर्ती होते हुए भी, युद्ध में अविराम था ॥५॥
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धना व महिषा साह भी, इस ज्ञाति ही के लाल थे।
चूंडा व झगडू और पेथड़, मुखाल ज्ञाति मराल थे ॥ ६ ॥ कवि दानियों में श्रेष्ठ, वस्तूपाल का भी नाम था।
वीरान और प्रचण्ड भ्राता, तेजपाल सुज्ञान था ॥ ७॥ समरान योद्धा थे कोई, तो "विमल" "वस्तूपाल" थे ।
उद्दण्ड और प्रचण्ड शत्रु, के युगल ही काल थे ॥ ८॥ प्रासाद "जिन" के आज भी, देते गवाही हैं यही ।
दानी भी नामी थे ये दोनों, द्रव्य था कमती नहीं ॥६॥ एक वक्त भारतवर्ष में, दुर्भिक्ष भारी था पड़ा।
"देहराणिया खेमा" अटल हो, अन्न देने जा अडा ॥१०॥ आखिर नतीजा यह रहा, चकरा गया बस शाह भी।
चट कह दिया है शाह बणिया, निकली न वाह वाह वाह भी ॥११॥ हा देव, उस ही ज्ञाति की, यह क्या दशा अब हो गई।
सिर मौर जो सब जगत में थी, क्षुद्र होकर सो गई ॥१२॥ ऐसे सुभट योद्धा व दानी, हो गये इस ज्ञाति में।
"पुर्वाह" की संतान हो तुम, चूकते क्यों ख्याति में ॥१३॥ आचार्यों में श्रेष्ठ थे, " पूज्यपाद " संज्ञा थी वरी।
इनके चरण की सेव मिलकर, देवगण ने थी करी ॥१४॥ पद्मावती का कर्ण सिंह, एक जाति प्रेमी था सही ।
चौरासिएं कर कई दफा, कीर्ति अटल उसने वही ॥१५॥ जावड़ हुवा है एक सौ दो, विक्रमी के साल में ।
तेरहवां शत्रुजय किया, उद्धार रक्खो ख्याल में ॥१६॥ भावड़ पिता जावड़ का था, श्री नृपति विक्रम राजने ।
दी थी "मधूमति नगरि उसको, भेंट खुश हो काज में ॥१७॥ वाग्भट्ट का लंकार देखो, आम्र भट्ट कहा सही।
. इस जाति के कवि थे बड़े, प्राग्वाट संज्ञा थी : लही ॥१८॥
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पित्तल मई जिन बिम्ब बन वाए, वह भामा शाह था।
स्वर्गीय हुआ अति नाम पा, जिन धर्मरत आगाह था ॥१६॥ इतिहास का अज्ञान यह, सब अनिष्टों की खान है।
इतिहास ज्ञान बिना न होता, ज्ञाति क्षेत्र महान है ॥२०॥ दस बीस और चौबीस, अट्ठाईस को अब छोड़ दो।
हम ऊँच हैं वे नीच हैं, इस ख्याल को अब तोड़ दो ॥२१॥ अब कह रहा तुम से जमाना, चेत कर चलना सही।
कर संगठन लो जाति का, नहिं जान अब तुम में रही ॥२२॥ हे दयानिधि, विनती यही, सद् बुद्धि का संचार हो ।
हैं प्राग्वाट समान सब ही, सम्मिलन परचार हो ॥२२॥
पौरवाल-पौरवाड़
सम्पादकीय विभाग पौरवाड़-यह प्राग्वद ज्ञाति का अपभ्रंश शब्द है। प्राग्वट् ज्ञाति का मूल स्थान-प्राग्वट्पूर जो गंगा नदी के किनारे पर एक प्राचीन नगर था। वाल्मीक, रामायण में इस नगर का उल्लेख मिलता है। जब से प्राग्वट्पूर के वासी राजपुताने में आये तब से वे प्राग्वट कहलाने लगे। उनके साथ २ ब्राह्मण भी'राजपुताने में भा बसे। जब पद्मावती नगरी में स्वयंप्रमशरी ने जिन राजपूतों को उपदेश द्वारा जैनी बनाये उस समय उनके साथ आये हुए ब्राह्मणों ने भी मरीजों को मर्ज की कि हे प्रभु! हमने जैन धर्म अंगीकार किया प्रतएव हमारा नाम भी चिसस्थाई हो ऐसा प्रबन्ध करावें । इस पर सूरीजी ने प्राग्वद वंश की स्थापना की। उसका अपभ्रंश शब्द पौरवाई अथवा पोरवाल हुआ। इनकी कुलदेवी अखीका है जिसने प्रसन्न होकर पौरवाड़ों को सात दुर्ग दिये और इसी कारका उनमें बात गुण प्रकट हुए। विमल चरित्र में कहा है- ..
सप्तदुर्ग प्रदानेन गुण सप्तक रीषणात् । पुट सप्तक वंतोऽपि प्रागवट ज्ञाति विश्रुता ।।
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श्रद्यं प्रतिज्ञा निर्वाही, द्वितीयं प्रकृतिः स्थिराः । तृतीयं प्रौढ वचनं चतुः प्रज्ञा प्रकर्षवान् ॥ पंचमं प्रपंचज्ञ, षष्टं प्रवल मानसम् । सप्तम् प्रभुताकांक्षी, प्राग्वठे पुर सप्तकम् ||
सात गुण इस प्रकार हुए
( १ ) प्रतिज्ञा को दृढ़ता पूर्वक पालना । ( २ ) धैर्यता और शान्त चित से कार्य करना । (३) प्रौढ़ वचन - गांमीर्य, प्रिय और यथेष्ट वचन कहना | ( ४ ) बुद्धिमता - दीर्घदर्शिता ।
(५) प्रपंचज्ञ - साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति में कुशलता । (६) मन की मजबूती रखकर वीरता दिखाना । (७) प्रभुताकांक्षी - महत्व के कार्य कर प्रभुता प्राप्त करना |
जिन सात गुणों का बरदान अम्बिका ने दिया और उनकी ज्ञाति के वीरों को उसी प्रकार निभाया जिससे उनकी कीर्ति संसार में हो गई अतएव ज्ञाति का गौरव बढ़ाने वाले सज्जनों में से कुछ मनुष्यों का उल्लेख नीचे करते हैं
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दूसरी सदी में जावड़शा और भावड़शा हुए जिन्होंने शेत्रुंजय का जीर्णोद्वार कराया ।
आठवी सदी में वीर नीना और लेहरी हुए । जो पाटणाधीश वनराज चावड़ा के महामात्य सेनाधिपति रहे। इन्हीं के कुटुम्बी वीर विमलशाह, ग्यारवी सदी में महा शूरवीर दानेश्वरी हुए। जिनकी उदारता के नमूने और संसार आश्रय में से एक आबू का विमलवसहि नामक मन्दिर आज तक मौजूद है ।
विमलशाह की वीरता जगत् प्रसिद्ध है इनके भय से अठारा सौ ग्राम का नाथ धाराधिप राजा भोज भाग गया और उसने सिन्ध का शरणा लिया । शाकंभरी मरुस्थल, मेवाड़, जालौरादि के सब राजाओं को जीत कर एक छात्रपति राजा का यश प्राप्त किया । शमनगर के बारह सुलतानों पर हमला किया और उनको पराजय कर सबको अपने आधीन बनाए। यहां तक कि देवताओं को भी अपने बाहुबल से वश किया ।
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आबू पर जिस समय विमलवसहि का निरमाण हो रहा था। तब वहां का अधिष्टायक देव दिन का बना हुआ काम रात्री को गिरा देता था। तब विमलशाह एक रात को स्वयं पहरे पर बैठा कि गिगने वाले को पकहूं । देव के
आते ही उसने ललकार बताकर एकदम उसको पकड़ा तब उसने मांस का बली मांगा तब विमलशाह अपनी कमर से तलवार निकाल कर मारने लगा। तब वह कॉप कर भाग निकला। फिर उसके भय के मारे उपद्रव करना बन्द कर दिया। विमलशाह की वीरता के बारे में एक कवी ने कहा है
"रणि राउलि शूरा सदा देवी अम्बावी प्रमाण ।
पौरवाड़ परगटमल मरणेन मुके मांण" ॥ इसी प्रकार १३ वीं सदी में वीर नर वस्तुपाल तेजपाल हुए हैं जिनकी वीरवा, परोपकारता, उदारता, रूप कीर्ति जगत् में विख्यात है। इन वीरों ने भनेक संग्राम में सब तरह से विजय प्राप्त की।
इनकी उदारता का थोड़ा सा नमूना यहां पर दिया जाता है५५०४ जिन मन्दिर बनवाये । २०३०० पूराने मन्दिरों का जिर्णोद्धार कराया । १२५००० नये जिनबिम्ब बनवाये जिसमें १८ कोड़ खर्च किये ।
३ ज्ञानभंडार स्थापित किये। ७०० दांत के सिंहासन बनवाये । ६८८ पौषधशालाएँ बनवाई। ,५०५ समोसरण के चन्दरवे बनवाये । २५०० घर मन्दिर बनवाये । २५०० काष्ट रथ बनवाये ।
२४ दांत के रथ बनवाये ।
१८ क्रोड़ पुस्तकें लिखवाई। - ७०० ब्राह्मणों के लिये मकान बनवाये । . ७०० दानशालाएँ बनवाई। ३००४ विष्णु भादि के हिन्दु मन्दिर बनवाये ।
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७०० तापसों के लिये आश्रम बनवाये । ६४ मसजिदें बनवाई। ८४ सरोवर के घाट बनवाये। ४८४ तालाब बनवाये। ४६४ बावड़िएँ रास्तों में बनवाई। ४००० विश्रामस्थान बनवाये । ७०० कुए बनवाये।
३६ किले बनवाये । ५०० ब्राह्मणों को रोज भोजन दिया जाता था। १००० तापसों को रोज भोजन दिया जाता था। ५००० सन्यासियों को रोज भोजन दिया जाता था ।
२१ जैन आचार्यों का महोत्सव पूर्ण पदार्पण कराया । ५० कोड़ मोहरें आबू गिरनार, शत्रुजय पर खर्च कर मंदिर बनवाये आदि।
पंच अर्ब जिन खर्व दीध-दुर्बल आधारा । पंच अर्ब जिन खर्व कीध जिन जिमणदारा ॥ सतानवे कोड़ दीध पौरवाल कबहु न नटे । पुरियत पच्यासी कोड़ फूल तांबोली हटे ।। चंदण सुचीर कपुरमसी क्रोड़ बहत्तर कपड़ा।
देता ज दान वस्तुपाल तेजपाल करतब बड़ा । वस्तुपाल तेजपाल को नीचे माफिक विरुद ( टाइटल मिले थे।) (१) प्राग्वट ज्ञाति अलंकार (8) बुद्धि अभयकुमार
(२) सरस्वती कण्ठाभरण (१०) रुचि कंदर्प , (३) सचीव चूड़ामणि
(११) चातुर चाण्यका (४) कुर्चाल सरस्वती
(१२) ज्ञाति वरह ( ५ ) धमपुत्र
(१३) ज्ञाति गोपाल (६) लघु भोजराज
(१४) सइयद वंश क्षय काल (७) खंडेरा
(१५) सारपलारायमान मर्दन (८) दातार चक्रवती
(१६) मज्जजैन
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-७ )
(१७) गम्भीर
(२१) उत्तम जन माननीय .(१८) धीर
(२२) सर्व ज्ञान श्लापनय (१६) उदार
(२३) शान्त (२०) निर्विकार
( २४ ) ऋषि पुत्र परनारी सहोदर . धनाशाह नांदिया निवासी ने राणकपूर का मन्दिर बनवाया।
पुराणे गोत्र- चौधरी, काला, धनगर, रत्नावत, धनौत, माजारत, डंबकरा, भादलिया. कमलिया. शेठिया, उदीया भभेड़, भृता फरकया, मलवरीया मंडीपरीया, मुतिया, घाटिया. गलिया भैसोत, नवेपरथा. दानधरा मेहता खरडिया
स्वयंप्रभसूरी ने पद्मावती में जो पौरवाड़ बनाये उस में के शुद्ध बीसा पोरवाल पपद्यावती पौरवाड़ कहलाते हैं ।
हरीभद्रसूरी ने उन में नीचे माफिक जैन बना कर शामिल किये(१) जाङ्गड़ा (२) सोरठिया ( ३ ) कपोल कराते हैं।
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विवाह संस्था समाजरूपी मकान की बनावट विवाह संस्था पर निर्भर है अतएव किसी भी समाजहितेषी का ध्यान उस ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है। समाज को जीवित रखने के लिये विवाह संस्था में सुधार करने की सख्त आवश्यका
अधिक संख्या में दिन ब दिन बाल विधवाओं का होना ही विवाह संस्था की खराब स्थिति का मर्मवेधक प्रमाण हैं "बेचारी के तकदीर में विधवा होना लिखा था वह कैसे मिट सकता है ?" इस तरह के उद्गार निकालनेवाले भोले मनुष्य अकान्त भाविभाव वाद के पंजे में फँस जाते हैं और एकान्त दर्शन की विराधना करते हैं उनको चाहिये कि वे अपने अंदर की अयोग्यता की भोर ध्यान दें उपयोग बिना प्रमाद से चलन से जीव मर जाते हैं तो भी उसका पाप लगता है अतएव ध्यानपूर्वक-उपयोग पूर्वक हरएक प्रवृति का जिसतरह फरमान है उसी माफिक विवाह समारंम भी ध्यान पूर्वक होना जरूरी है । यदि अचित परीक्षा पूर्वक विवाह समारंभ हो तो विधवाओं की भयंकर संख्या न हो हम
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की जैसे जन्तु को बचाने के लिये उपयोग पूर्वक चलते हैं तो फिर एक पंचेन्द्रिय, मनुष्यजाति की कन्या बाल वैधव्य या तरुण-वैधव्यरूप भीषण अजगर के मुंह में न जाय इसके लिये क्या विवाह क्रिया में होशियारी न रखनी वाहिये ? नवयुवति के नवीन वेग में आनेवाला वैधव्य नारिजाति के लिये दारुण वज्रपात है । जिस क्रिया में इस तरह का भय पूर्ण प्रश्न है, जीने मरने का विचित्र प्रश्न है, वह क्रिया, वह विवाह क्रिया उचित परीक्षा बिना जो की जाती है वह समाज के लिये बहुत घातकरुप है।
. आर्य मनुष्यों में दया का रुख स्वाभाविक ही होता है फिर उसमें अपनी संतति के प्रति वात्सल्य भाव का तो पूछना ही क्या है ? तो भी जब समाज का बंधारण व्यवस्थित नहीं होता है तब उनको अपनी प्रिय कन्या बांझारुप हो जाती है और किसी तरह उसको किसी को देकर उस उपाधि के कष्ट में से छूटने की संताप पूर्ण चिन्ता खड़ा होती है फिर उसका परिणाम यह आता है कि अपनी प्रिय कन्या की विवाहक्रिया के लिये परीक्षा न करते जैसे तैसे के साथ उसका विवाह कर दिया जाता है। अक्सर मा बाप पैसेवालों के यहां कन्या देने की धुन में रहते हैं कि वे अपनी प्यारी कन्या के हित का विचार करने को एक दम भूल जाते हैं अथवा पैसा प्राप्त करने के लोम में वे अपनी प्रिय कन्या का हित देखने में जानते हुए आँख के आगे कान खड़ा करते हैं
और इससे भी आगे बढ़ने वाले मनुष्य कौन से कम हैं कि जो चौड़े बाजार में कन्याओं की दुकान खोल कर बैठे हैं। - इस तरह के अज्ञान और लोभ के बादल जहाँ घिरे हुये हैं वहाँ विवाह प्रवृति योग्य तौर पर कैसे हो? इस का परिणाम अधिक संख्या में विधवा न हो तो दूसरा क्या हो सकता है ? - प्रथम तो छोटी उम्र में विवाह करना गैरवाजबी है । चौदह वर्ष की उम्र से पहिले कन्या का विवाह न होना चाहिये । इतनी उम्र तक उसको सुशिक्षा और सदाचरण में प्रवीण करना चाहिये और इस समय के बाद वह विवाह ग्रन्थी की अधिकारिणी बनती है। उपरोक्त उम्र के बाद योग्य पात्र मिलने पर उसका सौभाग्य खिल उठेगा। कदापि वह योग (योग्य पात्र ) समय पर न मिले तो उसको अयोग्य के साथ नहीं जोड़ना चाहिये । कारण कि उसने अपने शिवा
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पाठ में यह सीखा होगा कि अविवाहित रहना श्रेष्ठ है बनिपत के अयोग्य के साथ पाणिग्रहण करना वह सुशिक्षा और सदाचरण के सुसंस्कार के प्रभाव से मर्यादा में रहकर कुमारी - जीवन व्यतीत करना पसंद करेगी परन्तु अयोग्य विवाह में फँसना वह कभी नहीं पसन्द करेगी ।
"न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ।" *
अर्थात् - 'रत्न दूसरे को ढूंढने नहीं जाता है परन्तु दूसरे रत्न को ढूंढने निकलते हैं ।'
धीरज और शुद्ध आत्मभाव के फल मीठे होते हैं और सच्चारित्र का प्रभाव प्रकाश डाले बिना नहीं रहेगा परन्तु शीघ्रतापूर्वक अयोग्य विवाह संस्कार कर देना महा अनुचित है ।
विवाह संस्कार की योग्यता में मुख्यतः चार बातें देखने की हैं उम्र, तदुहस्ती, सदाचरण और जीवन निर्वाह के योग्य आवक । ये चारों बातें जिसमें हो वह योग्य पात्र गिना जाता है चाहे वह पैसे वाला न हो परन्तु जीवन निर्वाह के योग्य कमाने वाला हो तो इसमें किसी तरह की हरकत नहीं है । सारांश यह है कि उम्र का खयाल, तन्दुरुस्ती और सदाचरण ये तीनों बातें बहुत जरूरी हैं यदि इन तीनों में एक भी बात की कमी है तो वह धन के ढेरों से भी विवाह योग्य नहीं हो सकता जब कि दरिद्री नहीं परन्तु साधारण स्थिति वाला ( निर्वाह योग्य कमाने वाला ) मनुष्य भी इन त्रिगुण शक्ति की वजह से विवाह करने के योग्य है।
रहस्य का विचार करते मालूम होगा कि नारी का मुख्य श्राराध्य पद शक्तिबल है उसमें यदि लक्ष्मी का सुयोग मिल जाय, तो फिर सोना में सुगन्ध ही हो जाती है. कन्या के मां-बाप सगे सम्बंधियों को यह तत्व समझ लेना चाहिये ताकि वे समझ सकें कि उनकी स्वयम् प्यारी कन्या का आनन्दाश्रम सिर्फ लक्ष्मी मन्दिर में ही नहीं है किन्तु वह शक्ति मन्दिर है और इस तरह की नारी जाति की नैसर्गिक भावना की तरफ मनन करते वे अपनी कन्या के लिये पैसे वाले घर की तरफ नजर न करें परन्तु सगुण शक्ति को ढूंढना पसन्द करें और
* महाकवि कालीदास के कुम्भर सम्भव में 'पार्वती' प्रति ब्रह्मचारी नेपच्छन महादेव की
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इस तरह से अपनी पुत्री को सुख के रास्ते पर रखना ही उनका स्वाभाविक और प्रावश्यक कर्तव्य है। इस कर्तव्य के पालन में वे जितनी कमी रखते हैं उतने ही अंश में वे अपनी कन्या के विरोधक होते हैं। __एक वृद्ध अमीर ने एक बाला के साथ लग्न किया और उसको बड़े भालीशान महल में लक्ष्मी की अर्पूव सौन्दर्य धारा से सजे हुए कमरे में स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान की। उसके आगे भारी २ जवाहिरात. हीरा, मोती माणक आदि रत्न-और अपनी विविध एश्वर्य-लक्ष्मी के निर्देश से उसको रिझाने लगा। तब वह कन्या हिम्मत पूर्वक कहने लगी कि "मैं जानती हूं कि तुम्हारे पास समुद्र समान लक्ष्मी है तो भी मैं स्पष्ट शब्दों में कहनी हूं कि एक साधारण कुटि में जिसकी जंघा में गोली लगी हो ऐसे युवक के वक्षःस्थल पर सिर टिका कर पड़ी रहने में मुझे जो प्रसन्नता दिखती है उसके बजाय इस लक्ष्मी के मंदिर में मुझे साफ अकाल दिखता है ।
क्या यह वृद्ध विवाह या अनमेल विवाह के लिये कम फटकार है ? उम्र के मेल बिना का विवाह ही अनमेल विवाह कहा जाता है। यह विवाह शरीरलम जरूर कहा जा सकता है, परन्तु हृदयलग्न अथवा प्रेमलग्न तो कभी भी नहीं कहा जा सकता। और जहां पर हृदय लग्न नहीं है वहां पर उसका नतीजा क्या भाता है यह बात हम सब अच्छी तरह से जानते हैं। .. . ,
उम्र का अन्तर वर्तमान समय को देखते कम से कम पांच से छ वर्ष का होना हितावह है। चौदह वर्ष की कन्या के साथ १६-२० वर्ष के हृष्टपुष्ट सचरित्र युवक का विवाह ठीक गिना जा सकता है। पांच वर्ष से लेकर दश वर्ष का अन्तर अघटित नहीं है परन्तु इससे अधिक अन्तर का विवाह ही अनमेल विवाह गिना जाता है । वृद्धविवाह यह तो अनमेल विवाह की पराकाष्ठा है। बीस वर्ष से अधिक अन्तर वाला विवाह ही वृद्धविवाह है। "; उम्र से वृद्ध होने पर भी जिनकी कामतृष्णा शान्त नहीं होती है और जो ऊँट के माफिक अपनी गरदन पर बकरी या बिल्ली लटकाने का नीच कृत्य करने लग जाते हैं, वे खास कर विवाह के बहाने एक बालिका को जलती हुई भट्टी में पटक देते हैं। धन की थैली के लोभ में अन्धे बन कर बड़े दुलार से पाली दुई प्रनी प्यारी पुत्री को बुड्ढ़े को बेचने वाले मांबाप कसाई के हाथ
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गाय को बेचने वाले नराधमों से भी अधिक क्रूर हैं। ऐसे जिन्दे मांस को बेचने वाले पापी मांबाप को देखकर मुर्दे मांस को बेचने वाले कसाई भी थर २ कांप उठते हैं । परन्तु मुझे ऐसे मांस को बेचने वाले नराधम मांचापों से भी जीते मांस को खरीदने वाले बुड्ढे अधिक चंडाल मालूम होते हैं । ये काफिर बुड्ढ़े लक्ष्मी की थैलिये सामने घर कर बालिका के मांबापों को बालिका का जिन्दा मांस बेचने को ललचाते हैं और फिर ये अधम नीच प्रकृति हृदयशून्य मांबाप उन हरामखोर बुड्ढ़ों के राक्षसीय प्रलोभन में फँस जाते हैं और अपनी जीवित युवती कन्या की छाती पर मूंग दलते हैं ।
यदि १२ या १४ वर्ष के लड़के की एक ४५, ५० वर्ष की बुड्ढी के साथ शादी की जाय, तो उस लड़के को कितना त्रास मालूम होगा । इसी तरह १२ या १४ वर्ष की कन्या को ४५ या ५० वर्ष की अवस्थावाले के साथ विवाहग्रन्थी में गुंथने से क्या उस कन्या के हृदय में दुःख का दावानल नहीं प्रगट होगा ? तो भी उसकी परवाह किये बिना कन्या को बेचने वाला और लेने वाला भयङ्कर पापगठरी उठाने के साथ २ समाज और धर्म का जितना द्रोह करता है उससे भी अधिक द्रोह वे मनुष्य करते हैं कि जो ऐसे पैशाचिक विवाह में शामिल होते हैं और इस तरह से यह आसुरी तोफान से समाज में खराबी फैलाने की उत्तेजना करते हैं चाहे वे न्यात के अग्रेसर क्यों न हो ? या सेठ क्यों न हो ? या दूसरे कोई भी हो ? परन्तु ये सब खरीद करने वाले और बेचने वाले चंडालों से भी अधिक क्रूर चंडाल हैं । यदि वे इस भयङ्कर कन्याबलि में शामिल न हो और ऐसे पापी विवाह को निष्ठुरता से फटकार दें, तो ऐसे प्रलयकारी प्रसङ्ग अपने आप बंद हो जाँय ।
जैसे जहां मांसभक्षण करने वाला पशु को मारने नहीं जाता है तो भी वह पशु घातकों में गिना गया है इतना ही नहीं बल्कि हेमचन्द्राचार्य के कथन अनुसार मक्षक ही हत्या करने वाला गिना जाता है, त्यों कन्याबलि के पैशाचिक उत्सव में शामिल होकर मिठाई खाने वाले उस कन्या के द्रोहियों में से मुख्य गिने जाते हैं ।
प्र
* "ये भक्षयन्त्यन्यपलं स्वकीय पलपुष्टये ।
तएव घातका यश वधको भक्षकं विना ॥" ( योग शास्त्र तीसरा प्रकाश )
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कसाई के यहाँ मरनेवाले जानवरों को बचाने का प्रयत्न किया जाता है। जबकि कन्याबलि के प्रसङ्ग पर उस कन्या को बचाने की बात तो दूर रही, बल्कि इस भारी उत्सव में हंसते मुख शामिल होकर मिष्ट भोजन खाया जाय यह कितनी गजब की बात है ? ऐसे मनुष्यों में पशुदया के माफिक मनुष्यदया हो तो क्यों वे कन्या के होम की क्रिया में शामिल होवें ? अरे यह तो क्या ? ऐसी जगह का पानी भी खून के बराबर समझना चाहिये और कभी भी कन्या खरीदफरोक्त करने वाले दोनों के यहाँ जल ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
मानव-जीवन की उन्नति का पाया ब्रह्मचर्याश्रम में है । ब्रह्मचर्याश्रम के पालन में ही जीवन की सम्पूर्ण विभूतियों का बीज बोया जाता है । इस आश्रम में से सही सलामत पार होना ही दिव्य जीवन में दाखिल होना है। इस श्राश्रम की रक्षा में जो समर्थ निकला और सफल हुआ, तो उसने दरअसल बड़े से बड़ा किला सर किया । ब्रह्मचर्याश्रम की हद कम से कम १६ वर्ष की होनी चाहिये उतने समय तक अखंड ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्यन करना चाहिये । परन्तु वर्त्तमान समय में बालविवाह की प्रथा ने इस सनातन पद्धति को साफ २ उठा दिया है और इसी का यह परिणाम है कि आजकल के नवयुवक और बालाओं के मुख अक्सर निस्तेज और फीके दिखते हैं। कौबत, उत्साह, उल्लास उनमें से करीब २ निकल चुके हैं। जवानी की हालत में फीके चहरेवाले हतोत्साह और कम ताकत दिखते हैं । यह सब परिपक्क समय से पहिले ब्रह्मचर्य के खंडन का ही प्रभाव है । जिस उम्र में शक्ति का विकास आरंभ होता है, बाल लग्नरूपी घातकी कीड़े को अपने अंदर स्थान देने से उसका परिणाम यह माता है कि शक्ति विकास होने के बजाय शक्ति का ह्रास होने लगता है ।
प्राचीन काल के महापुरुषों की जीवनियों को देखने से स्पष्ट मालूम होता है कि वे योग्य उम्र में विवाहित होने के पहिले विद्याध्ययन के साथ ही साथ शरीर को पुष्ट बनाने और शत्रकला का भी अभ्यास करते थे । दुर्योधन, भीम और अर्जुन के बाल्यावस्था की कसरतें और उनके शस्त्र खेल इस बात की साची देते हैं । चग्म तीर्थङ्कर महावीर देव के पिता राजा सिद्धार्थ के विविध प्रकार के व्यायामों का वर्णन जो कल्पसूत्र में दिया गया है वह स्पष्ट बताता है कि प्राचीन काल के पुरुषों की दिनचयों में व्यायाम - क्रिया भी एक आवश्यक
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क्रिया गिनी जाती थी। राजकुमार हो अथवा वणिककुमार हो, हरएक को ब्रह्मचर्य और व्यायाम द्वारा शारीरिक क्रिया करने की सख्त जरूरत है। पहिली उम्र में शरीर पुष्ट हो गया तो हो गया फिर तो जगे वहाँ से ही सुबह है । बाद में राई का भाव रात को बीत गया वाली कहावत ही रह जायगी ।
शारीरिक पुष्टता ज्यों पुरुषों के लिये जरूरी है त्यों स्त्रियों के लिये भी जरूरी है। जब पूर्व काल की कुमारियों और महिलामो की शारीरिक शक्ति के वर्णन को देखते हैं, तब आजकल की कमजोर अबलाओं की दशा दरअसल दिलगिरी उत्पन्न करती है कि परिणाम यही है । जैसी भूमि है वैसा पाक होता है। जब तक माताएँ बलशालिनी नहीं हो तब तक बलवान संतान की आशा रखना व्यर्थ है।
आज की कन्या कल की माता है और राष्ट्रीय बिल्डिंग के खंभे पूरे करने की उससे आशा रक्खी जाती है, इस लिये ब्रह्मचर्य काल में कन्याओं को भी • व्यायाम और बल प्रयोग में प्रवीण करने की परम आवश्यकता है।
जिस कैकयी ने रामायण में दशरथ राजा के रथ की धरी को एकाएक टूट जाने से अपनी अंगुली को धरी की जगह रख कर अपने स्वामी नाथ को निराशा में से बाहिर निकाल दिया था, जो सीता रावण जैसे मदोन्मत्त रावस से जरा भी भयभीत नहीं हुई थी और जिस द्रौपदी ने जयद्रथ राजा को धक्का देकर नीचे गिरा दिया था, उनके पराक्रम कैसे होंगे ? ऐसी बलवती माता के पुत्र महान वीर योद्धा होते हैं इसमें जरा भी आश्चर्य ही क्या है ? गुलामी में पैदा होने वाले गुलाम ही होते हैं। बहादुर नेपोलियन का साफ २ कहना है कि वीरता का पाठ उसको उसकी माँ ने सिखाया था। इतिहास इस बात की सादी देता है किसी भी काल में किसी भी समय में जब २ महान पुरुषों द्वारा निस प्रदेश की उन्नति हुई है, उसका आदि कारण उन प्रदेशों की नारीशक्ति है। नारी-जाति को तुच्छ, अज्ञान, निर्बल और उनको एक प्रकार की मशीन समझकर अब तक उनकी जो अवगणना होती भा रही है, उसी की वजह से शक्ति माता का कोप देश पर उतर गया है और देश की दीन दशा सुधारने से नहीं सुधरती है। अभी देश की और खास कर के जहाँ पर्दे का सख्त रिवाज
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है, उन प्रान्तों की अबलाएँ इतनी हद तक अबला बन गई है कि वे स्वतंत्रता पूर्वक एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकती हैं। ___ इस बात का हमेशा खयाल रखना चाहिये कि नारी जाति में ही तीर्थकर अवतार पैदा करने की शक्ति है। नारी आत्मसत्ता में एक ऐसी विलक्षण शक्ति छिपी हुई है कि जिसका समुचित विकास होते ही उसके भाधार पर सारे राष्ट्र का उत्थान हो सकता है अर्थात् जो सुकुमार बालकों के पालने को भुलाती हैं उस में जगत् पर शासन करने की शक्ति मौजूद है । अतएव स्त्रियों का जब से सबला के बजाय अबला नाम दिया गया है तब से देश की स्थिति खराब और प्रजा अबला हो गई है किन्तु समयधर्म अब साफ २ कह रहा है कि पुराने संस्कार को बदल कर स्त्रीवर्ग को सबला बनाने का प्रयत्न करना अत्यन्त आवश्यक है। उनकी आत्मा की गुप्त शक्तियों को विकास में लाने के साधनसामग्री प्रस्तुत करने की बहुत जरुरत है। इसके लिये सबसे पहिले बाल विवाह की दुष्ट रूढ़ि को उखाड़ कर फेंक देने की परम आवश्यकता है।
बाल विवाह की होली अकेली पौरवाल जाति में ही नहीं परन्तु यह प्रायः तमाम हिन्दू कौम में सुलग रही है । यह घातक प्रथा एक राक्षस की तरह बहुत समय से देश का खून चूस रही है। देश की दुर्गति के अनेक कारणों में बालविवाह की रुढ़ि भी एक जबरदस्त कारण है। इस पापी रुढ़ि के प्रताप से देश के छोटे २ बालक-बालिकाएँ विवाहित किये जाते हैं और वे १३ वर्ष की उम्र में बालक और बालिकाओं के मातापिता हो जाते हैं उस देश के बालक किस तरह योग्य नागरिक हो सकते हैं ? जिस उम्र में शरीर का विकसित होना भी शुरु नहीं होता है, उस उम्र में विवाह का हो जाना और मांबाप बन जाना यह कितना अघटित है ? कच्ची उम्र के मांबाप से उत्पन्न होने वाली संतान भी दुर्बल और रोगी होती है। कच्ची उम्र में बने हुये मांबाप माता पिता के तरीके और अपनी जिम्मेदारियां कैसे समझ सकते हैं ? असमय में किया हुआ विवाह भाररूप में परिणत होता है और ऐसी व्याधि में पकड़े हुये स्वयम् अपने आप दुर्बलं
और रोग वाले होते हैं तो फिर उनकी संतति जो निर्माल्य पैदा होती है उसमें जरा भी शक करने की जरूरत नहीं है। बालमृत्यु की अधिकता का कारण अधिकतर कन्याओं का छोटी उम्र में माता बन जाना ही है। जिन देशों में बाल
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विवाह की प्रथा है उन देशों में बाल मृत्यु की संख्या विशेष है। भारतवर्ष में बालमृत्यु की संख्या दूसरे देशों से अधिक है और उसका प्रधान कारण बालविवाह की प्रथा ही है। - छोटी वय में बालकों के कन्धों पर विवाह का बोझा डालना ही खास कर उनके जीवन को बिगाड़ना है । कच्ची उम्र के बालकों को विषयरूपी आग में पटकना यह क्या कम अत्याचार का काम है ? छोटी उम्र में बच्चों को विवाहित करने वाले मांबाप उन बालकों के सारे जीवन पर पानी फिराने का अधम कृत्य करते हैं जिसको कि एक दुश्मन भी नहीं कर सकता। शरीर की जड़ परिपक होने के पहिले कुमार और कुमारी को विवाह के बन्धन में डालना ये ही कुदरत के सामने हमला करने के बराबर है। जरा विचार करो जब तालाब में पानी भरना शुरू होता है और उस पानी को दूसरी तरफ से निकाल दिया जाता है तो क्या तालाब में पानी भर सकेगा । योग्य उम्न होने के पहिले विवाहित तौर पर या उच्छंखल तौर पर अपने सत्व का क्षय करना ही खास कर अपने ऊपर कुठाराघात करने के बराबर है और ऐसा करने से शारीरिक श्राराम किस तरह लिया जा सकेगा ? जिन्दगी के व्यवहार में किस तरह कार्य हो सकेगा ? जिन्दगी को पायमाल बनाने की यह कैसी मूर्खता ? बल क्षय होने बाद याद रक्खो कि चाहे कितनी ही मालती, मकरध्वज या चन्द्रोदय जैसे रसायनिक पदार्थों का सेवन किया जाय, गरमागरम बादाम का हलवा उड़ाया जाय और गरम मशालादार दूध पिया जाय तो भी शरीर का नष्ट हुमा भाग फिर कभी नहीं दुरुस्त होने वाला है। जिसने अपना सत्व सम्भाल कर रखा है उसके लिये सूखी रोटी मकरध्वज समान है और जिसने अपने शरीर के सत्त्व को खो दिया है उसके लिये कितने ही पौष्टिक पदार्थ भी निरर्थक हैं । बीस वर्ष की भर जवानी में भाजकल के नवयुवक अधिकांश पीले और फीके मुँह वाले मालूम होते हैं। जिन युवकों में से देश का सैना बल खड़ा करने की प्राशा रक्खी जाती है, उन्हीं युवकों की यह दशा! शरीररूपी गने में से रस निकलते ही शरीर गन्ने के कूचा जैसा बन जाता है। शरीररूपी दही में से सत्त्वरूपी माखन निकल जाने से शरीर छास के पानी के माफिक निःसत्त्व रह जाता है। ब्रह्मचर्य की अगाध शक्ति है और वर योग्य उम्र तक सम्भालने में भावे और विवाहित होने बाद भी मर्या
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दिस तौर पर गृहस्थाश्रम का पालन किया जाय तो जिन्दगी पर्यन्त प्रानन्द ही मानन्द रहेगा इसमें किसी तरह का संशय नहीं है। "ऋतौ भार्यामुपेयात्" यह वैद्यकग्रन्थ 'भावप्रकाश' के वचन अनुमार ऋतु काल में ही पत्नी-योग करने का गृहस्थों का धर्म है अर्थात् ऋतुस्नान किये बाद बारह दिन के अन्दर ही पत्नी योग करने का विधान है। वह गर्भाधान का काल है। उन दिनों में भोगाभिलाषी को सन्तति-कामना से प्रेरित होकर संग करने का लिखा है। फिर गर्भाधान के दिन से सन्तानोत्पत्ति हो और जब तक सन्तान स्तन पान छोड़ कर खुराक न लेना शुरू करे, उस समय तक पुरुष को ब्रह्मचर्य पालना चाहिये । सन्तानोत्पत्ति हुये बाद कम से कम अठारह महीना तक ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये। विषय प्रसंग बहुत ही नियमित बनाने से शरीर बल का विकास होता है; आत्मोल्लास प्रगट होता है और गृहस्थ धर्म का महान फल प्राप्त होता है। परन्तु जो लोग एक दिन का भी अन्तर नहीं रख सकते, तिथि और पर्यों की भी कदर नहीं करते उनके लिये तुलसीदासजी ने ठीक कहा है:
'कुत्ते कार्तिक माह में तजे, अन्न और प्यास । तुलसी तिनकी क्या गति, जिनके बारह सि ॥"
वादिदेवसूरि
ले बनोरिया जैन मेवाड़ी .. "श्री मद्देवगुरौ सिंहासनस्ये सति भास्वति
प्रतिष्ठायां न लग्नानि वृत्तानि महतामपि” "प्रभाचन्द्रसूरी" साड़े आठसो वर्ष पूर्व की यह बात है जब कि आबू के आस पास का प्रदेश अष्टादशसती नाम से प्रसिद्ध था। उसके अन्तरगत् मदाहत * नामक एक नगर था जो कि बड़े बड़े पर्वत और हरी हरी झाड़ियों से घिरा हुआ था। इस
* बहुत से लोग इस गांव को वर्तमान समय का माहार समझते हैं। लेखक.
इतिहासतत्त्वज्ञ मुनिश्री कल्याणविजयजी ने प्राबू की दक्षिण उपत्यका में पाया. हुमा. वैष्णवों का तीर्थ मदुभाजी माना है। हमें भी यह ठीक मालूम होता है। । जीवन चरित्र लिखने में साम्प्रदायिक झलक मालूम होती है परन्तु हमारा विचार किसी सम्प्रदाय पर भाप करने का नहीं है; खाली पौरवाल जातिवीर नर की कीर्ति बताने का ही उद्देश्य है। सम्पादक
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। १७ ) नगर में पोरवाड़. वंश का एक गृहस्थ रहता था। उसका नाम वीरनाग था। उसकी पत्नी का नाम जिनदेवी था। जिनदेवी स्वभाव में शान्त, शिक्षित और रूप में रम्मा समान थी। इस दम्पती में गाद प्रेम होने के कारण इनका गृहसंसार.आनन्दपूर्वक चलता था।
एक समय जिनदेवी रात्री को सोती हुई थी उस समय उसे एक स्वस प्राया। कह स्वम में यह देखती है कि मानो चन्द्रमा उसके मुंह में प्रवेश कर रहा है। यह स्वम देखकर वह जाग उठी और पंचपरमेष्ठि का स्मरण करने लगी। प्रातःकाल स्नानादि से निवृत हो जिनमन्दिर गई। प्रभु के दर्शन कर गुरुवन्दन करने गई उस समय वहां तपगच्छीय आचार्य मुनिचन्द्रसरि बिराजते थे। उनका ज्ञानसागर सदृश्य गम्भीर चरित्र चन्द्र से भी अधिक निर्मल था और उपदेश में उनका सानी रखने वाला दुसरा कोई न था। - जिनदेवी ने गुरुदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और रात्री में जो स्वम माया उसे गुरु महाराज के समक्ष निवेदन कर उसका फल पूछा । गुरुमहाराज स्वप्रशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता थे अतः उन्होंने कहा, "बहन ! इस स्वप्न के फल स्वरूप तुम एक चन्द्र समान पुत्र को जन्म दोगी और जिसका प्रकाश समस्त भूमंडल पर पड़ेगा।" - जिनदेवी गुरुदेव के उपर्युक्त बचन सुन कर प्रसन्न हुई और अपने घर लौटी। नौ मास सात दिन के पश्चात् गुरु महाराज के कहे अनुसार वि० सं० ११४३ को जिनदेवी ने एक महान् तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। जिस समय बालक गभ में आया उस समय माता को चन्द्रमा का स्वप्न माया प्रतः उसका नाम पूर्णचन्द्र रखा गया। पूर्णिमा का चन्द्र जब अपनी सम्पूर्ण कला से विकसित होता है तब वह धीरे धीरे घटता जाता है। किन्तु पूर्ण चन्द्र तो बालेन्दु के सदृश्य दिन प्रति दिन बढ़ता जाता है। इस प्रकार पूर्णचन्द्र खेलते कूदते बड़ा हुआ। __एक समय मद्दाहृत ग्राम में भयंकर रोग का उपद्रव हुआ। इससे समस्त ग्राम में त्राहि त्राहि मच गई और लोग गाम छोड़ छोड़ कर अन्यत्र जाने लगे। श्रावक वीरनाग ने भी मदाहृत छोड़ दक्षिण की ओर प्रयाण किया। मार्ग में भरुच नगर आया, उस समय यह नगर बड़ा सुन्दर और समृद्धिशाली होमे
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।१८)
के कारण वीरनाग ने वहीं स्थिरता की। उसी अरसे में मुनिचन्द्रमरि वहां होने के कारण वीरनाग ने भी वहीं स्थिरता की। उसी अरसे में मुनिचन्द्रसरि भी परिभ्रमण करते करते वहां आ पहुंचे। वीरनाग उनको वन्दन करने गया। वहां स्वधर्मी बन्धुओं ने उसकी अच्छी खातिर की और उसे भरुच ही में ठहरने का प्राग्रह किया। वीरनाग को तो जहां अपना निर्वाह हो वहां ठहरना ही था, अतः यहाँ ही ठहर गया। उसकी स्थिति साधारण होने के कारण घर का कारोबार 'परा कठिनता से चलता था।
पूर्णचन्द्र जब पाठ वर्ष का हमा तभी से उसे धन्धा शुरू करना पड़ा। कारण उसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। वह भिन्न भिन्न प्रकार के मसाले की फेरी करने लगा। .... एक दिन पूर्णचन्द्र फेरी करने गया वहां क्या देखता है कि एक सेठ घर में से धन बाहर फेंक रहा है। वह सेठ अपने धन को कोयले के रूप में देखता था अर्थात् उसके . दुर्भाग्य से वह धन कोयला हो गया था। यह दृश्य देख पूर्णचन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और अपने हृदय में कहने लगा कि मैं तो पैसे के वास्ते गली २ में भटकता फिरता हूँ और यह व्यक्ति धन को इस प्रकार बाहर क्यों फैंक देता है ? उसने सेठ से पूछा सेठ साहब यह क्या कर रहे हो ? - सेठ उत्तर देता है तुझे क्या काम है ? तुझे इतना भी नहीं दिखाई देता है कि ये कोयले घर में पड़े हैं इनको घर से बाहर फेंक रहा हूँ। पूर्णचन्द्र यह उत्तर सुन कर आश्चर्य करने लगा कि मुझे तो यह सब स्वर्ण मोहरें दिखाई देती हैं। तुमको कोयला क्यों दिखाई देता है ?
जब सेठ ने पूर्णचन्द्र का यह उत्तर सुना तो वह अपने हृदय में कहने लगा कि यह बालक अवश्य भाग्यशाली मालूम होता है। तब सेठ ने पूर्णचन्द्र से कहा यदि तुझे यह सब सुवर्ण मोहरें दिखाई पड़ती है तो इन कोयलों को इस टोकरे में भर कर मुझे दे। ज्योंही पूर्णचन्द्र ने उन सुवर्ण मोहरों को स्पर्श किया त्यों ही वे सेठ को भी असली रूप में दिखाई देने लगी। जब सेठ को यह ज्ञात हुमा कि इस बालक के स्पर्शमात्र से ही यह चमत्कार बना है तो वह उस पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे एक स्वर्ण मोहर दी।
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- पूर्णचन्द्र प्रसन्न हो अपने घर गया और उपर्युक्त घटना पिताजी को कई सुनाई। वीरनाग अपने पुत्र की यह आश्चर्यजनक घटना सुन प्रसन्न हुए । वीरनाग ने यह चमत्कारिक घटना मुनिचन्द्रसूरि के आगे निवेदन की। यह बात सुन सरिजी अपने हृदय में कहने लगे कि वास्तव में यह बालक होनहार है। यदि यह बालक साधु हो जाय तो जगत में धर्मध्वजा फरसकती है। इसलिये उन्होंने बीरनाग से पूर्णचन्द्र को मांगा।
वीरनाग अपने ऐसे प्रभावशाली पुत्र को देते समय संकोच करे उसमें कुछ आश्चर्य ही न था ?
सरिजी वीरनाग के संकोच को समझ गये अतः उसके मनका समाधान करते हुए कहने लगे मेरे पांच सौ साधु शिष्य हैं उन सबको तू अपने पुत्र ही समझना । यदि यह बालक विद्वान होगा तो तेरा नाम और कुल उज्वल करेगा। यह सुन वीरनाग ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की और अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को सहर्ष मुनिचन्द्रसूरि के हाथ से दीक्षित किया। उस समय उसका नाम रामचन्द्र मुनि रखा।
मुनि चन्द्रसरि समस्त शास्त्रों के प्रखर विद्वान थे मानो न्यायशास्त्र तों उन्हीं का था। उन्होंने इस विषय का अभ्यास प्रसिद्ध न्यायशास्त्री श्री वादी वेताल शान्तिमरि के पास किया था। मुनिचन्द्रसूरि ने रामचन्द्र मुनि को समस्त विषयों का ज्ञान देना आरम्भ किया। रामचन्द्र मुनि ने भी अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के कारण थोड़े ही समय में व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, दर्शन शास्त्र (तत्त्वज्ञान ) ज्योतिष आदि विषयों का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया। ___ इस प्रकार विद्वान होने के पश्चात् रामचन्द्रमुनि गुरुआज्ञा लेकर भिन्न २ प्रदेशों में विहार करने लगे। उसमें खास कर घोलका, साचोर, नागोर, चित्तौड़ ग्वालियर, धार, पोकरण, भरुच आदि शहरों में विहार कर वहां के प्रसिद्ध विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कर उनको परास्त किये । इससे उनका नाम विद्वानों में बहुत प्रसिद्ध हुआ और निम्न लिखित विद्वानों के साथ उनकी मित्रता होगई ।।
विमलचन्द्र, हरिचन्द्र, सोमचन्द्र, पार्श्वचन्द्र, शान्तिचन्द्र, कुलभूषण, अशोकचन्द्र आदि।
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( २० ) मनि चन्द्रपरि रामचन्द्र मुनि की ऐसी बढ़ती कला देख बहुत प्रसन्न हुए । अपने शिष्य को प्रभाव शाली देख किस गुरु का हृदय आनन्दित न होता होगा ? उन्होंने रामचन्द्र मुनि को सम्पूर्ण योग्य समझ उनको आचार्य पद देने का विचार किया। मुनिचन्द्रसरि ने अपना यह विचार पाटन के श्री संघ के सामने रखा। श्री संघ ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर बहुत बड़ा उत्सव किया और समारोह के साथ मुनिचन्द्रसूरि के हाथ से रामचन्द्र मुनि को प्राचार्य पद दिया गया। उस समय उनका नाम देवमूरि रखा गया। इस प्रसंग पर उनकी भाजी साध्वी हो गई थी उनको भी महत्तरा पद दिया और उनका नाम चन्दन बाला रखा गया ।
आचार्य पद होने के पश्चात् उनका जीवन कोहनूर हीरे के समान चमकने लगा। उनके हृदय में धर्म के प्रति अथाह लगन थी। धर्म का गौरव बढ़ाने के वास्ते गुरु महाराज की आज्ञा लेकर मारवाड़ की ओर विहार किया। जब वे विहार करते २ आबू पाये और पहाड़ पर चढ़ने लगे तब उनके साथ अम्बाप्रसाद नामक एक दिवान भी था। उसको मार्ग में काले नाग ने डस लिया और वह उसके विष से पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह दृश्य देख श्री देवसरि ने उसके सामने अपनी दयापूर्ण दृष्टि फेंकी। उनकी दृष्टि, विशुद्ध चारित्र के बल से इस प्रकार चमत्कारिक बन गई थी कि उस दृष्टि के पड़ते ही अम्बाप्रसाद का जहर काफूर होगया और जिस प्रकार मनुष्य नींद से उठता है उसी प्रकार उठ कर देवमूरि का उपकार मानने लगा।
उपर्युक्त घटना के पश्चात् यहां दूसरी घटना यह बनी कि श्री अम्बिका देवी प्रगट हो सूरिजी से कहने लगी कि आप अभी मारवाड़ की ओर बिहार न करो कारण कि आपके गुरू के आयुष्य में केवल आठ ही मास शेष रहे हैं। यह सुन देवसरि पीछे लौटे और पाटन में आकर गुरू सेवा में तत्पर हुए ।
उस समय पाटन की राजगद्दी पर प्रतापी राजा सिद्धराज जयसिंह राज्य करता था। उसकी सभा में विद्वानों को अच्छा आदर मिलता था। इसलिये वहां देश विदेश के विद्वान आकर अपनी विद्वत्ता का परिचय देते थे। राजा भी पंडितों का अच्छा स्वागत करता और उनकी योग्य कदर कर पारितोषिक देता था।
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( २१ ) एक समय वहां देवबोध नामका भागवत पंडित आया । उसने पाटन के पंडितों की परीक्षा करने के वास्ते एक गूढ़ श्लोक उनके आगे रखा और उसका अर्थ करने को कहा। वह श्लोक निम्न लिखित था--
एक द्वित्रिचतुः पञ्चषणूमेनकमने नकाः ।।
देवबांधे मयि क्रुद्ध षण्मेनकमने नकाः ॥ * ... उपर्युक्त श्लोक को सुन समस्त पंडित चकित हो गये। इसके अर्थ की उन्होंने बहुत कोशिश की किन्तु असफल हुए। इस प्रकार छः मास का समय व्यतीत हो गया। यह देख सिद्धराज जयसिंह को सख्त अफसोस हुआ । वह मन में विचार करने लगा कि क्या गुजरात इस प्रकार निर्माल्य हो गया है कि एक श्लोक का अर्थ छः मास में भी कोई पूरा नहीं कर सका ? उस समय एक पुरुष ने निवेदन किया कि, महाराज! अपने नगर में देवसूरि नाम के श्वेताम्बर आचार्य हैं वे बहुत बड़े विद्वान् हैं। वे अवश्य इस श्लोक का अर्थ कर देंगे। . यह बात सुन राजा ने देवमूरि को सत्कारपूर्वक अपनी राजसभा में बुलाये उनोंने उस श्लोक का यथार्थ अर्थ कर दिया। इससे राजा, प्रजा तथा स्वयं देवबोध पंडित भी उन पर बहुत प्रसन्न हुए। ___ विक्रम सम्वत् ११७८ में श्री मुनि चन्द्र सूरि का स्वर्गवास हुआ। इससे देवमूरि को जबरदस्त आघात पहुंचा, किन्तु मन को धीरज दे शासन सेवा में लग गए। यहां से उन्होंने मारवाड़ की ओर विहार कर वे नागोर शहर में आए । उस समय वहां के राजा आह्लाद ने उनका अच्छा स्वागत किया। उस स्वागत में देवबोध पंडित भी साथ था। उसने मूरिजी को देखते ही एक भक्तिपूर्ण श्लोक कहा:
या वादिनो द्विजिह्वान सारोपं विषममान मुद्रितः। ___- शमयति स देवरि-नरेंद्र वंद्यः कथं न स्यात् १ ।। . अर्थ-भयङ्कर अभिमान रूपी विष को उगलने (डंख मारने ) वाली वादी रूपी फणिधरों को शान्त करते हैं, वह देवसूरि राजाओं को वंदनीय कैसे न हो।
* इस लोक का अर्थ जानना हो तो प्रभावक चरित्र के देवसूरि प्रबन्ध में देखो ।
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( २५ ) रिजी ने राजा को धर्मोपदेश देकर जैन धर्म का रागी बनाया। उन्होंने कुछ समय उस नगर में स्थिरता की। इसी अर्से में सिद्धराज जयसिंह ने नागोर शहर के ऊपर जबरदस्त सेना के साथ चढ़ाई की। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि देवसरि यहां विराजते हैं, तब वह बिना कुछ किये पीछे लौटा। इससे सिद्ध होता है कि सिद्धराज के ऊपर देवसूरि का कितना प्रभाव होगा ? ____ यहां से विहार कर सूरिजी कर्णावती नगरी में आये और चतुर्मास भी यहाँ रहे। यहां श्री नेमिनाथजी के मन्दिर में धर्मोपदेश देने लगे। इनका उपदेश इतना सचोट और प्रभावशाली था कि उसको सुनने के वास्ते प्रत्येक जाति तथा धर्म वाले आते थे। जिन जिनने उनका उपदेश सुना वे समस्त जैनधर्मी हो गये। ___ एक समय कर्णाटक के राजा जयकेशी के माननीय पंडित कुमुदचन्द्रजी गुजरात में आये । वे दक्षिण के महान् पंडित माने जाते थे और दिगम्बरों के प्राचार्य थे। उन्होंने अपने बाद में चौरासी वादियों को हराया था। यहां ये वादिदेवसूरि की कीर्ति सुनकर उनको हराने के वास्ते आए थे। कुमुदचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह से वादिदेवसरि के साथ शास्त्रार्थ करने को कहा इस पर से सिद्धराज ने दोनों के वादविवाद का दिन नियत किया। उसके वास्ते यथायोग्य नियम लिखे गये । पाटन शहर में घर २ जोरों से वाद की चर्चा चलने लगी। . वाद करे वह वादी कहा जाता है और उत्तर दे वह प्रतिवादी कहा जाता है। यहां कुमुदचन्द्र वादी और देवसूरि प्रतिवादी हैं । वादी प्रतिवादी दोनों के बीच में इस प्रकार शत हुई कि देवसरि वाद में हार जाय तो वे और समस्त श्वेताम्बर दिगम्बर हो जाएं और कुमुदचन्द्र हार जाय तो वे गुजरात छोड़ कर चले जाय। यहां पाठक समझ सकते हैं कि देवसूरि की प्रतिज्ञा कितनी कड़ी थी? क्योंकि सरिजी को अपनी प्रात्मशक्ति पर पूरा विश्वास था।
वि० सं० ११८१ के वैशाख शुक्ला पुर्णिमा के शुभ दिन में यह वाद भारम्भ हुआ । राजसभा में वादी प्रतिवादी उपस्थित हुए । सभापति के स्थान पर स्वयं गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह बैठे । उत्साहसागर, महर्षि
और राम नाम के तीन विद्वान राजा के सलाहकार नियुक्त हुए । कुमुदचन्द्र के पक्ष में केशवादि नाम के तीन पंडित नियुक्त हुए। और देवर के पक्ष में पौरवाड़ माति के महान कवि श्रीपाल और भानु नाम के विद्वान थे ।
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( २३ )
राजसभा में दोनों तरफ के सभासद एकत्रित हुए । राजा ने कुमुदचन्द्र को वाद विवाद प्रारम्भ करने के लिये कहा । कुमुदचन्द्र ने वाद आरम्भ करने के पूर्व राजा को निम्न आशीर्वाद दिया ।
खद्योत समातनोति सविता जीर्णोर्णनाभालय
च्छायामाश्रयते शशी मशकतामायान्ति यत्राद्रयः । इत्थं वर्णयतो नभस्तव यशो जातं स्मृतेर्गोचरं,
तस्मिन भ्रमरायते नरपतेः वाचस्ततो मुद्रिताः ॥
उपर्युक्त स्तुति करने के पश्चात् कुमुदचन्द्र अपना पक्ष सिद्ध करने लगा नग्न रहने में मुक्ति है, स्त्री मोक्ष नहीं जाती और कंवली भोजन नहीं करते है; यह कुमुदचन्द्र का पक्ष था ।
उपर्युक्त बातों का उत्तर देने के पूर्व देवसूरि ने राजा को निम्न आशीर्वाद दिया । नारीणां विदधाति निर्वृतिपदं श्वेताम्बर प्रोन्मिषत्
कतिस्फाति मनोहरं नयपथप्रस्तार भंगी गृहम् । यस्मिन्केवलिनी न निर्जितपरोत्सेकाः सदा दन्तिनो,
राज्यं तज्जितशासनं चभवत चौलुक्य ! जीयाश्चिरम् ॥ उपर्युक्त स्तुति के पश्चात् देवसूरि ने बड़ी खूबी के साथ कुमुदचन्द्र के सिद्धान्तों का युक्ति प्रयुक्ति से खंडन किया, और यह सिद्ध कर दिया कि स्त्री मोक्ष जा सकती है । केवली आहार ले सकते हैं। नग्नत्व के अतिरिक्त भी मोक्ष जा सकते हैं । इन्होंने ये युक्तियें अपने न्यायशास्त्र के सिखाने वाले वादिवेताल श्री शान्तिसूरि की रची हुई उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में से ली थी। उनके
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रावा बोलने तथा सचोट दलीलों से समस्त सभा देवसूरि पर मुग्ध हुई । सूरिजी का यह भाषण सुन कुमुदचन्द्र निरुत्तर हो गये । उनका मुंह निस्तेज हो गया और जिस प्रकार डूबता हुआ मनुष्य तिनके का सहारा लेता है, उसी प्रकार अन्य कुछ न सूझने पर उसने देवसूरि के वाक्यों में व्याकरण की एक भूल निकाली । किन्तु वह भूल ही न थी। उस सम्बन्धी मत लेते हुए उत्साह वसूरि का शब्द व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है । यह सुनकर कुमुदचन्द्र बिल्कुल ठण्डा पड़ गया । सभापति ने अन्य सदस्यों का मत लेकर निर्णय प्रकाशित किया कि देवसूरि की जीत हुई और कुमुदचन्द्र की
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( २४ ) हार हुई है। इससे देवमूरि की सर्वत्र विजयघोषणा हुई। यह वाद लगातार पन्द्रह दिन तक चला और इसकी नोट राज्य के दफ्तर में ली गई इस प्रसंग की याद के वास्ते सिद्धराज जयसिंह एक जयपत्र, एक लाख द्रव्य और बारह गाँव भेट करने लगा, किन्तु देवसूरि ने अपने साधु धर्मानुसार उसे स्वीकार करने की स्पष्ट मना की। जब अधिक आग्रह किया गया तव उस द्रव्य से श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर बनवाया गया। उसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर श्री देवसूरि के साथ अन्य तीन आचार्य भी उपस्थित थे। कुमुचन्द्र की सख्त हार होने से वह दक्षिण को लौट गये। .. वादिदेवमूरि के परम भक्त नागदेव और थाहड़ नाम के श्रीमन्त श्रावकों ने इस विजय के उपलक्ष में बहुत बड़ा उत्सव किया और हजारों को दान दिया। वाद के समय उपस्थित रहे हुए कलिकालमर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य आदि पण्डितों ने इस वाद की भूरि भूरि प्रशंसा की है। इसके पश्चात् के ग्रन्थकारों ने भी इसकी खूब प्रशंसा की है। "मुद्रित कुमुदचन्द्र" नामक नाटक भी इस प्रसंग को याद रखने के लिये लिखा गया है ।
वादिदेवसूरि ने अनेक वाद विवाद कर इस विषय में जो गहरा अनुभव प्राप्त किया, उस अनुभव का वर्णन उन्होंने "स्याद्वादरत्नाकर" नाम के ग्रन्थ में लिखा है। स्याद्वादरत्नाकर प्रमाणनयतत्वालोक की बड़ी टीका है। उसमें अनेक वाद भरे हुए हैं। उसका विषय गहन होते हुए भी उसकी भाषा प्रौढ़, सुन्दर तथा सरल है। कहा जाता है कि वह सारा ग्रन्थ चौरासी हजार श्लोकों का था। वर्तमान में उसके लगभग पच्चीस हजार श्लोक मिलते हैं। शेष श्लोकों का नाश मुसलमानों के हाथ से हुआ हो या किसी भंडार में पड़े हो ठीक २ नहीं कहा जाता।
- इसके अतिरिक्त उनके बनाये हुए भिन्न २ भाषाके ग्रन्थों की सूची निम्न लिखित है .. (१) प्रमाणनय तत्त्वालोक * । . ( २ ) स्याद्वाद रत्नाकर । ( प्रथम ग्रन्थ की टीका )
* कई वर्षों से यह ग्रन्थ प्रमाणनय तत्त्वा लोकालंकार के नाम से प्रसिद्ध था परन्तु न्याय साहित्य तीर्थ मुनि श्री हिमांशुविजयजी ने इस विषय का विशेष अध्ययन कर पता लगाया कि इसका मूल नाम तो वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्वालोक ही रखा था।
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( २५ ) .(३.) जीवानुशासन । ( ४ ) मुनिचन्द्राचार्यस्तुति । ( ५ ) गुरुविरह विलाप । ( ६ ) द्वादशवत स्वरुप । (७). कुरुकुन्नादेवीस्तुति । (८) पार्श्वघरणेन्द्रस्तुति । (६) कालिकुण्ड पार्श्वजिन स्तवन । (१०) यतिदिनचर्या । (११) जीवाभिगमलघुवृत्ति । (१२) उपधानस्वरूप । (१३) प्रभातस्मरणस्तुति । (१४) उपदेश कुलक । (१५) संसारीद्विग्नमनोरथकुलक।
वादिदेवसरि ने साहित्य सेवा के अतिरिक्त अनेक जैनेतरों को जैन बनाये हैं। उनकी संख्या लगभग पैंतीस हजार की मानी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने घोलका. पाटन, फलौदी, पारासण आदि गांवों में प्रतिष्ठा मी करवाई है। उनके दीक्षित किये हुए शिष्यों की संख्या सैकड़ों की थी। जिनमें से मुख्य २ शिष्यों के नाम निम्नलिखित हैं। (१) भद्रेश्वरसूरि
(८) पद्मचन्द्रगणि (२) रत्नप्रभसूरि
(६) पद्मप्रभमूरि ( ३ ) माणिक्य
(१०) महश्वरसूरि (४) अशोक
(११) गुणचन्द्र (५) विजयसेन
(१२) शालिभद्र (६.) पूर्णदेवाचार्य
(१३) जयमंगल (७) जयप्रभ
(१४) रामचन्द्र इसकी टीका स्याद्वादरत्नाकर का नाम प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार है। यह बात उक्त मुनिराज सम्पादित किये हुये प्रमाणनय तत्त्वालोक की प्रस्तावना में सिद्ध किया है। अधिकांश विद्वानों ने पार को स्वीकार किया है।
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(३६) उनके गृहस्थ शिष्यों में थाहड़, नागदेव, उदयन, वागभट मादि अनेक श्रीमंत श्रावक थे।
उनका विहार खास कर मारवाड़, मेवाड़ और गुजरात ही में हुआ था ।
इस प्रकार जीवन प्रर्यन जैन धर्म की अनन्य सेवा कर श्री वादिदेवसूरि वि० सं० १२२६ के श्रावण कृष्णा मप्तमी गुरुवार के दिन इस मनुष्य लोक को छोड़ स्वर्गवासी हुए । पृथ्वी पर उनकी पूर्ती करने वाला अब तक कोई उत्पन्न नहीं हुआ।
उपसंहार * आज वादिदेवसूरि अपने ममक्ष नहीं है किन्तु उनकी कृत्ति, कीर्ति प्रखर शासन सेवा जीती जागती खड़ी है।
धन्य हो इस पौरवाड़ जाति को कि जिसने वादिदेवसरि समान प्रमूठे नर रत्न को उत्पन्न कर अपना गौरव बढ़ाया है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रचार्य ने वादिदेवसूरि की इस प्रकार स्तुति की है।
यदि नाम कुमुदचन्द्र नाडजेस्य देवसूरिर हमरुधि । कटि परिधानम धास्यत्कतमः श्वेताम्बरो जगति ॥
हेमचन्द्रसरि । __अर्थ-यदि वादिदेवमूरि कुमुदचन्द्र को परास्त न करते तो जगत में कौन श्वेताम्बर कमर में कपड़ा धारण कर सकता था? अर्थात् दिगम्बर राना पड़ता।
प्यारे पोरवालों ! __आपके इस पुण्य सम्मेलन पर कुछ लिख कर भेजने का भाग्रह श्रीयुत् सिंघीजी ने मुझे किया है, अतः इस प्रसंग पर मैं भी कुछ इशारे के रूप में लिखकर मेरा कर्तव्य अदा कर लेता है। . * इस लेख के लिखने में मुझे न्याय साहित्य तीर्थ मुनिराज श्री हिमांशुविजयजी और जैन ज्योति कार्यालय से प्रकाशित बालग्रन्थावली की छठी श्रेणी से सहायता मिली है अतः उनका भाभारी हूँ। लेखक
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जगत् की गिरी हुई छोटी ? जातियों ने भी इस बीसवीं सदी के वेग से दौड़ कर अपनी २ उन्नति करने में जोर से पैर उठाए हैं और उसके परिणाम से वे जातियाँ अज्ञान के गहरे अंधेरे में से ज्ञान के प्रकाश में आ गई हैं और दूसरे समाजों के साथ २ अपने समाज का गौरव बढ़ाया है, उन्होंने हर तरह से सुख के मार्ग में प्रवेश किया है, जैसे सिक्ख, पारसी क्रिश्चियन इत्यादि ।
पकी पोरवाल जाति तो पहिले से ही उच्च प्रसिद्ध और विशाल थी इस जाति का भूतकाल इतना ऊँचा और आदर्श है कि जिसको जानकर कोई भी मनुष्य मुग्ध हुए बिना नहीं रहता है । इसी जाति ने कुबेर के समान संपत्तिशाली वीर वीर शिरोमणि विमलशाह सेठ को जन्म दिया, जिनकी कीर्ति चाबू के जगत् विख्यात मंदिर आज भी गारहे हैं। राणकपुर के विराट् विचित्र मंदिर के निर्माता धनाशाह सेठ ने भी इसी पौरवाल जाति को ही गौरवान्वित बनाई है । कुमुदचन्द्र जैसे महान वादी को गुजरात के सम्राट् सिद्धराज जयसिंह की राज सभा में वाद से परास्त करने वाले और स्याद्वादरत्नाकर जैसे ८४००० श्लोक का महान् उपयोगी न्याय के ग्रन्थ को बनाने वाले श्रीवादिदेवसूरि जैसे प्रखर आचार्य ने भी इसी पौरवाल जाति को पुनित और यशस्वी बनाया है । कवि सम्राट् श्रीपाल कवि ने भी इसी उत्तम पौरवाल जाति से जन्म पाकर गुर्जर सम्राट् सिद्धराज जयसिंह का महान् प्रेम और गौरव प्राप्त किया है। भाईयों मैं कहां तक कहूं ? आपकी पारेवाल जाति पहिले धीर, वीर, गंभीर, बुद्धिमान्, श्रीमान् और कार्तिवान् श्री वीर शिरोमणि श्री वस्तुपाल तेजपाल की वीरता विद्वत्ता लक्ष्मवित्ता तो आप से या किसी सभ्य मनुष्य से छिपी हुई नहीं है ।
महानुभावों ! अब आपकी वर्तमान पौरवाल जाति का निरीक्षण कसे कि -पहिले की अपेक्षा अब यह कितनी गिरी हुई है ? वर्तमान काल की वैश्य जाति भी यह कितनी पिछड़ी हुई है अज्ञान प्रमादी और बहमी होगई हैं ? इस वक्त पकी वह वीरता, विद्वता, धीरता और धर्म को उन्नत करने की शक्ति कहाँ चली गई है? भाइयों ! आप को मैं जरा कड़क लिख रहा हूं परन्तु सत्य लिखता आप ही अपनी छाती पर हाथ रख कर आत्मा को पूछिए कि आप के पास पुरुषों के समान गुण और कला आदि की सम्पत्ति रही है या क्या ?
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(२८) संजनो ! जैसे भेड़ियों के माथ रह कर केसरीसिंह अपना स्वरूप भूल जाता है निर्वीय और नीच भाव को प्राप्त होता है उसी प्रकार आप भी अपनी जाति को भूल कर अधोदशा को प्राप्त हुए हैं। जरा सोचिए प्रगति कारक शिक्षा के ऐसे जमाने में भी आप कितने पिछड़े हुए हैं ? यह जमाना तो संगठन का है आपस २ में कुत्तों की तरह अपनी जाति से लड़मरने का नहीं है। यह समय तो सभ्य और नागरिक बनने का है असभ्य और मूर्ख जड़ बनने का नहीं है, इज्जत और नीतिपूवर्क धन इकट्ठा करने का है अपमानों को सहन कर के अनीति पूर्वक येन केन प्रकारेण धन बटोरने का नहीं है। इसलिये अपनी अधोगति को पहिचान कर बुद्धि पूर्वक विचार करो धर्म पूर्वक उसको रोको, बंद करो सावधान बनो, शिक्षित-सभ्य बनो, आगे बढ़ती हुई सभ्य जातियों का अच्छा अनुकरण करो नहीं तो ध्यान रखिए कि इस जगत् के भविष्य काल में आपकी जाति का गौरव नहीं रहेगा नहीं ! नहीं !! अस्तित्व भी संदिग्ध हो जायगा। .. . युवको ! महाजनो ! आपकी जात में खास करके मारवाड़ जोरामगराप्रदेश में बहुत दोष रुढ़ि और अज्ञानता का प्रवेश है और विशेषतया उस सिरोही स्टेट के पौरवालों में अनमेल भासुरी विवाह का तो इतना अनुचित प्रचार बढ़ रहा है कि ६० वर्ष का मरणोन्मुख बुड्ढा सेठ चालीस २ हजार रुपये देकर भी १५ वर्ष की कुमारिका के साथ विवाह करने में अपने को धर्मात्मा और धन्य मानता है में ऐसी कुमारिकाओं के पति और पिता माता से पूछना चाहता हूं कि क्या यह कार्य कसाई से भी खराब नहीं है ? जो जैन धर्म एकेन्द्रियजीव को दुख देने में पाप समझता है उस धर्म के पालने वाले पौरवाल लोग ऐसे र कार्य करते जरा भी नहीं शर्माते हैं ? उनके मन में जरा भी धिक्कार और दया उत्पन्न नहीं होती है ? युवकों ! आदर्श बनकर समाज के रावसी दोषों को अति शीघ्रता से मिटा दो अन्यथा सारे समाज के ऊपर भारी कालिमा लगती है पाप बढ़ता है और उसी पाप का प्रायश्चित समाज को प्रति दिन भोगना पड़ता है। - युवको ! पोरवाल जाति की अनेक खराबियों कुरूढ़ियों को देखकर मेरा दिल बहुत दुःखी होता है, क्योंकि साधु होने के पहिले मेरा जातीय सम्बन्ध इसी पोरवाल जाति से था, इसलिये जाति प्रेम के वश होकर मैं पुनरुक्किदोष करता हूँ कि आप शिक्षित हजिए, आपके भाई और बहिन बेटियों को सुशिक्षित
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बलवान बनाइए : समाज की कुप्रथाओं को बिना संकोच के उखाड़ दीजिए। भापको जाति के गुरुकुल, हाईस्कूल, विद्यालय, कॉलेन, अनाथालय, विधवाश्रम, कलाभवन स्थापित करके उन संस्थाओं के पीछे अपनी आत्मा की समी शक्रियाँ लगाइए, उन्ही संस्थाओं में से आप अपने ही लेखक, कवि, विद्वान् , उपदेशक, साधु और नेता उत्पन्न कीजिए, इन्हीं से आपके मारवाड़ का नहीं घन्कि सारी पोरवाल जाति का उद्धार होगा, दूसरे देश के साधु या श्रावकों की वरफ झूठी आशा से मुंह ताक कर मत बैठिए कि हमारे देश का उद्धार गुजरात के प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी और श्रावक आकर करेंगे? ऐसी भाशा
आप बहुत दिनों से करते आए हैं परन्तु आपके मारवाड़, मेवाड़, मालवा मादि देशों का उद्धार किसी अन्य देशीय साधु, श्रावकों ने किया है, क्या ? यही बात मैंने कुछ वर्षों पहिले "मारवाड़ जैन सुधारक” पत्र में लिखी थी। हाँ ! श्रीमान् विजयवल्लभसूरिजी और उनके कुछ शिष्य जरूर धन्यवाद के पात्र हैं कि इन्होंने कई वर्षों से मारवाड़ में अनेक कष्टों को सहते हुए गोडवाड़ को सुधारने का प्रयत्न किया है। सिरोही स्टेट के पोरवालों को सुधारने के लिए भी ये महात्मा प्रयत्न करेंगे, ऐसी आशा और प्रार्थना क्या जोरामगरा-सिरोही स्टेट के लोग नहीं करते हैं ?
एक बात मैं कहना चाहता हूं कि जैनधर्म में साधु को भिक्षा देने का बहुत पुण्य है, जहां तक हो सके अतिथि-भिक्षुक को निराश नहीं करना भापका कर्तव्य है, अतः में निम्नलिखित चीजों की याचना भिक्षा श्री पौरवा जाति से करता हूं। मुझे पूर्ण आशा है कि याचित चीजों में से यथाशक्य वस्तु वो माप जरूर देंगे। १-सारी जाति में भादर्श शिक्षा का प्रचार करो। बालक-बालिकाओं
___ को सभ्य-विद्वान् और सदाचारी बनाओ। २-पोरवाल जाति में प्रादर्श लेखक, वक्ता, कवि, विद्वान् , साधु, नेवा ३. बनाओ। जो पावश्यकीय सुन्दर संस्थाओं की सेवा कर सकें। ३-पौरवाल जाति के पूर्व पुरुषों के आदर्श, गुण, चरित्र इतिहास को
वर्तमान समय की भिन्न २ भाषाओं में लिखो जिससे पौरवाल माति का गौरव बढ़े।
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( ३० ) -सार्वभौम पौरवाल सम्मेलन और प्रान्तीय पौरवाल सम्मेलन को ____ प्रतिवर्ष सुन्दर योजनापूर्वक भरकर प्रस्तावों को कार्य में परिणत
करो और कराओ। ५-पोरवाल जाति की वृद्ध, बान, अयोग्य विवाह भादि खराब हानिकारक
रूढ़ि दोषों को दूर करके समाज शक्ति को बढ़ाने वाले संगठनादि शुभ गुणों को अमल करो और कराओ जिससे पौरवाल जाति की वास्तविक उन्नति पूर्व काल जैसी हो सके।
पौरवाल जाति के अवान्तर भेद-दशा पौरवाल, पावती पोरवाल, जांगडा पौरवालों को अपने साथ मिलाकर उनके साथ - रोटी, बेटी व्यवहार शीघ्र जारी करदो और ओसवाल, श्रीमाल
आदि जातियों की वृथा निन्दा (तिरस्कार) कभी मत करो । महाशयो ! लिखते २ मैंने खूब लिखा है परन्तु हित बुद्धि और प्रेम से पावश्यकीय लिखा है। अतः विश्वास है कि यह आपको अरुचि कर नहीं होमा। ___ अन्त में आपका यह महा मम्मेलन और कार्यकर्ता महानुभाव पूर्णतया सफल हो यही चाहता हुआ मैं यहां विराम लेता हूं। बड़ौदा, ? ____आपकी जाति का पूर्ण हितैषी
मैं हूँ भिक्षु हि-शुविजय ( अनेकान्ती).
- जीमण भी समाज की हानिकारक प्रथा है
(ले० पूनमचन्द एच सिंधी सिरोही) इस उपरोक्त विषय के बारे में मेरी बहुत कुछ लिखने की अभिलाषा बहुत समय से हो रही है परन्तु में कोई अच्छा लेखक नहीं होने से मेरे पैर हमेशा पीके ही पड़ते गये। धन्य भाग से श्री अखिल भारतवर्षीय पौरवाल महासम्मेलन के अवसर पर हमारे समाज के हजारों उद्धारकों के सन्मुम्ब इस उपरोक प्रथा का सुप्रबन्ध किया गया जिससे मेरे को अत्यन्त शान्ति व मेरी अभिलाषा को
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एक प्रकार का नया जन्म प्राप्त हुआ। सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के कार्य को समाप्त हुये आज छ: महीने व्यतीत होने आये हैं इस दरमियान में इस कुप्रथा पर कोई अंकुश सवार नहीं हुआ और यदि इसी तरह सम्मेलन के प्रस्ताव को ठुकरात जायेंगे तो हमें खेद है कि हमारी समाज कुछ ही काल के लिये जीवित रह सकेगी।
इस संकट मय के समय में हमारी समाज यह विचार नहीं सकती कि इस समय हमें किन २ चीजों की आवश्यक्ता है ? पुरानी रूढ़ियों के गुलाम बन कर अपने जीवन को आनन्दमय बिताते हुये नजर आते हैं। रूढ़ियों के गुलामों को ज्ञान नहीं होता कि हमारी दशा दिन दिन किम अवस्था पर पहुंच रही है और अन्त में इसका क्या परिणाम होगा। जमाने की रूह को नहीं समझने वाले रूढ़ियों के गुलामों ! जरा आँख खोलकर देखो। आज तुम्हारी क्या अवस्था हैं और तुम्हारी होनहार सन्तान किस अवस्था पर पहुंचेगी। आज कल जमाने में हरएक समाज अपनी अपनी उन्नति के साधनों की खोज कर रहा है और पुरानी रूढ़ियों को ठुकराते हुये अपनी समाज में नये रीति रिवाज का जोरों के साथ समावेश कर रहे हैं। क्या दूसरी समाजों के उन्नतिशील कार्यों को देखने पर भी हमारी समाज इसी कुम्भकर्ण की निद्रादेवी के शरणागत हो पड़ी रहेगी ।
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समाज में होने वाली कुप्रथायें बहुत हैं और उन सबका उल्लेख इस छोटे से लेख में करना वृथा है कारण एक रोटी एक ही कुत्ते को न खिलाते आऊ दस कुत्तों में विभाजित की जाय तो सारांश यही होगा कि एक भी अपना पेट न भर सकेगा । इन सब कुप्रथाओं का ज्ञान हमारी समाज को सम्मेलन के अवसर पर अच्छी तरह हो गया है और सम्मेलन ने यह भी बतला दिया है कि अब समाज को किस रास्ते पर चलना चाहिये परन्तु इसके उपरान्त भी हमारी समाज आँखों पर पट्टी बांध कर इन्हीं पुरानी रूढ़ियों में गोते मार रही है । अत्यन्त खेद का समय है कि हमारी समाज को डूबती हुई नैया में से सावधान होने को उपदेशक अपने गले घोट रहे हैं लेखक ग्रन्थों के ग्रन्थ लिख रहे हैं फिर भी समाज उन उपदेशों व लेखों की परवाह न करके अपना कक्का ही खरा किये जा श्री
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(३२) ... हमारी समाज में होने वाली कुप्रथाओं में से जीमन भी एक कुप्रथा है। जिनको रूढ़ियों के गुलामों ने उच्च पद देकर अच्छी तरह से अपना लिया है. पने यह मालूम नहीं कि इस प्रथा से हमारा भविष्य किस तरह होगा और यह कब से चालू हुई है क्यों हुई है और इस वक्त इसकी आवश्यक है. मा क्या! और है तो इसमें कितना फायदा व कितना नुक्सान है इसका कभी भी उनै खयाल नहीं होता व तो दूसरे के घर जाकर लड्डू उड़ाने में ही एक प्रकार का भानन्द समझते हैं-चाहे जिमान वाला गरीब क्यों न हो चाहे वह अपनी बहन, बेटी अथवा घर को किसी के यहां गिरव रख कर भी कर्ज लाता हो । जीमने वालों को इसकी परवाह नहीं रहती एक ही जीमन में सैकड़ों रुपयों का धुंआ जहाना ही अपना फर्ज अथवा धर्म समझ बैठे हैं।
इस जीमन को एक ही तरह से नहीं अपनाया। इसको कई रूपों में स्थान दे रखा है। यह सब कार्रवाई जीमन प्रेमियों की है जन्म, शादी, टोणामोसर, स्वामी वात्सल्य, उजमणे, नवकारसी इत्यादि इत्यादि रूपों में इसको अपनाकर समाज का लाखों रुपयों का धन इसी कुप्रथा की नदी में बहा दिया जाता है। इस खर्च का हिसाब यदि लगाने बैठे तो इसका अन्त नहीं पा सकता । सम्मेलन ने इस प्रथा को कई अंशों में कम करने का जो प्रस्ताव पास किया है उसको व्यवहार रूप में जाना जीमन प्रेमियों के लिये कुठार की घात सा हो गया है। समाज के अग्रेसरों से समाज हितैषी प्रार्थना करते करते थक गये हैं परन्तु उनकी मांख कब खलने लगेगी। वे समझते हैं कि यदि इस प्रकार के जीमन बन्द हो गये तो हमारे हायों में से हुकूमत रूपी पंचायत की डोर जाती रहेगी और हमे समानहितेषी कुछ भी नहीं गिनेंगे। अपनी हुकूमत और बड़प्पन के आगे अगर समाज डूब जाय तो डुबाने को तैयार हैं परन्तु बड़प्पन को छोड़ने के लिये नहीं। - पहिले वक्त में यह जीमण की प्रथा क्यों चालू की गई थी ? अगर इस पर दृष्टि डालेंगे तो हमें अच्छी तरह ज्ञात हो जायगा कि ऐसा करने में एक तसा का लाभ माना गया था वह लाभ सिर्फ इतना ही है कि समाज में यदि कोई गरीब हो और उसको मीठा पदार्थ खाने को हाथ न आता हो तो उन सब के लिये यह जीमन की प्रथा कायम की थी जिसको गरीब लोग जीमकर आशीष दिया करते थे। इसी तरह धीमे धीमे हमारे जीमन प्रेमियों ने इसको नाति
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(३) गड़ियों में स्थान देकर एक प्रकार का समाज पर चाहे वह गरीब हो अथवा धनाढ्य हो बोझा डाल दिया है। उदाहरण के तौर पर लीजिये चन्द्रावती नगरी में ५०० करोड़ पतियों ने अपनी अपनी तरफ का एक दिन नियत कर लिया था जिस रोज सारे गांव को जिमाते थे। इसमें आप क्या तात्पर्य निकालते हैं क्या उनोंने एक रुदि समझ कर किया था नहीं सिर्फ गरीबों का पालन पोषण का तरीका निकाल रखा था और उसी में चन्द्रावती नगरी की गरीब प्रजा सुखी थी। आज हमारे समाज के रूढ़ियों के गुलामों ने यह बोझा हर एक पर लाद दिया है जो समाज को गहरे गड्ढे में उतारने वाला है। गरीब लोग इस रूढ़ि के शिकार बन कर हमेशा के लिये अपने आपको डुवा देते हैं और यह डुवाने वाले समाज के अग्रेसर जीमण प्रेमी ही हैं अगर इस प्रथा को रूढ़ि रूप में से निकाल दिया जाय तो डूबने वाली गरीब प्रजा बच सकती है। परन्तु यह पचाने का कार्य तो वे शुरू में सीखे ही नहीं हैं। वे यह समझते हैं कि अगर बचाने जाते हैं तो हुकूमत व बड़प्पन जाता रहता है ।
माज कल समाज को जीमण क्या जिमाना है एक तरह की जिमाने वाले के गले आफत की माला प्रा पड़ती है। जिमाने वाला कभी खुश नहीं आता है सिर्फ या तो वह देखा देखी अपनी बढ़ाई अथवा एक दूसरे से बड़ा नाम प्राप्त करने की कोशिश में रह कर अथवा समाज का भार रूप बोझा समझ कर जिमाता है । जिमानेवाले को सबसे पहिले पंचों की इजाजत प्राप्त करनी पड़ती है जिसमें अंग्रेसरों की कदर होती है। वह पंचों से इस कदर हैरान किया जाता है कि उसका खुद का जीमन पंचों की इजाजत प्राप्त करने में ही समाप्त हो जाता है। पचा बचाया जीमन की तैयारियों में लगा देता है। उस उपरान्त भी कुछ बाकी रह गया तो जीमने के बाद उसके किये हुये जीमन की निंदा में पूरा हो जाता है। अगले वक्त में जीमने पर भीमानेवाले को आशीस दिया करते थे उसका परिवर्तन आज निन्दा में हो गया है। निन्दा भी क्या लड्डू अच्छे नहीं बने साग वगैरह में घी की कमी रखी, चावल पूड़ी कच्चे रक्खे इत्यादि कई तरह से निन्दा के कारण पैदा कर जिमानेवाले के किये हुये कार्य पर धूल डाल दी जाती है। सारांश जिमानेवाला आजकल रूदि रूपी गाड़ी को चलाता क्या पिका मारता है। यह धके से चलने वाली गाड़ी हमारे समाज प्रेमियों को
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निन्दनीय है फिर भी रूदियों के गुलामों ने बगबर अपने पद पर कायम रह कर समाजप्रेमी अथवा गरीब कोई भी हो सबको बाध्य कर इस बन्धन की रस्सी में जकड़ रखे हैं।
इस कुप्रथा से समाज का लाखों रुपया व्यय किया जाता है जिसका कोई सदुपयोग नहीं होता। आज खाया कल वैसे के वैसे ही रह जाते हैं। जीमने वाले का यश कायम नहीं रहता कि जिसके जरिये उसके होने वाली सन्तान अपने आपको प्रतिष्ठित मान सके । इस समाज के भार रूपी बोझा को अलग कर यदि इसका सुप्रबन्ध किया जाय तो समाज अपना नाम आज तवारीख के पृष्ठों में सुनहरी हरफों में प्राप्त कर सकता है। समाज में किन २ बातों की न्यूननता है जिसके जरिये हमारी होनेवाली सन्तान अपना गौरव प्राप्त कर सके उसका अवलोकन किया जाय तो आज सिवाय विद्या के और कुछ नजर नहीं भाता है। यह विद्या हमारी समाज में कहीं पर भी नजर नहीं आती है। इसकी अभावता से आज हमारा समाज दसरे समाजों से हर हालत में गिरा हुआ है। दुनिया के कोने कोने में कार्य कौशलता के चिन्ह नजर आते हैं और इसका कारण एक विद्या मात्र ही है। हमारी समाज सिवाय गुलामगिरी से अथवा ब्याज से धन प्राप्त करने के और कोई योग्यता नहीं रखती और इसी अयोग्यता के अभाव से समाज जहाँ तहाँ ठुकराती हुई नजर आती है। इसको बचानेवाला मात्र एक विद्या ही है। इसलिये समाज हितैषी इन व्यर्थ व दुखप्रिय होने वाले जीमनों को नष्ट करे और इसमें होने वाले खर्चे का सदुपयोग विद्या दान में किया करे। जीमनों से होने वाले लाखों रुपयों का व्यय बन्द कर होनहार सन्तान को विद्या दान दिया जाय। और समाज में गरीबों का पालन पोषण किया जाय तो अधिक अच्छा व लाभ का कार्य समाज के लिये हो जायगा। ... इन्हीं जीमन से होनेवाली हानियों का अवलोकन भी कर लेना जरूरी है। हमारे जीमन प्रेमी तो इस तरफ अपना ध्यान कभी नहीं खींचते हैं और यही समझते रहते हैं कि इसमें धर्म है परन्तु आज कल इसी धर्म के नाम से .महा अधर्म होता है वे न तो रात देखते हैं न दिन न मौसम की तरफ कौनसा मौसम किस योग्य है यह उन्हें ख्याल करने की जरूरत नहीं रहती चाहे चौमासा क्यों न हो लाखों जीवों का संहार इसी जीमन बनाने में क्यों न होता हो । गर्मी की
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मौसम में इन्हीं जीमनों से बीमारियों को एक तरह का न्यौता देकर अपनी समाज को बीमारियों का ग्रास बना देते हैं। कहिये यह धर्म के नाम अधर्म हुआ या क्या ? आज जैन समाज कीड़ी तक को बचाने का प्रयत्न करती है। तिथियों के रोज हरा साग खाने में समाज परहेज रखता है, रात्री भोजन को दोष समझता है परन्तु तिथि के रोज कटा हुआ साग व बनाया हुआ भोजन दूसरे दिन जीमने में धर्म समझता है। यह कहां तक न्याय का नमूना है तिथि के रोज रात को बनाया हुआ भोजन जिसमें अत्यन्त जीवों का संहार क्यों नहीं होता हो दूसरे रोज बड़े चाव से जीमते हैं। नवकारसी उजमना स्वामी वात्सल्य इत्यादि धर्म जीमन कहे जाते हैं जिनके बनाने में अत्यन्त जीवों का स्वाहा हो जाना भी जीमन प्रेमियों की दृष्टि में धर्म जीमन ही रहता है । ___टाणा मोसर का जीमण हमारी समाज में कई वर्षों से चला आ रहा है। मरने के पीछे उसकी बची हुई पूंजी का उपयोग इन्हीं जीमणों में किया जाता है। मरने वाला मर जाता है। उसके पीछे रंज करना तो दूर रहा। लड्डू वगैरह बना कर उसकी पूंजी का नाश करने में ही समाज लाम समझती है। इस तरह उसकी बची पूंजी का धुंपा थोड़ी ही देर में हमेशा के लिये अदृष्य हो जाता है। जब तक धुंआ कायम रहता है लोग मरने वाले को याद भी करते हैं और जब धुंआ सर्वदा के लिये अदृष्य हो जाता है उस वक्त उसका नामोनिशान तक इस सृष्टी पर कायम नहीं रहता है। मरने वाले के पास पूंजी है या क्या। वह अपनी जीवन भवस्था में सांसारिक कार्य किस तरह चलाता था। उसके पीछे उसकी संतान क्या करेगी वे किस अवस्था पर पहुंचेगी ये बातें हमारे समाज के अग्रेसरों को व जीमणप्रेमियों को तनिक भी विचार में नहीं आती है। वे तो इस कार्य को रुदी रूपी लोहे की जंजीर में जकड़ कर बैठे हैं और मरने वाले की औलाद से डंडा ठोक कर वसूल करते हैं। अगर कोई इस हक्क को अदा करने में उजर करता है तो अग्रेसर उसको समाज द्रोही समझ कर उससे व्यवहार बंद कर देते हैं। इस उपरान्त भी अगर सख्त सजा देना चाहते हैं तो उसका हुक्का पानी भी बंद कर देते हैं आखिर में अपना हक लिये बगैर उसे जाति में सम्मिलित तक नहीं करते हैं। वह चाहे गरीब स्थिति का क्यों नहीं हो उसका जेवर घरबार तक बिकवा कर उसके पुरखों का मृत्यु भोज लिये बगैर नहीं रहते हैं। ऐसे मृत्यु भोज को हमारे सम्मेलन ने सर्वथा त्याग योग्य ठहरा कर सर्वानुमत से
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( ३६ ) प्रेस्ताव पास कर दिया है कि आयन्दा समान में ऐसा मृत्यु भोज न किया जाय परन्तु समाज द्रोही जो वास्तव में जीमणप्रमी हैं वे सम्मेलन के प्रस्तावों को ठुकरा कर ऐसे मृत्यु भोज जीमने में तनिक भी नहीं शर्माते हैं। मारवाड़ प्रान्त में सम्मेलन होने के पश्चात् यह पहला कार्य शिवगंज में हुआ है जो सर्वथा निन्दनीय है और शिवगंज के अग्रेसर पंचों को प्रायन्दा ऐसी घटनाएं सम्मेलन के प्रस्ताव विरुद्ध न हो इसके लिये प्रबन्ध करने की हमारी प्रार्थना है जिमसे कि फिर दुबारा ऐसा करने का मौका उपस्थित न हो मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस निन्दनीय प्रथा को फिर हमारे भाई अपनी समाज में स्थान नहीं देंगे और इसी बोझ से लदी हुई और जातीय रुढी रूपी सांकल से जकड़ी हुई हमारी समाज इस से मुक्त हो जायगी। इसी मृत्यु भोज में होने वाले लाखों रुपयों का खर्च का हल भी अंश विद्यादान में जरूर लगाने का प्रबन्ध करें ।
क्रोध विरुद्ध अात्म संयम मिसेज ऑलिफन्ट कहती है कि "मेरे समक्ष यह सिद्ध करो कि तुम प्रात्म संयम कर सकते हो, अर्थात् मैं कहूंगा कि तुम शिक्षित मनुष्य हो, और आत्मसंयम के बिना दूसरी सब शिक्षा करीब २ निष्फल हैं" जो मनुष्य स्वयम् अपने आपको अंकुश में नहीं रख सकता है उससे बड़ा कार्य करने की आशा नहीं रखी जा सकती।
उच्च महत्वाकांक्षा, असाधारण शक्ति और महान पंडित मनुष्यों को और सब तरह से महान आशा देने वाले मनुष्यों को आत्मसंयम् शुन्यता ने गरीष बना दिये हैं। हमें हर दिन वर्तमान पत्र ऐसे मनुष्यों का परिचय कराते हैं कि जो क्रोधावश के वश होकर भयङ्कर प्रहार करते हैं अथवा घात करनेवाली गोली छोड़ते हैं जिससे उसके किसी मित्र की अथवा उसके स्वयम् के जीव की स्वतंत्रता मष्ट होती है।
कारागृहों में पड़े हुए कंगाल कैदियों से पूछो कि क्रोधी स्वभाव से उनकी बहुत हानि हुई है ? ऐसे दुर्भागी मनुष्यों में से कई एक को तो मात्र एक पण ही रहा हो परन्तु ऐसे क्रोध से जीवन पर्यन्त उन्होंने स्वतंत्रता गुमा दी है। घाव
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(३७) करने वाली गोली का वार किया गया एक षण में बन्दूक का घोड़ा दवाया गया परन्तु जिस मित्र पर बार किया गया वह कभी वापिस नहीं पाया और अपराध अनअपराध नहीं हुआ।
अहो ! गुस्सा से बहुत से शोक जनक कार्य करने में आते हैं अक्सर मनुष्यों ने क्षण भर का काबू खोकर अच्छा पद, समग्र जीवन का सुख खो दिया है उन्होंने एक क्षण के क्रोधावेश में कदापि अपने प्रस्तुत पद के प्रारूढ होने में वर्षापर्यन्त किया हुआ कार्य और प्राप्त अनुभव फेंक दिया है । ... मैं एक अधिक समर्थ अधिपति को पहिचानता हूं कि जो देश के उत्तमोत्तम
और बड़ी दैनिक पत्रों के आफिस में श्रेष्टपद पर रह चुके हैं वे बहुत से विषयों पर प्रबल और उत्तम लिख सकते हैं, वे इतिहास का बहुत अच्छा ज्ञान रखते हैं वे दयावान और मृदु हृदय के मनुष्य हैं अतएव दरिद्रता में आये हुऐ किसी भी मनुष्य की कैसी भी मदद करने को तत्पर रहते हैं तो भी वे अपने क्रोधी स्वभाव की वजह से प्रायः सम्पूर्ण निष्फल ही रह जाते हैं। मनुष्य को जो पद प्राप्त करने में वर्षों व्यतीत हो जाते हैं उस पद का त्याग गुस्से से एक क्षण में हो जाता है। वह जानता है कि उसमें सर्वोत्तम शक्ति होने पर भी उसको अनेक जगह भटकना पड़ा है। वह मुश्किल से अपने कुटुम्ब का पोषण कर सकता है और वह क्रोधी स्वभाव का स्वयम् दास है इस प्रतीति सहित वह अपना जीवन पूरा करता है।
हम हर एक स्थान पर क्रोधी स्वभाव के भोगियों को गौते खाते देखते हैं और अनेक महिनों में अथवा उनके समग्र जीवन में उन्होंने जो प्राप्त किया है उन सब को थोड़े क्षणों में गुमाते हुए देखते हैं कि वे निरन्तर चढ़ते हैं और वापिस गिरते हैं। ___मैं बहुत से ऐसे वृद्ध मनुष्यों को पहिचानता हूं कि जिनकी पूरी कार्य दक्षता
और प्रसिद्धी उनके गरम स्वभाव की वजह से संकुचित हो गई है जिन मनुष्यों के साथ उन्हें मत भेद पड़ा हो वे उनको दो बात सुनाये बिना नहीं रह सकते हैं। उनके हित को चाहे जितना नुकसान होता हो अथवा कितना ही अधिक भोग देना पड़ता हो तो भी वे अपनी खुली जीहा और अपने गुस्सा को निरंकुश नहीं छोड़ सकते हैं।
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- जब तुम गुम्से में हो तब सामने गले मनुष्य को "दो बाते सुनाने" की काम बहुत महंगा हो जाता है । ___ मेरे परिचय का एक बहुत समर्थ व्यापारी जब वह गुस्से में होता है तब लोगों को साफ कहने की अपनी टेव से उसने अपनी कीर्ति और अपने व्यापार को बिगाड़ दिया। जब वह गुस्से में होता है, तब चाहे जैसी नीच अथवा हलकी बात कहते हुए नहीं रुकता है वह मनुष्य को इच्छानुसार विशेषण लगाता है, वह भान को भूलकर बकता है, वह अपने नौकर को अपने यहाँ से निकाल देता है उत्साहित अथवा शनिवाले मनुष्य को रखना उसके लिये प्रायः अशक्य हो जाता है। __मैंने देखा है कि क्रोध अथवा गुस्से के पंजे में फंसे हुए लोग, मनुष्य की बनिस्बत राक्षस के माफिक अधिक बरतन रखते हैं। एक ऐसा मनुष्य मेरे स्मरण में है कि जब वह अपने भयङ्कर गुस्से के वश हो जाता था तब जो जो वस्तु उसके हाथ में भाती भी थी, वह उन वस्तुओं को तोड़ देता था और जो मनुष्य उसके बीच में आता था अथवा उसको रोकने का प्रयत्न करता था उसको वह खराब गालिये देता था। जब वह गुस्से में होता तब मैंने उसको लकड़ी के प्रहार से पशुओं को मारते देखा है, उस समय उसकी आँखें पागल मनुष्य की आँखों के माफिक फट जाती थी और उसका परिचय जानने वाले मनुष्य अपना जीवन बचाने के लिये भाग जाते थे वह उस समय के लिये पागल हो जाता था और वह जब क्रोधरूपी राक्षस के पंजे में होता तब वह क्या करता है, उसका उसे जरा भी विचार नहीं रहता था। जब उसका क्रोध उतर जाता था, तब वह मजबूत मनुष्य होने पर भी दीर्घकाल तक सम्पूर्ण थका हुआ रहता था। __निरंकुश क्रोध के वश मनुष्य वस्तुतः उतने समय पर्यन्त पागल होता है जबतक वह उसके अन्दर रहे हुए राक्षस के ताबे में होता है। जो मनुष्य अपने कामों को सम्पूर्ण अंकुश में नहीं रख सकता उसके लिये यह नहीं कहा जा सकता कि वह पागल नहीं है, जब वह निरंकुश स्थिति में होता है, तब ऐसे काम करता है कि जिसके लिये वह अपने समग्र जीवन में अधिक शोक करता है। गरम मिजाज और असंयम की वजह से अक्सर मनुष्यों के जीवन दोषमय, प्रशान्त और अवनीय संताप तथा दुःखों से परिपूर्ण हो गये हैं।
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(३६) .. समस्त दुष्ट मनोवृत्तियों क्रोध, इर्षा वैर और तिरस्कार ने मनुष्य जीवन को बहुत पायमाल किया है, उसका चित्र कौनसा लेखक अथवा कलाविद् कभी मालेखन कर सकता है। एक मनुष्य एक काल्पनिक शत्रु पर बैर लेने को निश्चयपूर्वक भाषेश बहुत वर्षों तक रक्खे और उसके लिये समय की वाट देखा करे उसका असर उसके चारित्र पर कैसा होता है, उसका विचार करो। . अत्यन्त क्रोध करने से मनुष्य के शरीर को और मन को बहुत हानि होती है उसका विचार करो। मनुष्य को स्वामाविक स्थिति में बहुत से सप्ताह तक सख्त काम करने से जितनी हानि नहीं होती है, उससे अधिक हानि उसके एक दफा गुस्सा करने से होती है। ___यदि तुम से हो सके तो पीछे से जो भयङ्कर दुःख होता है उसका विचार करो जो लज्जा उत्पन्न होती है; जो पश्चाताप. और खेद उत्पन्न होता है, जो स्वमान की हानि होती है और मनुष्य. जब शुद्धि में आता है, तब बनी हुई घटना की जब वह प्रतीति करता है तब उसकी मृदु लागणियों को जो धक्का पहुँचता है उसकी कल्पना करो।
मद्यपान करते क्रोध से मनुष्य के शरीर को और चरित्र को विशेष हानि होती है। मद्यपान से तिरस्कार निष्कलंक जीवन पर विशेष खराब कलंक लगता है। ईर्षा, बैर, क्रोध, निरंकुश शोक इससे शरीर को जितनी हानि होती है उतनी हानि बहुत वर्षों तक अधिक प्रमाण में बीड़ी पीने से नहीं होती है। चिन्ता, खिन्नता और दोष दृष्टि शरीर में तम्बाकू से भी भयङ्कर विष दाखिल करती है।
"थोड़े समय पर अधिक.मनुष्यों के मन में क्रोधाग्नि लगी थी अतएव वे माज बहुत खराब स्थिति में है। . . निःशोक, निरंकुश स्वभाव से अक्सर मनुष्यों का जीवन कम हो जाता है अक्सर मनुष्य इतने अधिक क्रूर होते हैं कि वे पीछे घण्टों और घण्टों सक धूजा करते हैं और काम धंधों के लिये सम्पूर्ण नालायक बन जाते हैं। . .
मेरे परिचय का एक सारा कुटुम्ब क्रोध पूर्वक कलह करके अपनी शारीरिक स्थिति पायमाल कर देता है और बीमार हो जाता है। उस बुटुम्ब के मनुष्य
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( ४० )
उम्र क्रोध से एक दूसरे के गाल भंग कर देते हैं और थोड़े ही समय में उनके मुँह फिर जाते हैं । प्रवेश के वश होकर वे राक्षसों की तरह लड़ते हैं हम सब जानते हैं कि ऐसे कलह, ऐसी निन्दा ऐसी दोषदृष्टि और ऐसी तकरार का परिणाम सिर्फ एक ही हो सकता है और इन्हीं कारणों से कभी सुख उत्पन्न नहीं हो सकता यह बात निर्विवाद सिद्ध है ।
कई एक मनुष्यों ने निरकुंश भावेश के वश होकर अपने कुटुम्ब के मनुष्यों और मित्रों को मार दिये हैं कि जिनको दस मिनट पहले मारने की कोई बात नहीं थी जो मनुष्य स्वभाव से ही सज्जन होते हैं वे भी क्रोध से अन्धे बन जाते हैं तब वे राक्षसी गुनाह करते हैं ।
मेरे परिचय की एक स्त्री बहुत क्रोधांध बन जाती है कि उसका गुस्सा उतर जाने के बाद वह सम्पूर्ण थक जाती है कई दिनों तक वह बालक के सदृश निर्बल रहती है और किसी भयङ्कर संकट में से निकली हुई मालूम होती है । क्रोध के वश हुए बाद हमेशा उसके मस्तक में वेदना होती है अथवा उसको किसी दूसरी तरह का शारीरिक दुःख होता है ।
तीब्र इच्छा ज्ञानतन्तुओं के समूह को बहुत छिन्न भिन्न कर देती है और उसका भोग दीर्घ काल पर्यन्त बहुत अशक्त रहता है इस बात को वैद्य लोग अच्छी तरह से जानते हैं। मगज में इस भयङ्कर राक्षस का अमल रहने से सिर्फ एक ही वर्ष में एक स्त्री के चेहरे को निष्तेज हुआ देखा है कि उसके मित्र श्किल से उसको पहिचान सकते थे ।
ईर्षा जब एक दफा मनुष्य को पंजे में ले लेती है तब वह जीवन के समग्र दृश्य को फिरा देती है और उसको अपना रंग-अप करती है। प्रत्येक वस्तु इस दाहक वृत्ति का रंग धारण करती है। मनुष्य की विचार शक्ति मन्द पड़ जाती है और वह सम्पूर्ण इस राचस के पंजे में फँस जाती है । इस भयङ्कर मानसिक शत्रु का संयोजन करने से सिर की रचना भी दब जाती है ।
बार २ हमारे सुनने में आता है कि लोग क्रोधावेश में आकर मर जाते हैं। किसी भी कारण से एक दम उग्र क्रोध करने से ज्ञानतन्तुओं को बहुत सख्त धक्का पहुंचता है कि जिससे किसी वक्त हृदय खास करके निर्बल हो जाता है और
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कभी-कभी बन्द भी हो जाता है। बहुत क्रोध करने से अक्सर मगन का लोहू चढ़ने का रोग हो जाता है। क्रोध भयङ्कर विष उत्पन्न करता है और सब तरह की खराबी उत्पन्न करता है।
हमें क्रोध ईर्षा, तिरस्कार अथवा वैर वृत्ति धारण करने से अक्सर लज्जा और स्वमान-हानिजनक यातनाएं सहनी पड़ती है; परन्तु वे हमारे शरीर और मन को जो शाश्वत हानि करते हैं उसका हमें जरा भी ज्ञान नहीं होता। .
निरंकुश आवेश शरीर के भिन्न २ तत्त्वों में रसायनिक फेरफार करता है और भयङ्कर विष को जन्म देता है मानसिक बल खोदेने से उसमें बहुत प्रचंड शक्ति आजाती है उसको हम नहीं जानते हैं। सर्व तरह से शारीरिक दुःख पर कोई. शारीरिक अव्यवस्था का परिणाम ही है ऐसा मानने की हमारे में अधिक टेव पड़ गई है और हम दृढ़ता से जानते हैं कि वह दवादि के उपयोग से ही निवृत्त हो सकती है परन्तु हम उसका सच्चा कारण नहीं जानते हैं कि वह मानसिक अव्यवस्था अशान्ति की वजह से उत्पन्न होती है यह बात हमारे दिमाग में नहीं घुसती है।
यह एक सुप्रसिद्ध बात है कि उग्र क्रोध हृदय पर बहुत ही शीघ्र असर करता है और मानसिक शास्त्रवेत्ताओं के क्रोध किये बाद शीघ्र उनको उसी वक्त विष मालूम हुआ है और होता है समस्त आवेश का तोफान पूरा हुए बाद हम अत्यन्त थक जाते हैं और हताश हो जाते हैं उसका सिर्फ कारण यही है कि वे जो मानसिक विष उत्पन्न करते हैं तथा मगज और रक्त में जो दूसरे हानिकारक तत्त्व उत्पन्न करते हैं उसकी वजह से ऐसा होता रहता है। ..
निरंकुश स्वभाव से ज्ञान तंतुओं के केन्द्रों को बारम्बार जो धक्का पहुंचता है. इससे बहुत ही मजबूत शरीर अन्त में नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। तुम जब क्रोध करते हो तब २ तुम समस्त स्वाभाविक शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में विक्षेप डालते हो। आवेश के तोफानों के सामने तुम्हारे में रही हुई प्रत्येक वस्तु बलवा करती है, मानसिक दुरुपयोग के सामने हरएक मानसिक शक्ति विरोध दर्शाती है। .. क्रोध करने से ज्ञानतन्तुओं की बारीक रचना में बहुत अधिक भयङ्कर हानि होती है एक दम तोफान आने से क्या होता है उसको जो लोग देख सकते हैं
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( ४२ ) उसी माफिक क्रोध द्वारा होनेवाली हानि चर्म चक्षु द्वारा देखी जासके तो कोई मो क्रोध करने की हिम्मत न करे।
क्रोध से उत्पन्न होने वाला विष रक्त के साथ फिर कर समग्र शरीर के प्राण केन्द्रों को हानि पहुंचाता है। मगज और ज्ञान तंतुओं के बारीक परमाणुओं को और समस्त अन्तरस्थ अवयव विष से दुषित रक्त की वजह से निर्बल हो जाते हैं। ___ अक्सर मनुष्यों की प्रारोग्यता अच्छी नहीं होती है उसका खास कारण यह है कि दुषित लोहू की वजह से परमाणु निरन्तर बुभुक्षित और संकुचित रहते है। शरीर में जब निरन्तर यह मानसिक विष प्रचारक क्रिया जारी रहती है तब किसी मनुष्य का जीवन प्रफुल्लित खिला हुआ और बलवान नहीं होता है तथा उसमें उत्तमोत्तम कार्य शक्ति नहीं होती है। - निरंकुश क्रोध, ईर्षा अथवा किसी भी तरह के उत्तम आवेश से बारीक ज्ञान तन्तु मंडल की जो हानि होती है इससे विशेष हानि दूसरी किसी भी वस्तु से नहीं होती है। शान्ति, सरलता और स्वस्थता पूर्वक गति करना ही मगज और ज्ञान तन्तुओं का उद्देश है और वे जब इस माफिक गति करते हैं तब पुष्कन प्रज्छा काम कर सकते हैं और सुख उत्पन्न कर सकते हैं परन्तु वारीक स्थूल यंत्र के माफिक जब उनको विशेष गति दी जाती है अर्थात उसमें यथावत तेल नहीं डाला जाता है अथवा उनकी गति को नियमित करने वाले बड़े चक्र बिना जब उसको चलाया जाता है तब वे बहुत ही अल्प समय में छिन्न भिन्न हो जाते हैं। ___ जो मनुष्य छिद्रान्वेषण करता है और खिन्न तथा गुस्से हुआ करता है तथा जो मनुष्य अपने मिजान को काबू में नहीं रख सकता है वह मनुष्य अपने ऐसे स्वभाव से स्वयम् अपने आपको बहुत हानि पहुंचाता है तथा अपनी आरोग्यता का नाश करता है और साथ ही साथ अपने जीवन को बहुत ही कमती उम्र में लाकर रख देता है और इस बात की उसको खबर भी नहीं होती है। . जो मनुष्य अपने आपको अंकुश में नहीं रख सकता है उसको कबूल करना पड़ता है कि वह सिर्फ थोड़े समय के लिये ही मनुष्य रहता है और शेष समय में वह पशु हो जाता है यह भी उसको स्वीकार करना पड़ता है कि उसकी पशुवृत्ति अक्सर निरंकुश बन जाती है और उसके मानसिक साम्राज्य में तोफान खड़ा
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कर देती है और पुनः वह अपने आपको काबू में नहीं ले सके तब तक स्वच्छ दता से वर्तन करती है ऐसे मनुष्य की प्रकृति में कुछ दोष अवश्य होता है ।
शरीरशास्त्री जोपिरिस ने कहा था कि "सोक्रेटिस के अवयव यह जाहिर करते हैं कि वह मूर्ख, पाशव, कामी और मद्यसेवक था" और सोक्रेटिस के नीचे के शब्दों में से उसके इस पृथक्करण को पुष्टि मिलती थी कि स्वभाव से में इन सर्व पापों से युक्त हूँ और निरन्तर सदाचरणी में रहने से ही सिर्फ वह अंकुश में भाया और उनको जीता।
प्रकृति ने प्रत्येक मनुष्य को दिव्य शक्ति दी है जो उसके खराब से खराब भावेश को जीत सकती है उसके प्रबल दुर्गुण को वश कर सकती है यदि सिर्फ इस शक्ति का विकास और उपयोग किया जाय तो कोई भी मनुष्य दुर्गुण का दास नहीं बन सकेगा। ___ सेक्सपियर कहता है कि "यदि तुम्हारे में सद्गुण हो तो सद्गुण का भाडम्बर करो"
ऐमर्सन भी इसी आशय का निर्देश करता है कि "जो सद्गुण तुम प्राप्त करना चाहते हो वे सब सद्गुण तुम्हारे में हैं अतएव तुम उनको अपने जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न करो, और जिस तरह के महान् नर का पाठ भजना हो उसके चरित्र में लीन हो जाओ उसके सदाचारी जीवन में निमग्न हो जाओ + "तुम्हारी दुर्बलता चाहे जितनी अधिक हो अथवा तुम उसके लिये बहुत शोक करते हो परन्तु जहाँतक तुम उसके विरोधी विचार को अमल में रखने की सांगोपांग जीवन व्यतीत करने की आदत प्राप्त न करो तब तक मात्र दुर्वलता के विरोधी विचार को भी दृढ़ता और प्राग्रह पूर्वक धारण करो। जब तक अपूर्ण अथवा दोष मिश्रित * दूसरों को धोका देने के उद्देश्य वाले कोई भी भाडम्बर जो नुकसानकारक है उनका विचार मत करो। उदारता के गुणवाला दूसरों के प्रति जैसे बरताव करता है वैसे ही बरतना शुरू करो। अर्यात उदराता से काम लो कि जिसपे वह स्वभावरूप बना रहे इसी अर्थ में हरएक सद्गुण का आडम्बर करने का ऊपर जो बताया गया है
... गुण धारण मत करो परन्तु सम्पूर्ण और उत्तम शक्ति गुण धारण करो।
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(४४) उसी माफिक कार्य करो। अथवा अधूरे गुण धारण मत करो परन्तु सम्पूर्ण और उत्तम शक्ति के गुण धारण करो। किसी भी वस्तु के लिये समग्र बल से प्रयत्न करना ही उसको प्राप्त करने का मार्ग है और उसको प्राप्त करने के लिये हम जितने बल और आग्रह से प्रयत्न करते हैं उतने ही प्रमाण में वह हमें प्राप्त हो सकती है। ___ यादे तुमें गुस्सा और क्रोध करने की आदत हो, यदि तुम्हें जरा मी हरकत होते ही मिजाज खोदेने की आदत हो तो इस दुर्बलता के विषय में शोक करने में और हरएक के आगे अधिक लाचारी दर्शाने में अपने समय का अपव्यय मत करो परन्तु आर्दश पुरुष के सदृश शान्त, विचारशील, स्वस्थ और गम्भीरता का वर्ताव करना सीखो। अपने आपको समझाओ तुम गर्म मिजाज मत करो, काध मत करो परन्तु स्वस्थ रहो। छोटी २ हरकतों से मिजाज को मत खोओ। गम्भीर शान्त और स्वस्थ विचार निरन्तर स्मर्ण करने से तथा उनको ठीक वैसे ही बनाने से बहुत सहायता मिलती है उनको देख कर तुम आश्चर्य चकित हो जानोगे। सारांश यह है कि कुछ भी क्यों न हो जाय वस्तुस्थिति कैसी हो हरकत युक्त अथवा क्रोधजनक हो अथवा तुम्हारे आस पास के मनुष्य बहुत ही आवेश में क्यों न आये हों अथवा स्वस्थ हो तो भी तुम अपनी शान्ति को मत खोओ। हमारे विचार के प्रकार और बल द्वारा ही हमको अपना भूत और वर्तमान स्थिति प्राप्त हुई है तो उसी तरह भावि स्थिति भी प्राप्त हो जायगी।
अकसर स्वभाव जठर अथवा मगज की निर्बलता स्वार्थ अथवा नीच आंता का परिणाम होता है और मनुष्य की संज्ञा के पात्र कोई भी मनुष्य उसके वश में नहीं रहेगा।
क्रोध जो कि हमारे उत्तमोत्तम मित्रों को एक क्षण में हमारा शत्रु बना देता है उसको निरंकुश छोड़ देने में जरा भी पुरुषत्व अथवा श्रेष्टता नहीं है।
हमारे क्रोध युक्त मगज में जब उष्णरक्त उछला करता है तब हमारी भावना और शब्दों का अंकुश में रखना बहुत कठिन हो जाता है उसको हम सब जानते हैं परन्तु क्रोध के दास बनना यह कितना भयङ्कर काम है उसको भी हम लोग जरूर जानते हैं तो भी क्रोध के दास बनने से हमारा स्वभाव बिगड़ जाता है
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और हमारी कार्य शक्ति संकुचित हो जाती है इतना ही नहीं परन्तु हमको बहुत लज्जा भी उत्पन्न होती है कारण कि जो मनुष्य अपने कार्य को अंकुश में नहीं रख सकता है उसको स्वीकार करना पड़ता है कि वह स्वयम् अपनी आत्मा का स्वामी नहीं है।
यदि तुम थोड़े मिनटों के लिये भी अपनी सदसद्विवेक बुद्धि के सिंहासन पर से नीचे उतरो और तुम्हारी पाशव वृत्ति को राज्य करने दोगे तो तुम्हारे लिये मामला बहुत भयङ्कर हो जायगा । अक्सर मनुष्य बार २ मिजाज खोदेने से पागल हो गये हैं।
जिस मनुष्य को विश्व के समस्त बलों का स्वामी बनने का जन्म मिला है वह सदसद्विवेक बुद्धि के सिंहासन पर से उतरे और स्वयम् तत्काल के लिये मनुष्य नहीं तथा अपने कार्यों को अंकुश में रखने को अशक्क है तथा नीच तथा हलके काम करता है मर्मघात करनेवाले घात की शब्द बोलता है और सम्पूर्णतः निर्दोष मनुष्य के मगज पर उपहास का उष्ण बाण फेंकता है वह मनुष्य बहुत पतित होता है । जो मनुष्य अपने उत्तमोत्तम मित्र को प्रहार करता है अथवा उसको घातकी शब्दों से मर्मघात करता है वह कितना उन्मत्त है विचार करो।
__ क्रोध यह तात्कालिक उन्माद ही है । जिस राक्षस को जीवन अथवा कीर्ति के लिये आदर नहीं है और जो एक मनुष्य को, उसके उत्तमोत्तम मित्र को जरा भी विचार किये बिना मारने की आज्ञा देता है उसके पंजे में जब तक वह रहता है तब वह अवश्य उन्मच होता है।
बालक अनुभव से जलनेवाली उष्ण वस्तुओं और कटनेवाली लीक्षण धारवाली वस्तुओं से दूर रहना सीखता है परन्तु हमारा रक्त शोखनेवाले और कभी २ दिन के दिन पर्यन्त और कभी २ सप्ताह पर्यन्त हमको अधिक वेदना देनेवाला गरम मिजाज से दूर रखना अक्सर पुख्तवय के मनुष्य भी नहीं सीखते हैं। :: जिस मनुष्य ने योग्य विचार प्रणाली और आत्म संयम की चाबी हस्तगत की है वह अपने शारीरिक शत्रुओं से अपना संरक्षण जिस तरह से कर सकता
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है । इसी तरह वह अपने मानसिक शत्रुओं से भी अपना संरक्षण कर सकता है। वह जानता है कि जब मगज आवेश से गरम हो जाता है तब क्रोध और गुस्सा कर उसमें विशेष लकड़ी डालने से अच्छा परिणाम नहीं आता है परन्तु शान्ति स्वस्थता और गंभीरता से विचार करने से ही अच्छा परिणाम आसकता है
और इससे मगज की उष्णता निवृत करने के लिये उसी उपाय का अवलम्बन करता है। विरोधी विचार अति शीघ्रता से मानसिक अग्नि को शान्त कर देता है। जब हमारे पड़ोसी के घर में आग लगी हो तब हम अग्नि को शान्त करने के लिये घासलेट का डिब्बा लेकर नहीं जाते हैं हम उसके ऊपर केरोसीन नहीं डालते हैं परन्तु पानी छोड़ते हैं तो भी जब एक बच्चा गुस्से हुआ हो तब हम उसमें बलतन डाल कर उसकी क्रोधाग्नि को शान्त करने का प्रयत्न करते हैं। बालकों को यथावत् विचार करते सीखाना चाहिये उनको प्रात्म संयम की शिक्षा देने से बहुतसा दुःख, बहुत से गुन्हा और बहुत सी अवर्णनीय यातनाएं बंद करा सकते हैं। ___ हम एक मनुष्य को कीचड़ में पड़ा हुआ बाहर निकलने को तड़फता देखते हैं तो जरा भी रुके बिना उसको बचाने को दौड़ जाते हैं हम उसको अधिक धक्का देकर उसके दु:ख के भय में वृद्धि करने का विचार नहीं करते हैं परन्तु जब एक मनुष्य किसी भी तरह से गुस्से होता है तब हम उसकी क्रोधाग्नि शान्त करने का प्रयत्न करने के बदले मात्र आग में बलतण को वृद्धि करते हैं तो भी गरम मिजाज का मनुष्य स्वयं जिस कार्य को करने को शकिमान नहीं होता है उस कार्य को करने में अपने आपको अंकुश में रखने में और पीछे से उनको बहुत संताप हो ऐसे शब्द बोलने में उनको सहायता करते हैं उसके लिये वह बहुत बार उनका प्राभार मानता है । __ जब तुम अपने निकट एक ऐसे मनुष्य को देखो कि जिसका उग्र क्रोध फटने की तैयारी में हो और जब तुम जानते हो कि वह अपने आप को अंकुश में रखने का जहाँ तक हो सके उत्तमोत्तम प्रयत्न करता है तब तुम प्रदिप्त हो जाय ऐसे पदार्थ डालने के बजाय उसको सहायता क्यों नहीं करते हो । . ऐसा करने से तुम उसकी बहुत सेवा बजा सकोगे इतना ही नहीं परन्तु तुम अपनी मात्मसंयम करने की शक्ति को भी हद कर सकोगे । जो मनुष्य
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श्रात्मसंयम नहीं कर सकता है वह यंत्र बिना का नाविक है। वह प्रत्येक वायु की लहरों की दया पर रहता है । प्रत्येक प्रवेश का तोफान, प्रत्येक निरंकुश विचार तरंग उसको इधर उधर भटकाया करती हैं, उसको मार्गच्युत करती हैं और उसको उसके लक्ष्य स्थान पर नहीं पहुँचने देती हैं ।
श्रात्मसंयम यह चारित्र का प्रधान अंग है । अत्यन्त छेड छाड़ के प्रसंग पर जरा भी मिजाज खोये बिना शान्ति और दृढ़ता पूर्वक सीधी दृष्टि से देखने को शक्तिमान होने से हमें जितना सामर्थ्य प्राप्त होता है उतना सामर्थ्य हमें दूसरी किसी भी वस्तु से प्राप्त नहीं होता है तुम एक बार नहीं परन्तु हमेशा स्वयम् के स्वामी ही हो ऐमी प्रतीति से तुम्हारे चारित्र को जितनी महत्ता, बल और पुष्टि मिलती है उतनी दूसरी किसी वस्तु से नहीं मिल सकती | विचार पर स्वामीत्व प्राप्त करने से तुम अपने आप के स्वामी बन सकते हो ।
भाभी का ताना
ले० बनोरिया जैन मेवाड़ी
ग्रीष्म ऋतु के दिन थे। दोपहर का समय था । धूप तेजी से पड़ रही थी । ऐसे समय में एक युवक अपने सिर पर कपड़े की गठरी और हाथ में कपड़े धोने की मुग्दल लिए हुए अपनी धुन में मस्त चाल से नदी की ओर से चला आ रहा था। घर आकर अपने सिर से कपड़े की गठरी नीचे रखी और मुग्दल को एक ओर कोने में रख शान्ति लेने नीचे बैठा ।
पाठक यह युवक अन्य कोई नहीं भावसार जाति का टीमाणीया गौत्र का "वीर विक्रमसी" था । उसका निवास स्थान महान तीर्थ श्री शत्रुंजयगिरि की शीतल छाया में रहा हुआ पालीताने में था वह विस्तार परिवार वाला था, किन्तु उसके स्त्री न थी । उसके माई तथा भाभी आदि कुटुम्ब में थे । वे सभी एक ही साथ रहते थे और कपड़े रंगने का धन्धा कर अपना निर्वाह चलाते थे
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(४ ) प्रति दिन के नियमानुसार आज भी प्रातःकाल उठ कर विमक्रसी नदी पर धोने गया और कार्य समाप्त होने पर घर लौट आया। श्रम के कारण विक्रमसी को क्षुधा ने अधिक सताया । उसको दूर करने के लिए उसने शीघ्र ही हाथ-पांव घोए और जल का लोटा भर कर रसोड़े में गया, किन्तु वहां रसोई का कुछ ठिकाना न दिखाई दिया। किसी कारण भोजन में विलम्ब हो गया। जब विक्रमसी रसोड़े से बिना भोजन किए बाहर निकला तो उसका मस्तिष्क फिर गया, क्षुधा देवी से पीड़ित हुमा हुआ विक्रमसी क्रोधावेश में आकर बोल उठा, क्या माज दोपहर होने पर भी अब तक भोजन नहीं बना ? घर पर बैठे क्या इतना भी काम नहीं बनता ? दूसरा कार्य ही क्या है ? मैं आज तुमको सूचित कर देता हूं कि यदि भविष्य में ऐसा हुआ तो ठीक न होगा, इत्यादि शब्द बोलने लगा। विक्रमसी किञ्चित क्रोधावेश में आकर नहीं कहने के शब्द कह गया। भाभी ने भी गुस्से में आकर उसका प्रतिकार किया और कहा कि मेरे पर इतना जोर क्या जमाते हो ? यदि अधिक बल हो तो आओ और सिद्धा. चलजी की यात्रा मुक्त करो। उस समय सिद्धाचलजी के मूलनायकजी की ढूंक पर एक सिंह रहता था। उसके भय से यात्री ऊपर नहीं जाते थे। इस कारण लगभग यात्रा बन्द थी। "उस सिंह के समक्ष जाकर अपना पराक्रम दिखाओ" ऐसा भामी ने ताना मारा।
विक्रमसी सच्चा वीर था, सच्चा युवक था। उसकी रग रग में वीरता का लहू भरा हुआ था। भला वह वीर भाभी का ताना किस प्रकार सहन कर सकता था। वह अपने स्थान से उठा और प्रण किया कि "जहां तक सिंह को मार कर सिद्धाचलजी की यात्रा मुक्त न करूंगा घर न लौटूंगा।" ___ उपर्युक्त शब्द कहते हुए विक्रमसी अपने कपड़े धोने की मुग्दल लेकर घर से बाहर निकला । मार्ग में जो स्नेही मिलते वे मी साथ होगये।
विक्रमसी सिद्धाचलजी की तलेटी के निचे आकर खड़ा रहा। वहां ठहरे हुए यात्रियों के संघ एवं स्नेहियों को इस प्रकार कहने लगा कि, मैं पहाड़ के ऊपर रहे हुए सिंहको मारने जाता हूँ। सिंह को मार कर मैं घंट बजाऊंगा उसकी आवाज सुनकर आप समझ लेना कि, मैंने सिंह को मार डाला है। यदि घंट की आवाज न सुनाई दे तो मुझे मरा हुआ समझना । ऐसा का
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( 82 )
विक्रमसी कमर बांध पहाड़ पर चढ़ने को उद्यत हुआ। वहां ठहरे हुए जम समुदायको भाव युक्त नमस्कार किया और विदा ले पहाड़ पर चढ़ना आरम्म किया । सबकी दृष्टि उसी के ऊपर पड़ रही थी । देखते देखते विक्रमसी अदृश्य होगया ।
विक्रमसी सिंह मारने की प्रबल भावना को लेकर एक के बाद एक पहाड़ की सीढ़ियों को पार कर रहा था। गर्मी एवं श्रम के कारण उसके कपड़े पसीने में तरबतर होगये थे | ज्यों ज्यों वह ऊपर चढता था, त्यों त्यों उसकी भावना भी आगे आगे बढ़ कर प्रबल होती जाती थी । इस प्रकार विक्रमसी पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया ।
समय ठीक मध्यान का था। गर्मी में सूर्य की तेजी का क्या कहना | सिंह शान्ति लेने के लिये एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे निद्रा में घोर हो रहा था । विक्रमसी भी वहां जा पहुंचा और अपने हृदय में कहने लगा कि सोते हुए पर वार करना निर्बल तथा कायरों का काम है । अतः उसने सिंह को ललकार कर उठाया। सिंह अपनी शान्ति भंग करने वाले की ओर लपका. विक्रमसी भी उसका प्रतिकार करने को तैयार ही था। उसने भी शीघ्रता से अपने हाथ रही हुई मुग्दल का उनके मस्तक पर एक ही वार ऐसा किया कि सिंह की खोपड़ी चूर-चूर हो गई। उसके सिर से रक्तधारा बहने लगी, तथापि वह पशुओं का राजा था । वह भी अपना बदला लेने को उद्यत हुआ। वह खड़ा हो विक्रमसी की ओर झपटा। विक्रमसी घण्ट की ओर दौड़ कर जहां घण्ट बजाने जाता है इतने ही में तो सिंह का एक पंजा विक्रमसी पर ऐसा पड़ा कि, वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। एक ओर विक्रमसी पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर सिंह। दोनों ही आखरी स्वांस ले रहे थे । विक्रमसी को मरते २ विचार हुआ कि, मेरी मनोकामना तो पूरी हो गई, किन्तु नीचे के व्यक्ति क्यों कर जानेंगे कि, मैंने सिंह को मार दिया है ।
उपर्युक्त विचार आते ही विक्रमसी ने अपने पास रहे हुए कपड़े को शरीर के घाव पर मजबूत बांध दिया और लड़खड़ाता हुआ खड़ा हुआ और खूब
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जोर से घंट बजाने लगा। उस घण्ट की विजय नाद के साथ साथ उसकामासिरी स्वांस भी चला गया; उसका नश्वर शरीर उसी स्थान पर गिर पड़ा। ... इस प्रकार वीर विक्रमसी अपना जीवन अर्पण कर सिंह को मार सिद्धाचल
जी की यात्रा खुली कराकर यात्रियों को सिंह के भय से बचाया। परोपकारी विक्रमसी ने आत्म समर्पण कर नश्वर शरीर को छोड़ कर अपना नाम अमर कर दिया। . आज भी उसका स्मारक शश्रृंजय पर्वत पर कुमारपाल राजा के मन्दिर के सामने पाम्र वृक्ष के नीचे मौजूद है। उसके ऊपर वीर नर के योग्य सिन्दूर की पोशाक शोभा दे रही हैं। सुना जाता है कि आज भी टीमाणिया गोत्र के भावसार नवविवाहित वरवधूलों के छेड़ा छेड़ी वहीं खोलते हैं। । अब जब मैं शचुंजय की यात्रा करने जाता है तब उस वीर विक्रमसी के स्मारक को भाव पूर्ण नमस्कार करता हूं; उस समय वीर विक्रमसी की वीर कया मेरे समक्ष खड़ी हो जाती है; और हृदय से सहसा यह उद्गार निकलते हैं 'धन्य वीर विक्रमसी तूने ही भाभी के ताने को सचा कर दिखाया" । इतिः
बनोरिया जैन मेवाड़ी
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(५)
पंच और पंचायत
लेखक-भीमाशङ्कर शर्मा, वकील, सिरोही।
"ब्रह्मज्ञः सत्यसंघः परधनतरुणीनिस्पृहः कर्ममर्म । ज्ञातादातातपाता गणितबहुकलाशिल्पवित् सूत्रधारः॥”
__–'कश्यप-संहिता'
श में कहो या समाज में कहो, पञ्च और पश्चायत अत्यन्त पवित्र द माने जाते हैं। पञ्चायत-पद्धति, एक या दूसरे रूप में, करीब २ RAAH संसार के समस्त समाजों में दृष्टिगोचर होती है। कर्ता और ___ कर्म की तरह पञ्च और पञ्चायत का युगल अर्थात् जोड़ा है। संसार में जितनी पवित्र से पवित्र चीजें या संस्थाएँ हैं, उन सब में पंचायत संस्था अधिक पवित्र है। पंचायत का दूसरा अर्थ सामाजिक स्वराज्य है। पंचायत में बैठने वाले पंच प्रेमभाव से, एकचित्तता से, एक स्थान में बैठ कर न्याय, नीति
और धर्म से समाज के कल्याण का कोई भी कार्य करें, उसका समाज में प्रचार करें, समाज के किसी मार्गभूले व्यक्ति के दोष का हाल दोनों तरफा सुन और किसी भी पक्ष के प्रति रागद्वेष नहीं बताते हुए, निष्पक्ष भाव से दूध का द्ध
और पानी का पानी कर देने वाला न्यायशासन ( फैसला ) उसको सुना देवें, यदि वह शिवा ( दण्ड ) के योग्य हो तो हृदय में दयाभाव को स्थान देकर
और उसको सुधरने का अवसर प्राप्त हो ऐसी शिक्षा सुनावे इत्यादि २ ऐसे कार्य करें जिन से समाज की व्यवस्था भली प्रकार बनी रहे, उसीका नाम है पवित्र पंचायत पद्धति । पंचायत प्रथा का सदुपयोग कर दिखाना यह देश, समाज और ।।
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( ५२ ) जाति को पवित्र, प्रभावशाली और संघठित बनाने जैसा समाज के हित का एवं उसकी उन्नति करने का उत्तम कार्य है। पंचायत का दुरुपयोग करना अर्थात् उसमें पक्षपात को या रागद्वेष को स्थान देना या उसके पवित्र नाम को कलङ्कित करने के समान है । आज कल हमारा समाज इस पवित्र प्रथा या संस्था का सदुपयोग कर रहा है या दुरुपयोग इस विषय में मैं आज कुछ लिखना नहीं चाहता। इस विषय पर दूसरे किसी लेख में ऊहापोह करूंगा । उस समय मैं हमारे समाज की वर्तमान पंचायतप्रथा का खाका खींच कर पाठकवृन्द के सामने रखूंगा । आज कल हमारे समाज में किस प्रकार पंचायत हो रही है और उससे समाज का कल्याण हो रहा है या अकल्याण, यह बात मैं तब स्पष्टरूप से लिपिबद्ध करूंगा ।
आजकल हिन्दू समाज के भिन्न २ अंगो के प्रति दृष्टिपात करने पर मालूम होता है कि क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या जैन, सर्वत्र श्रव्यवस्था नजर आती है । समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको पंच या न्यायाधीश मानता और मनाता है । यह बात ठीक नहीं है। जहां सभी न्यायाधीश हॉ वहां पंचायत का शासन किस पर किया जाय ? जिस समाज में घर २ पंच हों, उस समाज में अधेर और अव्यवस्था नहीं हो तो और क्या हो सकता है भला ? इस रीति से न भूत काल में किसी समाज को लाभ हुआ न भविष्य में होने की आशा की जा सकती है। भारत के प्राचीन इतिहास को देखने से मालूम होता है, कि बहुत पुराने जमाने में और थोड़े - ( १०० - २००) सौ दोसौ - बरसों पहले घर २ पंच नहीं थे । न आज कल के जैसा हमारे समाज में अन्धेर का साम्राज्य ही फैला हुआ था । यह अव्यवस्था या गड़बड़ कुछ अर्से से हुई है और जो समाज की उन्नति के मार्ग में बड़ी भारी रुकावट समान खटक रही है । यदि यह अव्यवस्था शीघ्र ही दूर नहीं होगी, तो इससे समाज का कितना अकल्याण होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है ।
घर २ पंच होने से पंचायत सभा में समाज के हित के लिये जो २ प्रस्ताव किये जाते हैं, उनका अमल नहीं होता है । समाज का प्रत्येक व्यक्ति, नकेल टूटे हुए ऊँट की तरह, अपनी २ मरजी माफिक बर्ताव करने लग जाता है और पंचायत के प्रस्ताव केवल कागजों पर ही रह जाते हैं। इससे समाज की उन्नति रुक जाती है ।
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(५३) : दर असल समाज की पंचायत का प्रत्येक सदस्य अर्थात् पंच एक सम्मान नीय न्यायाधीश (जज) है । वह न्याय के पवित्र आसन पर बैठ कर उस पदवी को प्राप्त होता है। उस पंच में क्या २ गुण होने चाहिये. उसकी क्या योग्यता होनी चाहिये और समाज में उसका क्या स्थान (दर्जा) होना चाहिये, इस विषय में प्रस्तुत लेख में मैं कुछ शब्द लिखना चाहता हूं। __पंच कैसा होना चाहिये या उसकी योग्यता कैसी होनी चाहिये इसका उल्लेख करने से पहले मैं एक आदर्श न्यायाधीश का उदाहरण लिख देना उचिक समझता हूं।
पेशवा सरकार की राज-सभा (पूना ) में श्रीराम शास्त्री नामक एक बड़ा विद्वान्, निस्पृह और सत्यवादी ब्राह्मण था। यह शास्त्री सब से बड़ा न्यायाधीश माना जाता था। न्याय का ऐसा अनन्य उपासक इस जमाने में ढूंढने पर भी मुश्किल से मिलेगा । वह बड़ा बेपर्वाह, नीतिमान् और धर्मात्मा था। सत्य बात कहने में वह किसी का खयाल नहीं रखता था। जो कुछ होता मुंह पर साफ २ सुनाने में वह किसी से नहीं डरता था। अर्थात् वह जैसा सत्यवक्ता था वैसा ही स्पष्टवका भी था। न्याय, नीति और धर्म अनुसार स्पष्ट बात कहते हुए वह बड़े २ राजधुरन्धरों से भी नहीं हिचकता था। ___ मराठों के इतिहास के अवलोकन से मालूम होता है कि नारायणराव पेशवा का खून हुआ और वह उसके चाचा राघोबा ने राज्यलोभ से प्रेरित होकर कराया। बाद में वह पेशवा होकर पूने की गद्दी पर बैठा। पेशवा सरकार ( राघोबा दादा ) ने आपके इस न्यायाधीश को एक दिन पूछा " महम पेशवा ( नारायणराव ) की हत्या का अपराध मुझ पर लगाया जाता है, इस महान् पाप कृत्य का प्रायश्चित्त ( दण्ड ) क्या है ? पहले मुझे यह भी बताइये कि क्या तुम भी मुझको पेशवा का वधक ( खूनी ) समझते हो"?
.. इस पर श्रीराम शास्त्री ने निडर हो कर जवाब दिया कि "दादा साहब! मेरे स्पष्ट वक्तव्य के लिये मैं श्रीमान् से क्षमा चाहकर कहूँगा कि मैं भी उन लोगों में से हूँ जो श्रीमान् को पेशवा नारायणराव की हत्या कराने वाले समझते हैं। श्रीमान ने राज्यलोभ से प्रेरित होकर ब्रह्महत्या * का महापाप किया है। - * मराठों की पूना की गद्दी पर आनेवाले पेशवा जाति के ब्राह्मण थे और वे प्रधान पदसे कपट से राजपदपर आरूढ हुए थे।
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श्रीमान् के प्रादेश से ही वधकों ने महम पेशवा का जीवन-नाटक समाप्त किया है। इस अघोर पाप का दण्ड देहान्त-प्रायश्चित्त के सिवाय दूसरा नहीं है।" ... “यदि मैं ऐसा नहीं करते हुए शासन-भार उठाता रहूँ तो मेरे लिये दूसरा कोई उपाय है ?" पेशवाने पूछा । ....... - :: “यदि यही बात है, तो जब तक आपका शासन रहेगा, मुझको पूना में रहना अनुचित होगा।"
इतना कहते ही न्यायाधीश श्रीराम शास्त्री ने राघोबा की राजसभाका त्याग किया और जब तक उसका शासन रहा वे पूना में नहीं आये । न्यायाधीश हो तो ऐसा हो । न्याय का कार्य पवित्र से भी पवित्र कार्य है। इस में किसी का मुलाहिजा देखना या पक्षपात करना न्याय, धर्म और नीति के उज्ज्वल नाम को कलंक लगाने के उपरान्त परमेश्वर के अपराधी होने बराबर है।
पेशवा सरकार, कि जिसके नाम से सारा भारतवर्ष काँप रहा था, जो अपना अन्नदाता मालिक था, जिममें क्षणमें किसी को उन्नति के उच्च शिखरपर चढ़ाने की या अवनति के गहरे गड्ढे में गिराने को प्रबल शक्ति थी, उसके सामने भी श्रीराम शास्त्री ने सत्य कथन करने में लेश मात्र पक्षपात नहीं किया। उन्होंने न्याय का शासन, जो वास्तविक में बड़ा ही कठोर था, निडर होकर सुनाया अपने धर्म का पालन किया; नीति की रक्षा की और न्यायाधीश यानी पंच की अपनी पवित्र पदवी की शोभा, गौरव और महत्त्व को बढ़ाया । धन्य है, ऐसे न्यायमूर्ति नररत्न को !
त्यायाधीश या पंच में क्या २ सद्गुण होने चाहिये इस संबंध में 'कश्यपसंहिता' नामक प्राचीन ग्रन्थ में जो श्लोक लिखा है, वह इस लेख के प्रारंभ में ही दिया गया है । उसका भावार्थ इस प्रकार है कि पंच ब्रह्मज्ञ अर्थात् अनुभवी, सत्य बोलने वाला, पराये धन और स्त्री के विषय में निस्पृह या विरक्त, कार्य के रहस्य को जानने वाला, दाता, दीनदुःखियों को बचाने वाला, गणित, नाना प्रकार की कलाएं और शिल्प आदि को जानने वाला और समाजरूपी नौका को सही सलामत खेने वाला होना चाहिये । पंच के इन लक्षणों का कुछ विस्ता. रित विवेचन नीचे किया जाता है ।
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(४५)
ब्रह्मज्ञा अर्थात् अनुभवी । पंच अनुभववान् होना चाहिये । किन २ बातों का अनुभव होना चाहिये, इस संबंधमें कहा है कि
'पुराकृतं तु यत्तस्तद् ब्रह्मेति प्रचक्षते।' पहले पंचायत के कार्यों का जिन्होंने अनुभव किया हो, उनको ब्रह्मज्ञ कहते हैं। उसकी अवस्था योग्य अर्थात परिपक्व होनी चाहिये । अपना एवं अपने कुटुम्ब परिवार का जिसने अच्छी तरह पालन पोषण किया हो । ऐसे लक्षणों से युक्त पंच को शास्त्रमें ' ब्रह्मज्ञ' कहते हैं ।
सत्यसंघः अर्थात् सत्य बोलने वाला । सत्य बोलने का अर्थ यह है कि मुँह में से निकला हुआ बचन सदा के लिये टिकने योग्य हो । उसमें कुछ काल के बाद मिथ्यात्व प्रवेश न कर सकता हो । जैसे 'अ' नामक शख्स उत्तर को खींच रहा हो और 'ब' दक्षिण की ओर जाता हो, उसमें 'क' दोनों को समझा कर उनमें चिर काल तक स्थायी रहने वाली एकता करादे, उस हालत में 'क' 'सत्यसंघ' कहलायगा । केवल सत्य भाषण की अपेक्षा सत्यसंघ शब्द में ज्यादा गूढार्थ भरा हुआ है।
परधनतरुणी निःस्पृहः अर्थात् विरक्त । पंच होने वाले पुरुष को अपने चित्त में दूसरों की सुन्दर और खूबसूरत स्त्रियों की और धन की लालच नहीं रखनी चाहिये । संसार में कई प्रकार के प्रलोभन हैं; उन प्रलोमनों में पंच कहलाने वाले व्यक्ति को नहीं फंसना चाहिये । प्रलोभनों में फंसने वाला अपने कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाता है। वह अपने धर्म या ईमान से हाथ धो बैठता है। संसार में जितने प्रलोभन हैं उन सब में पर-स्त्री और पर-द्रव्य का प्रलोभन सब से अधिक यानी जबरदस्त माने जाते हैं। सन्त कवि तुलसीदास ने इसीलिये कहा है कि.... "'तुलसी' इस संसार में, कौन भये समरथ्या
इक कञ्चन दुति कचनतें, जिन न पसारे हथ्य ?”
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कामिनी और काँचन के प्रलोभन में नहीं फंसने वाला शख्स ही दूसरों पर विजय प्राप्त कर सकता है और उसी का अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात् जो कनक और कान्ता के मोहपाश में नहीं फँस सके, वही पंच होने या कहलाने योग्य होता है।
कर्ममर्मज्ञाता अर्थात् काम की खूबी या रहस्य को जानने वाला। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई छिपा भेद या तरकीब अवश्य होती है। उस तरकीब या भेद को जानने वाला शख्स ही कार्य को अच्छी तरह कर सकता है। कार्य को ऐसी सावधानी से किया जाय जिससे उसमें किसी प्रकार की त्रुटि न रहे और न एक पार करने के बाद उसको वापिस देखना पड़े।
दाता अर्थात् दान देने वाला यानी उदारात्मा। पंच होने वाले शख्स में लेने की भावना नहीं होनी चाहिये । लेने की इच्छा रखने वाला निष्पक्ष न्याय नहीं कर सकेगा। फिर उदारता कई प्रकार की होती है । सार्वजनिक कार्य करने वाले को अपनी निन्दा भी बरदाश्त करनी पड़ती है। यह मानसिक उदारता की बात हुई। कोई अपने को भला कहे या बुरा कहे वह पंच कहलाने वाले को सब सहन करना चाहिये। गीता के आदेशानुसार उसको 'तुल्य निन्दा स्तुतिः' होना चाहिये।
मातपाता अर्थात् दीन दुःखियों की रक्षा करने वाला। अगर उसमें ऐसी योग्यता म हो तो कम से कम ऐसी भावना तो अवश्य होनी चाहिये । वास्तविक बात तो यह है कि जिसके हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति न हो, उसको चाहिये कि वह पंचायत जैसे सार्वजनिक कार्य में कभी न पड़े। सहानुभूति रहित पंच से दूसरों का हित-साधन कदापि नहीं हो सकेगा। इसलिये दूसरों के दुःख को देखकर स्वयं दुःखित होने वाला शख्स ही पंच की पवित्र पदवी को प्राप्त कर
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गणित बहकला शिल्पवित् अर्थात् गणित शास्त्र, शिल्प शास्त्र और दूसरी नाना प्रकार की कलाओं का जानने वाला। कलाओं के जानने से आदमी चतुर होता है । वह, कल्पना शक्ति के प्रताप से, अपने सामने उपस्थित हुई बात की सत्या-सत्यता का निर्णय कर सकता है । गणित को जानने वाला शख्स व्यवहारिक या पक्का (Practical) होता है। पंच होने वाले व्यक्ति में इन बातों का ज्ञान होना आवश्यक है।
सूत्रधारः अर्थात् संभालने वाला या संचालन करने वाला। समाजरूपी नौका को कुशलता से खेनेवाले नाविक रूपी पंच का नाम ही सूत्रधार है। रंगमंच पर खेलेजानेवाले नाटक के पात्रों में से किस को कौन मी भूमिका ( Part ) सोपना यह जैसे नाटक के सूत्रधार के हाथ में होता है, उसी प्रकार समाज में किस व्यक्ति से क्या काम लेना और समाज को इष्ट या उन्नति के मार्ग में लगाना पहपंच रूपी सूत्रधार के हाथ में होता है। इस प्रकार पंचों के आवश्यक सद्गुणों का विवेचन कर अब मैं प्राचीन पंचायत-पद्धति का संक्षेप में वर्णन करना चाहता हूँ।
पंच कैसे चुने जाते थे ? . प्राचीनकाल में समाज या जाति में से योग्य व्यक्तियों को चुन लिया जाता था। देवमन्दिर में सब लोग एकत्र होकर आदर्श चरित्रवाले और ऊपर लिखे गुणों वाले व्यक्तियों के नाम की चिहियें एक घड़े में डालते थे। पूजा समाप्त होने के बाद एक २ चिट्ठी उसमें से निकाल कर पुजारी के हाथ में दी जाती थी। पुजारी उसमें लिखे हुए नाम को उच्च स्वर से सबको पढ़ सुनाता था। जिस नाम के सम्बन्ध में किसी का विरोध नहीं होता था यानी जिसको बहुमती(Majority) की अनुमति मिलती थी, उसी व्याक्ति को चुन लिया जाता था। इसमें किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होता था। जो लोग यह कहते हैं कि प्राचीन भारत में आजकल के जैसी चुनाव की प्रथा (Election System) नहीं थी, वे विश्वगुरु भारत की प्राचीन पंचायत संस्था के उज्ज्वल इतिहास से सर्वथा मनमिज्ञ अर्थात् अनजान है। भारतीय समाज के स्वराज्य का वास्तविक खयाल करानेवाली इस प्राचीन पंचायत-प्रथा या संस्था का इतिहास बहुत ही देखने योग्य है। क्या ही अच्छा हो यदि इस आदर्श प्रथा का पुनरुद्धार किया जाय ?
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( ५८ )
श्री सम्मेत शिखर संघ - पोरवाल ज्ञातीय साह धूलचन्दजी खुशालचन्दजी डोडुभावाले कालन्द्री निवासी की तरफ से ता० २२-१२-१६३३ ई० को स्पेशयल द्वारा संघ सम्मेत. शिखरजी जायगा जिसकी आमंत्रण पत्रिका नीचे माफिक उनकी तरफ से सब जगह भेजी गई है अतएव जिस किमी को संघ में जाना हो उपरोक्न संघ पति से पत्र व्यवहार कर जाने का निश्चय करें। संघ के सञ्चालन (Organiser) का काम संघपति ने अखिल भारतवर्षीय पोरवाल महासम्मलन के महामंत्री के सुपूर्द किया है अतएव वे भी इस संघ में जाएंगे। संघ का विस्तृत विवरण और संघपति का फोटू मय जीवन चरित्र के आगामी अङ्क में दिया जायगा ।
॥ श्री सर्वज्ञाय नमः॥ श्री सम्मेतशिखर तीर्थाधिराज यात्रार्थेश्री संघ आमंत्रण पत्रिका
॥श्री कालंद्री नगरे ॥ स्वस्तिश्री पार्श्वजिनं प्रणम्य
-नगरे महाशुभस्थाने श्री सम्यक्त्वादि द्वादश व्रतधारक, दया दान दाक्षिण्य विवेकयुक्त, श्री जिनाज्ञा प्रतिपालक, श्री जिनशासनोन्नतिकारक, श्री सुविहित संविज्ञगीतार्थ सद्गुरु चरणोपासक, एवं अनेक प्रशस्त गुणगणोपात, परमपूज्य श्री संघ समस्त चरणान् प्रति----------
अत्र श्री कालंद्री सुं लि. शाह धुलचन्द खुशालचंदजी डोडावाला सपरिवारका जयजिनेन्द्र बंचावसीजी
अपरंच अत्र श्री देवगुरुधर्म के पसाय से आनन्द मङ्गल वर्ते हैं, माप श्री सकल संघका सदा आनन्द मङ्गल चाहते हैं। वि० विनंति के साथ सहर्ष निमंत्रण किया जाता है कि आप श्री संघ सहपरिवार श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थाधिराज की यात्रार्थ पधारने की कृपा करेंगे।
१-श्री संघ के प्रस्थान का मुहूर्त सम्बत् १९६० मिति पौष वदि १ रविवार ता०३-१२-३३ के रोज किया जायगा और पौष बदि ८ रविवार ता० १०-१२-३३ के रोज गांव श्री डोडुआ में प्रथम मुकाम होगा।
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( ५६ )
२ - श्री संघ की रवानगी रेल्वे स्पेशयल ट्रेन से होगी। रेल्वे स्पेशियल ट्रेन चार जिसमें टिकिटे बारह सौ (१२००) दी जायगी। जिन यात्रा प्रेमियों को तीर्थयात्रा की अभिलाषा हो उन्हें मार्गशिर्ष सुद ११ सोमवार ता० २७-११-३३ तक रेल्वे टिकिट हमारे यहां श्री कालंद्री से रुपये भेजकर मंगवाने की कृपा करें बाद टिकिट ओफिस बन्द किया जायगा ।
३ - टिकिट संख्या बारह सौ बट जाने के बाद ज्यादा टिकिट नहीं मिलेंगे, वास्ते फौरन मंगवाने की तस्दी उठावेंगे ।
४ - गांव श्री डोडुआ से रवाना होकर
५ - स्टेशन एरनपुरा रोड से ता० २२-१२-३३ पौष सुद ६ शुक्रवार के रेलवे स्पेशियल चार द्वारा श्री संघ रवाना होकर आगरा में दिन १ कानपुर में - दिन १ और इलाहाबाद, इसरी स्टेशन होकर श्री शिखरजी में पहुंचेगा, वहां पर दिन ८ का मुकाम होगा ।
६ – श्री शिखरजी से वापिस गिरडी स्टेशन होकर कलकत्ते में दिन ३ रहेगा, वहां से अजिमगंज में दिन २ मुकाम किया जायगा। वहां से भागलपुर "मैं दिन २ लखेसराय में दिन २ का मुकाम करके संघ बखतियारपुर को जावेगा, वहाँ पर दिन १० ठहर कर पंचतीर्थ की यात्रा कर बनारस में दिन ३ ठहरेगा, वहां से अयोध्याजी में दिन १, दिल्ली में दिन २, जयपुर में दिन २, अजमेर में दिन १ ठहर के वापस स्टेशन एरनपुरा रोड श्री संघ पधारेगा ।
७ - इस मुसाफिरी में आने जाने का हमारे तरफ से रेल्वे टिकिट के रुपये २७) रक्खे गये हैं सौ रुपये दाखिल कर टिकिट ले जाने की कृपा करें ।
ऊपर माफिक आने जाने के नियम रक्खे गये हैं, सो इस शुभ अवसर पर आप सर्व स्वधर्म प्रेमीजन सपरिवार पधार कर श्री संघ की शोभा में और हमारे हर्ष में वृद्धि करें । सम्वत् १६६० मिति
लि० शाह धूलचन्द खुशालचन्दजी डोडयावाला
का जय श्री केसरियानाथजी की बंचावसीजी.
मोट: -- कालिंदी आनेवाले महाशयों को श्री सज्जन रोड ( बी. बी. एम. सी. आइ, रेल्वे ) स्टेशन उतरना चाहिये. वहां से कालन्द्री २५ माईल है. मोटर, बेलगाडी वगैरह का साधन स्टेशन
मिला है.
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॥ॐ॥ मेरी सम्मेतशिखर यात्रा और अनुभवी अपील प्रिय महानुभावो ! यह तो अपूर्व आनन्द की बात है कि जिस महान् पवित्र सम्मेतशिखर गिरिराज पर श्री अजितादि अनन्त उपकारी अनेक अर्हन्तों ने
आत्मानन्द की अनुपम दशा प्राप्त की है, जिसके आस-पास का क्षेत्र महान् त्रिलोक्यभानु श्रमण भगवन् श्री महावीर देव जैसे ( World Teacher ) विश्व गुरु का जन्म दाता होने से संसार की सर्व पुण्यभूमियों में प्रमुख स्थान धारण कर ऐतिहासिक शोभा में अभिवृद्धि कर रहा है, जिस अनुपम क्षेत्र पर निर्मल जल धारा के रूप में मन्द मन्द गति से बहने वाली रिजुवालिका नहीं अपने किनारे पर उक्त त्रिलोक्य भानु के पूर्ण ज्ञान ज्योति के प्रकाश का स्थान समझ अपने को गंगा से विशेष पवित्र मानने का गौरव रखती है, जहाँ पर मनोहर मधुवन, वायु के वेग से खल खल करते हुए हरे हरियाले पत्तों से सुशोभित सुन्दर वृक्षों के नीचे, महाप्रभु महावीर देव को अपूर्व आत्म-ध्यान किया हुआ समझ इन्द्रलोक के नन्दनवन को नीचा दिखा रहा है। जहाँ के विशुद्ध वातावरण का शीतल वायु पापीजनों के तृष्णा रूपी ताप को शान्त करने में बावना चन्दन का कार्य कर रहा है, अर्थात् हर तरह से इस रमणीय भूमि की सौन्दर्यता भव्यात्माओं के हृदय को उल्लासित कर रही है, ऐसी देवभूमि के दर्शनार्थ जाने के लिये कुछ दिन पूर्व यात्रियों के मन में मार्ग की कठिनाइयों का संकल्प विकल्प होता था, वहाँ के जलवायु का हानिकारक असर होने का हर एक हृदय में भूत जैसा भ्रम था, परन्तु जब से पुण्यात्माओं ने संघ यात्रा निकालना शुरू किया तब से सालाना हजारों यात्रिगण इस देव भूमि के दर्शन का लाभ उठाने लगे और सारा भ्रम दूर हो गया। रास्ता अब ऐसा सुलभ और सरल समझा जाता है कि जहाँ पर जाने के लिये अच्छे २ अक्लमन्द आदमी भय खाते थे अब तो अनपढ़ स्त्रियां
भी निर्भयता से जाने लगी हैं और केवल इस वर्ष में गुजरात मारवाद से लेग, भग दस बारह स्पेशल ट्रेनें गई हैं और अभी जो दो स्पेशल ट्रेनें कालिन्द्री निवासी . सेठजी श्री धूलचन्दजी साहिब की एरिनपुरा रोड़ से गई थी, उस प्रसंग पर मुझे : . भी इस महातीर्थ के दर्शनार्थ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और यात्रा मार्ग में
जो कुछ मुझे अनुभव हुमा, उसको सेवा बुद्धि से प्रदर्शित करना उचित समझ
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(१) ह लेखनी हाथ में ली है इसलिये चीर नीर न्यायेन सज्जन वर्ग इसका अवलोकन करेंगे ऐसी आशा है । . मेरे कहने का खास तात्पर्य यह है कि आज भी हमारे समान में अपने तीर्थों के लिये जितना पूज्य भाव और बहुमान होना चाहिये उतना अवश्य है। तीर्थ मार्ग में द्रव्य खर्च आदि से जितनी उदारता दर्शानी चाहिये उतनी अवश्य है। तीर्थ यात्रा में मक्ष अभक्ष पेय अपेय और बाह्यचारित्रादि से जैसी शुद्धि रखनी चाहिये उतनी अवश्य है और तपजपादि दैनिक क्रियाकाण्ड भादि से दैहिक कष्ट जितना उठाना चाहिये वैसा भी अवश्य है, इत्यादि बातें मैंने यात्रियों में अपने नजरों से देखी हैं इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि हेमन्त ऋतु जैसे शीत काल में जब कि पुरुष और स्त्रियं अपने निवास स्थानों में प्रातःकाले बिस्तरों में से मुंह भी नहीं निकालते हैं तब तीर्थ भूमि पर पहर रात्रि पहिले निद्रा का त्याग कर अहन्त भगवन्त को जोर २ से नमस्कार करते हुए तथा करेमिभन्ते का पाठ उच्चरते हुए नजर आते हैं, हिम सम शीतल पर्वत पर क्या वृद्ध क्या बालक रात्रि के अन्त भाग में हाथ में लाठी लिये हुए उंचे नीचे साँस से हा हा करते चढ़ते हुए नजर आते हैं, त्रिय चार २ बजे उठकर मङ्गल प्रभाति गीतों से गगन मण्डल को गुंजाती हुई नजर आती हैं, बालक वृद्ध सब उपवासादि नाना प्रकार के तप करते हुए नजर आते हैं और भण्डारादि में पैसे जमा कराने के लिये येलियों के मुंह खोल कर छन २ रुपये बजाते हुए नजर आते हैं जिसका एक प्रत्यच उदाहरण मेरे नजरों से देखा है कि केवल कालिन्द्री संघ के यात्रियों ने पूज्य उपाध्यायजी श्री मंगलविजय नी महाराज के दो घड़ी के व्याख्यान के प्रभाव से श्री सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक फण्ड में रु० २३०००) ( तेविस हजार) देंने की उदारता दर्शाने में विलम्ब नहीं किया अर्थात् उदारतादि अनेक गुण और अनेक प्रवृत्ति में हरतरह से हमारे समाज की अनुकरणीय और अनुमोदनीय है इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु साथ २ खेद पूर्वक दाना पड़ता है ।के एक त्रुटि हमारे समाज में ऐसी नजर आती है जो सुन्दर देह में नेत्र की त्रुटि के समान है यानी हमारे में विचार शक्ति अथवा चिन्तवन शक्ति का प्रायः विशेष अभाव नजर आता है और उसी कारणवशात् हमारा हर एक कार्य में तन और धन का पूर्ण भोग होते हुए भी आज हमारे जैन समाज की शोचनीय परिस्थिति नजर आती है, मगर जो तन, धन के साथ मन का उपयोग साथ में मिला हुआ होता
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(६२) मे जैन शासन रूपी सूर्य का प्रकाश सारे संसार में चमक उठता और करोड़ों मात्मबन्धु अपने आत्मोन्नति के मार्ग में आगे बढ़ते हुए नजर पाते। परन्तु हमारे में मानसिक शक्ति का अभाव होने से हमारे जैन शासन के चारों तरफ अविवेक रूपी किल्ले की दिवारें ऐसी मजबूत बन गई हैं कि शासन की सुनहरी चमकीली किरणों की झलक तक भी जगत के नजर नहीं आती। आज श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ यात्रा जाने वाले हजारों यात्रियों में से शायद थोड़े ही मिलेंगे कि जिन्होंने जैन धर्म के ( Original home or motherland ) प्राचीन केन्द्र स्थल रूप अथवा मातृभूमि रूप मगध देश और गंगासिन्धु के मध्य प्रान्तों में भ्रमण करते हुए प्राचीन और अर्वाचीन जैन शासन की तुलनात्मक परिस्थिति
की कल्पना करने में ऐसा शायद ही मानसिक उपयोग दिया होगा कि अहो ! -जिस क्षेत्र में पूर्व काल में परमात्म स्वरूप परमोपकारी तीर्थंकर भगवन्तों ने अनुपम मानव देह को प्राप्त कर धर्मरूपी वृक्ष को रोप कर उसके मधुर फल सारे संसार के प्राणी मात्र को खिला कर उनका पालन किया था, जहाँ पर भरत, सगर, कृष्ण और जरासिन्धु जैसे चक्रवर्ती, वासुदेव भोर प्रतिवासुदेव आदि अनेक अन्तिोपासक महापुरुषों का नीति कुशल साम्राज्य था, जहाँ पर राजगृही, चम्पापुरी, अयोध्या और मिथिला आदि जैन धर्म के धाम रूप बड़े २ नगर थे, जिन नगरों में वायु के साथ वार्तालाप करती हुई धजायें और चमकते हुए सुनहरी कलशों से सुशोभित शिखरों को धारण करने वाले देवविमान तुल्य गगनचुम्बी जिनप्रसादों में बजते हुए घण्ट नाद अखिल लोकाकाश को जैन शासन की जयध्वनी से गुंना रहे थे, जहाँ पर खल खल करते हुए निर्मल जल के चांदी के समान झरों से सुशोमित पर्वत श्रेणियों की भयङ्कर कन्दराओं में कपवना, करकंडु, नन्दिषेण, अरणिक भईमुत्ता, अवंतिसुकुमाल, स्थूलिभद्र, प्रसनचन्द्र राजर्षि और मेतार्य महर्षि जैसे हजारों मुनि महात्माओं के मस्त भावना में मुख कमल से निकलते हुए "नई अह" शब्दोच्चार का सुगन्ध समस्त भूमण्डल के अशुद्ध वातावरण को विशुद्ध बना रहा था जहां पर रंग विरंगी पशुपंखियों के निकेतनम् रूप और नाना प्रकार की प्राकृतिक सौन्दर्यता से सुशोभित वन उपवन और उद्यानों में सुवर्ण काल पर विराजनेवाले परमज्ञानी गौतम और केशीगणधर जैसे विश्वबन्धु की मेव के धन घोर घटा की गर्जना समान अमूल्य देशना द्वारा अनेक भव्यात्मा रूपी मयूरों के मन प्रफुल्लित हो रहे थे, जहां पर
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(३ ) श्रेणिक. चटक और दसाणभद्र आदि जैम अनेक जैन धर्मगधक नगेन्द्र सम्राटों के न्याय सम्पन्न गज्य में रह कर श्रानन्द कामदेव और पुणियाजा जैसे धर्मधारी श्रावक धर्म को पालन करते हुए जैन शामन की शामा बढ़ा गं थे, जहां के प्राम-ग्राम और नगर-नगर में कीडियों की तरह गड़ा जैन घूमते हए दृष्टिगोचर होते थे। हाय अफमाम ! हाय भूमि का दाग्य ! हाय विषम काल ! माण हमार ममाज व धर्म की कमा पतिन दशा है कि कगड़ा में में आज उसकी मान भूमि में सैकड़ों भी नजर नहीं आते । अफमाम ! अब कानसा रास्ता लेना चाहिय. कमा आन्दोलन अथवा (Propaganda) प्रचार काय करना चाहिये कि जिससे हमारा उन्थान हावं, हमारी उन्नति होव, हमाग अभ्युदय होवे। अगर ऐसी कल्पना की होती तो मैं दाव के साथ कहता हूँ कि एसी कल्पना समाज में हृदय भेदक दुःख उत्पन्न किये बिना रहती नहीं और उस दुख के निवारणार्य प्रचण्ड आन्दोलन समाज में चले बिना रहता नहीं और अन्य ( Mission Societies) धर्म प्रचारक समाजों की तरह से एक आध ( Mission Society) धर्म प्रचारक समाज स्थापित हुमा नजर आता और सारे संसार में उसकी (Branches) शाखाएं खुली हुई नजर माती। सैकड़ों उपदेशक स्टीमर यात्रा करते हुए अथवा युरोप अमेरिका के बर्लिन हेमवर्ग, न्युयोक और पेरिस जैसे (Intellectual homes ) बुद्धिवादी संस्कृति के प्रधान स्थान रूप नगरों की गरियों में जैन धर्म के (Universal brother hood) विश्ववात्मल्यता के झण्ड को धारण कर घूमते हुए और विश्वोपकारी वीर के अमूल्य ( Message of mercy ) अहिंमात्मक सन्देश को विश्वव्यापि बनाने में भरसक प्रयत्न करते हुए नजर आते। परन्तु हमारे समाज को अभी तक अपने अधः पतन का भान भी नहीं हुआ अथवा हमारे समाज के मानसिक क्षेत्र में ऐसी (Problem) समस्या को स्थान ही नहीं दिया गया, नहीं तो बड़ी बड़ी समस्यायें मंसार में हल होती है तो इस समस्या ( Problem) को ( Solve ) हल करने का मार्ग भी अवश्य मिलता। मेरा तो जहां तक अनुभव है कि जैन धर्म प्रचार का जसा सुअवसर अब समाज को प्राप्त हुआ है वैसा दूसरे समाज अथवा धर्मानुयायियों के लिये नहीं है और उसके ( Reasons) कारण निम्न दर्शित है।
.. (१) आधुनिक संसार ( Scientific Research ) वैज्ञानिक शोध खोलं में दिन २ आगे बढ़ रहा है और जैसे २ (Scientific developement) वैज्ञानिक
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( ४ )
समति होती जाती है और सूक्ष्म २ शोधखोलें ( Discoveries ) होती जाती ह और सामान्य मानव बुद्धि चकित होने लगती है. वे ही बातें जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थों (Manuscripts) में सैकड़ों वर्ष पूर्व से मिलती हैं जैसे (Science) विज्ञान सब से बड़ी ( Atomic and molecular theory) परमाणुवाद की मान्यता, परमाणु की गति परमाणु का शक्ति परमाणु की अनंत धमात्मक गुण, वनस्पति में रही हुई आहार मैथुन आदि संज्ञायें, भाषावर्गणा के पुद्गल और लोकाकाश में उनका भ्रमण, (Medium of motion & rest ) धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय, रात्रि में उत्पन्न होते हुए सूक्ष्म जन्तु ( Ephemeral germs श्रर जलबिन्दु में असंख्यात जन्तु श्रादि अनेक वैज्ञानिक बातें जैन धर्म के साथ धनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं और जैन धर्म का पूर्ण प्रभाव विज्ञान पर पड़ रहा है, जैन धर्म के इस वैज्ञानिक विषय को लिखने के लिये एक बड़े ग्रन्थ की आवश्यक्ता है इस छोटे से लेख में सविस्तृत वर्णन करना अशक्य है ।
(२) आधुनिक संसार पर सब से बड़ा संकट (Calamity) होवे तो केवल आर्थिक स्थिति का है. क्योंकि मशिनरियों के अविष्कार से निरुद्यमापना बहुत बढ़ गया है और लोग अनावश्यक परिग्रहवादी होगये हैं इसलिये जैन धर्म का देशविति के अमूल्य सिद्धान्त अहिंसा, सत्य ब्रह्मचर्य, अस्तेय और निस्परिगृह आदि के प्रचार सिवाय इस प्रश्न को ( Solve ) हल करना अत्यन्त कठिन है । अगर इन अमूल्य देशावेरति सिद्धान्तों का प्रचार होने में विशेष विलम्ब हुआ तो जगत का आर्थिक के साथ २ मानसिक और शारीरिक प्रचण्ड हानि पहुंचेगी इस में कोई सन्देह नहीं ।
१ ( ३ ) आधुनिक संसार को आकर्षित करने वाले और जैन धर्म जानने की जिज्ञासा उत्पन्न करने वाले घर बैठे गंगा जैसे समाज के पास दो भव्य स्थान साधन रूप हैं। एक तो माउंट आबू ( Mount Abu ) के अनुपम शिल्प कला के केन्द्र स्थानरूप जिनालय और दूसरा कलकत्ते में रायश्री बद्रीदामजी की वाटिका का मनोहर मंदिर । ये दो स्थान में ऐसी आकर्षण शक्ति है कि गवर्नर जनरल से लगाकर सामान्य व्यक्ति तक चाहे देशी हो या विदेशी हो, कलकत्ता या माउंट आबू आवे तो इन दोनों स्थानों पर आये बिना नहीं रहते । माउंट आबू पर तो मेरा स्वानुभव है कि वहां आकर ( Visitors ) प्रेक्षक लोग आश्चर्य
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( ६५ )
सागर में डूबते हैं और हर्षित् भाव से शीघ्र प्रश्न करते हैं कि जैन धर्म क्या है ? उसके ( Fundamental Teachings ) मुख्य सिद्धान्त क्या हैं? परन्तु अफसोस ! न तो वहां पर अपने समाज के तरफ से कोई उपदेशक रहता है और न ऐसा कोई (Literature or tracts) साहित्य अथवा निबन्ध वहाँ उन लोगों को बांटा जाने का साधन है कि जिसमें से वे अपनी कुछ जिज्ञासा पूरी कर सकें । उनके उस समय की जिज्ञासावृत्ति का क्या वर्णन करें। इन बातों के समझने के लिये वे लोग राजपूताना होटल से रुपये देकर एक ( Interpreter ) दुभाषिये को लाते हैं और वह स्वार्थी केवल उनको खुश करने के लिये मन माना झूठा वर्णन (Misinterprettion) बतलाता है। जिस (Carvation) कारिगीरी में जैन धर्म के पूर्व ऐतिहासिक विषय का महत्त्व हो, उसको कुछ का कुछ बतलाता है, जैसे भगवान् श्री ऋषभदेव की मूर्ति को भीम की मूर्त्ति बतला देता है, अम्बिका आदि अधिष्ठायक देव की मूर्त्ति होवे उसको उसकी औरत बतलाता है और जब वे लोग भगवान् श्री के जीवन के आदर्श तथा सिद्धान्त सम्बन्धी प्रश्न करते हैं तो बतलाता है कि इसने बहुत से राक्षसों को मारे हैं इसलिये हिन्दू लोग इसको पूजते हैं। हाय अफसोस ! क्या करें, कहां विश्वोपकारी तीर्थंकर देवों का आदर्श जीवन और उनके विश्वकल्याणकारी अनुपम सिद्धान्त ! परन्तु हमारे में स्वमताभिमान न होने से यह दुःख सहन करना पड़ता है। जैसा हाल माउन्ट भाबू पर है उसी तरह ( Visitors ) प्रेक्षक लोग कलकत्ते के उक्त जैन मंदिर में भाकर भी जैन धर्म जानने की जिज्ञासा से धर्म सम्बन्धी प्रश्न पूंछते हैं परन्तु वहां भी कोई उपदेशक या साहित्य का साधन नहीं है । कलकत्ते में तो सुबह से शाम तक ( Visitors ) प्रेक्षकों का मेला जमा रहता है और हजारों की संख्या में श्राते जाते हैं। अगर इन दो स्थानों पर अच्छे उपदेशक और साहित्य अथवा छोटे २ ट्रेक्टों के बांटने के साधन कर दिये जावें और मुख्यतया युरोपीयन, पारसी और बंगाली आदि पढ़े लिखे प्रेक्षकों के ( Complete address ) पूरे पते ले लिये जावें और बाद में ( Correspondance ) पत्र व्यवहार द्वारा तथा साहित्य भेजने आदि से सम्बन्ध जारी रखा जावे तो जैन सिद्धान्तों की सत्यता में स्वभाविक ऐसी अपूर्व शक्ति है कि सहज ही में विश्वव्यापी बन जावें इसमें कोई श्राश्वर्य जैसी बात नहीं है ।
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( ६६ ) .. (५) आधुनिक संसार में आज भी जैन समाज के पास अच्छा धन है जो कि कुछ दिन पूर्व तो बहुत ही ज्यादा था, इसलिये लार्ड कर्जन साहिब को कहना पड़ा था कि भारत का आधे से ज्यादा धन जैनियों के पास है । परन्तु अब भी काफी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है और उसके साथ २ एक बड़ा गुण हमारे समाज में ( Generosity ) उदारता का है। तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो जैन समाज भारत की एक ( Philanthropist Community ) उदार कोम है। आज भी लाखों रुपये खर्च ने की उदारता शक्ति जैसी हमारे जैन समाज में है. वैसी औरों में कम नजर आती है। सिर्फ शंका यह है कि उस धन का ( Mis-use or proper use ) यथार्थ उपयोग होता है या नहीं। वो एक दसरा सवाल है परन्तु यहां तो उदारता की प्रशंसा है। बाकी जितना पैसा स्वनाम सेवा के लिये खर्चा जाता है उतना स्वधर्म सेवा के लिये खर्चना शुरु कर लेवे तो सहज ही में जैन धर्म प्रचार अखिल संसार में हो सका है। यदि ( Public institutions ) साधारणोपयोगी संस्थाओं को स्थापित कर हर तरह से संसार की सेवा बनाने का लक्ष हो जावे तो कोई तरह से धर्मप्रचार असम्भव नहीं है। ___अपने धर्मप्रचारार्थ मानसिक शक्ति का उपयोग देकर स्कीम बनाने बैठे तो सैकड़ों मार्ग नजरों के सामने आते हैं, परन्तु सबसे पहली बात हमारे में स्वनाम सेवा का मोह कम होना चाहिये । मुझे तो केवल इस समय की सम्मेत शिखर यात्रा के अनुभव से कहना पड़ता है कि अखिल भारत का जैन समाज तो बहुत बड़ा है, परन्तु सिर्फ एक बङ्गाल प्रान्तवासी कलकत्ता और मुर्शिदाबाद के समाज भूषण पुरुष ऐसे हैं कि यदि वे धारे तो बहुत कुछ कार्य कर सक्ने हैं, क्योंकि जैसे वे धनवान हैं वैसे विद्वान भी हैं और राजा महाराजाओं की तरह उनका उस देश में बड़ा प्रभाव है और उच्चे २ पद प्राप्त करने में धारा सभाओं तथा म्युनिसिपालिटी आदि राजतंत्रिक स्थानों में मान प्राप्त करने के लिये और अपने सांसारिक सुखों के साधनरूप बड़े २ महलात, सुन्दर बाग बगीचे बनाने में उदार हृहय से जो द्रव्य खर्च करते हैं उसी तरह स्वधर्म सेवा के लिये खर्च ने लग जावे तो अनेक आत्माओं का उद्धार कर सक्ते हैं। मेरे जानने में आया है कि बङ्गाल व बिहार, उड़ीसा में लगभग पचास हजार मनुष्य हैं जो अपने को
आग कहते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्व काल में उनका जैन श्रावक होना सम्भव होता है क्योंकि आज भी उनके रीति रिवाज जैनों जैसे हैं, वे मांसाहारादि
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नहीं करते हैं परन्तु उनको अपने धर्म का पता नहीं है। अगर उनका उद्धार करना हो तो थोड़े परिश्रम से शीघ्र हो सकता है। साथ २ एक बात और है कि बङ्गाल देश में मांसाहार तथा बलिदान की प्रथा बहुत बुरी नजर आती है परन्तु अभीतक उसको रोकने वाली वहां बम्बई अथवा मद्रास जैसी कोई भी (The Humanitarian League) अहिंसा प्रचारक संस्था नहीं है। बम्बई मद्रास की संस्थाओं ने थोड़े ही दिनों में लाखों प्राणियों को अभय दान देकर तथा हजारों मनुष्यों का मांसाहार छुड़ा कर जैन धर्म के अनुपम अहिंसा सिद्धान्त की अपूर्व सेवा बनाई है तो बङ्गाल का जैन समाज ऐसी संस्था खोले तो विशेष सफल हो सकता है क्योंकि बम्बई और मद्रास वाले तो केवल व्यौपारी हैं और बङ्गाल वाले बड़े २ जमीनदार हैं इसलिये उनका प्रभाव विशेष होना सम्भव है। इसलिये खासकर मेरे यात्रा के अनुभव से बङ्गाल प्रान्तिय जैन समाज का इम नम्र अपील द्वारा इस तरफ लक्ष खींचता हूँ कि वे कृपाकर जैन धर्म तथा उनके अमूल्य सिद्धान्तों के प्रचार कार्य का मंगल मुहूर्त जैन धर्म की मातृभूमि में ही पहिले करने के लिये कटिबद्ध हो जाने और शासन सेवा का अपूर्व सौभाग्य प्राप्त करें। साथ २ हमारे पूज्य श्राचार्यों और अखिल भारतीय जैन समाज के नेतामों से भी नम्र निवेदन है कि जैन धर्म को जननी रूप मगध बंगलादि क्षेत्र में पधार कर जैन संस्कृति वृक्ष पुनः रोपने में तथा धीरे २ उसके मधुरं फल अपने पूर्वजनों की भांति अखिल संसार को खिलाने में अपना परम कर्तव्य समझ उसके लिये भरसक प्रयत्न करें, ऐसी भाशा में यह लेख लिखा है, क्योंकि ( Census Figure ) जन संख्या रिपोर्ट देखने से जैन समाज दिन २ घटता हुआ नजर आता है करोड़ों से अब लाखों में रहा है और उसको भी नाश करने वाले अनेक हानिकारक रिवाज ( Evil customs ) घुसे हैं इसलिये भविष्य शताब्दियों ( Centuries ) में शायद ही जैन धर्म का अस्तित्व रहना सम्भव है। इसलिये जोर देकर लिखना पड़ता है कि समाज में ( Jain Missionary work ) जैन धर्म प्रचारक कार्य की अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिये हे मेरे पूज्य नेताओं ! जिस धर्म के प्रसाद से धन, बुद्धि और कुटुम्बादि सब प्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है अर्थात् अमूल्य मानव जन्म मी उस धर्म के. प्रताप से मिला है तो उस परमोपकारी धर्म की सेवा बजाने में त्रुटि नहीं रखना यह प्रथम कर्त्तव्य समझे। केवल धर्म के साधन बनाने से धर्म की रक्षा नहीं हो
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सकती। साधकों की प्रथम जरूरत है, कहावत है कि 'न धर्मो धार्मिकन बिना' अपने मंदिर या मूर्तियें बनाना मी जब ही सार्थक होगा कि तब उनके साथ २ इनके पूजने वाले भी रहेंगे। प्रभु की बाह्य भक्ति बहुत की परन्तु अब मार्ग प्रभावना द्वारा प्रभु की अभ्यंतर भक्ति करने की आवश्यकता है। केवल वैद्य के प्रति विनय बहुमान रखने से बिमारी नहीं मिटती है परन्तु वैद्य की दर्शाई हुई औषधी सेवन करने से ही बिमारी मिटेगी। इसलिये अब विलम्ब रहित धर्मोद्धार की चिन्तन शक्ति का विकास कर उसको यथार्थ क्रियात्मक रूप देने का प्रयत्न कर इसमें आपका और अनेक आत्म बन्धुओं का कल्याण है और तब ही आपका "जैन जयति शासनम्" का उद्गार सफल होगा। बस, अविनयादि त्रुटि के लिये बमा याचना करता हुआ विरमता हूं। ॐ शांति ! शांति !!
भवदीय समाज सेवकरिषभदास बी. जैन,
सम्पादक 'महावीर'
वक्तव्य
पोरवाल समाज के अग्र गण्य सज्जनों ने अपनी ज्ञाति का सुधार करने के लिये हाल ही में श्री पौरवाल ज्ञाति सुधारक मण्डल बम्बई में कायम कर जो ठहराव अपनी ज्ञाति सुधार के लिये किये हैं वे निःसंदेह प्रशंसा के पात्र हैं। आशा है कि पोरवाल -ज्ञाति सुधारक मण्डल इन सुधारों को कार्य-रूप में रखने का प्रयत्न करेगा ताकि इससे पोरवाल जाति का तो सुधार होगा ही परन्तु साथ में रहने वाली दसरी जाति भी इसका अनुकरण करने लगेगी। हम एक दम इस विषय में ज्यादा नहीं लिख सकते, ज्यों २ मण्डल प्रगति करता जायेगा त्यों २ हम आपको इसका विशेष परिचय कराते रहेंगे ।
मण्डल की तरफ से जो पत्रिका नं० १ निकली है उसको ज्यों का त्यों इसी तरा के प्रस्ताव अपने २ प्रान्त में अमल में लाने के लिये नीचे देते हैं।
सम्पादक।
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( ६ )
* श्री *
श्री पंचों ने विनंति पत्र
सिद्ध श्री
महाशुभस्थानं विराजमान अनेक शुभोषमा लायक साहाजी श्री पंचा समस्यारी योग्य सेवामें लिखतु श्री मुंबई सु श्री पोरवाल ज्ञाति सुधारक मण्डलरी जै श्री केसरीयानाथजीरी बंचावसीजी, अप्रंच इण पत्र साथै 'सामाजिक रिवाज परिवर्तन' पत्रिका १ ली भेजी है, सो इसरो अमल दरामद आपने पहुंचतोहीज होजाखो जरूरी है, आप श्रीमानाने अच्छी तरह सुं विदित हैं के, समयरा पलटा सुं आपणी समाज कन्या- विक्रय आदि सामाजिक कु-रिवाजांरे कारण नाना प्रकाररा दुःख सहन कर रही है. इ आफत सुं बचणरे वास्ते कई किस्मरा उपाय लिया है, मगर भाज दिन तक सफलीभूत नहीं हुवा ।
अब व्यापाररी दुर्दशा देखतां आपणी समाज में बढ़ियां हुआ फजुल खर्चा दिन प्रति दिन बढ़ता ही जावे है सो भी एक समाजरा घातक समान है, इतरोहीज नहीं, निभावणा भी मुश्किल हो गया है। जिससुं तात्कालिक कमती कर वास्ते आ एक छोटीसी योजना, अठे एक मण्डल मुकरर कर तैयार किवी है ने और भी बहुतसा छोटा-बड़ा सुधारा करणरी जरूरत है सो भो मंडळ सामाजिक सुधारोंरे वास्ते हरदम कटिबद्ध रेवेला ।
योजना मारवाड़ मेंईज साराई गाँगांरा पंचाने भेळा कर तैयार करणी जरूरी थी, पीण आपने वाकिफ है, के मारवाड़ में इतरा गांव इकट्ठा करणा बोत मुश्किल है. और पणा कुल गांवांवालोरी दुकांनां अठे होकरण सुं ने भो काम आसानि सुं तह होवणारी सुरत देख आ योजना तैयार किनी है।
है
इण पत्रिका में सात गांवांरा मेम्बरांरा नांम छपचुका है ने कितराईक गांवांरा मेम्बरांरा नांम मां रे कने आए गया है तथा कितराईक गांवांस ग्रांम भावणा पत्रिका में नहीं छपीया है, सो साराई नांम अमां सुं मिलसिलावार लिस्ट तैयार कर आपरी सेवा में भेज देवला, साथ साथ आपने अर्ज है के आपरा गाँवरी मुंबई में दुकांनो हुवे उणां महेितुं योसेम्बरोरा नांम मुकरर कर भेज दिरावो तो बहुत ठीक रेवेला !
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(0) पण पत्रिका माफिक रिवाज प्रापरा गांव में पत्रिका पंहुचताहीज कायम हो जाणा चाहिजे, आखिर मारवाडरी मिती चैत्र वद १ पेली पेली ए रिवाज कायम कर देसीजी।
'. कदाचित इण ठहरावों सुं अथवा गांव में दुना कोई कारण सुं भिन्नमाव होवे तो मारी आपने सविनय अर्ज है के, समाजरी स्थिति ऊपर विचार कर कुल भिमभाव अलग-मेल ए रिवाज कायम कर लिरावसी। । - इण शिवाय कोई नवा सुधारा वधारा करावणा हुवे अथवा इण में कोई फेरफार करणो जच तो, ए रिवाज कायम करने इण मंडल में सूचना दिरावे साके पागा सुं उणपर विचार कर सुधारा-वधारा कराया जावेला।
इण मंडल द्वारा श्री मुंबईरा संघरी आपने दर्दभरी अर्ज है के, एक वक्त इण पत्रिकारे माफिक रिवाज महेरबानी कर चालु कर दिरावसीजी। इण सुं भापणी समाजने बहुत फायदो पहुंचेला, अधिकेन किंतु संवत् १९६० रा. फागण वद १२. नोट:-पापरा चोकदारा गाँवांमे इण माफिक रिवाज कायम करणरी इत्तिला दे दिरावसी।
लि० श्री पोरवाल ज्ञाति सुधारक मंडल।
* श्री *
सामाजिक रिवाज परिवर्तन
पत्रिका १ ली. प्रकाशक, श्री पोरवाल ज्ञाति सुधारक मंडल, बम्बई.
सुज्ञ बन्धु गण .... मापात अब नक्कि हो गई है के, प्रापणी समाज अनेक कुरूढियारे कारण जो तकलिफाँ सहन कर रही है, एडी तकलिफा शायद ही उंच गिणनाति हुई मातियाँ ने भुगतणी पडती वेला । ।। इणसे कारण स्पष्ट है के, समय परिवर्तनरे साथ साथ वे पोतारा सामाजिक रिवाज भी बदलवाहिज रेवे है। . .. ...
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समय ोलखांण
समय परिवर्तन-शील है इस बात ने जो बराबर ओलखि होती तो, आज आपणी समाजरी घोर दुर्दशा हुई है वा नहीं होती ।
जमानारे प्रतिकूल चालण सुंहीज, आज विचित्र दशा अनुभव रया हाँ, ओर आर्थिक व शारिरिक शक्ति से नाश कर रया हाँ ।
कन्या - विक्रय
अनेक कुरिवाज में कन्या विक्रयरो नम्बर पेलो है। इस राक्षसी प्रथासुं आन घर घर में आग प्रदिप्त हो गई है । समाजरी हर एक व्यक्ति इसे हताश होकर कृष-काय हो गई है ।
स्फुर्ति और क्रांति इस जालिम रिवाज हवा हो गई है ।
संख्या में घाटो
इरी बदौलत आज बहुतसा कुटुम्बरा नाम निशान नहीं है, कई इथा पृथ्विरी पट पर सुं मिटिया मेट होवरी तैयारी में है ।
निरंकुश कन्या- मूल्य देवण में अशक्त होवणसुं श्राज सैकड़ों नव युवक अविवाहित मौजूद हैं।
संख्या घटबारो श्रो मुख्य कारण है, अगर माहिज हालन चालू रखेला तो इस बातरी दृढ शंका है के, भविष्य में आंपणी ज्ञातिरों दुनिया में नाम रेणो मुश्किल है।
हाल का है
सदभाग्य री बात है के, हाल तक सामाजिक सत्तारो काबु ठीक है इच्छा नहीं हुवे तो भी अनेक अयोग्य रिवाज निभावण वास्ते द्रव्य और शक्तिरो भोग देखा है।
मगर दुर्दशारी भी हद होणी चाहिजे, अब भी समाज नहीं चेतेला तो, वो समय बहुत नजदीक है के रही सही सत्ता भी निर्मूल हो जावेला और पारावार भापति बढ जावेला ।
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(७) आज समाज में कोई युवक बाँतर-जातीय विवाह करणरा विचार कर रया है, कई विधुर विधवा-विवाह करण पर जोर दे रया है, इतरोहिज नहीं इणरे वास्ते ज्ञातिने तिलांजलि देणी पड़े तो देवण ने तैयार है। एडी भावना अब सीमा तक पहुंच गई है, अठै विचार करणो चाहिजे के, जो काबू टूट जावेला तो कोई स्थिति होवेला।
राज सत्तारी जरूरत अनुभव सिद्ध है कि, अब कन्या-विक्रय री घोर प्रथा समाजसत्ता संबंध नहीवेला ने बंध करणरो केवल एक उपाय मात्र राज-सत्ता है, मा प्रथा भावी साजरोहीज निकंदन कर रही है, इतरोहिज नहीं है पण प्रोसवाल समाजरी भी घोर घातक है।
यदि दोई कोमग अगुवा इस काम मे हाथ में लेके तो उमेद है कि राजसत्ता इणमें जरूर मदद करेला।
.. ... ... नरेशाँने प्रार्थना ___ मरूधर और सीरोही नरेशोंने सविनय प्रार्थना है के इण दोई रियास्तारी मैन प्रजा दुष्ट कन्या- विक्रय रा रिवाजसुं घोर आंतरिक दुःख भोग रही है, सो बहुत जल्दी कन्या विक्रय नहीं करणरा कडा कानून बणाय, दुःख मुक्त करणी चाहिने।
जा तक मो दुष्ट भूत जैन समाजरा पिंडमें कायम रेवेला सुख रो संचार नहीं होवेला।
व्यापाररी दुर्दशा भाषणी कोमरो सारोई भाधार व्यापारी चढती पडती उपर है, और अब की बात भी बतावणरी जरूरत नहीं है के दुनियारी सर्व व्यापी मंदीमुं अंपणी कठा तक खराबी हुई है।
एक बर्फ मा हालत, दुसरी तरफ समाजिक रिवाजानुसार फजूल खर्च विभाइयो और तीसरी कांनी वे भी खोपरियाँ समाज में मौजूद हैं के नवी २, साकिबोरा -रिवाज दाखिल कर फजूल खर्चारी परंपरा बढाय रया है।
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( ७३ )
परिणाम प्रो आय रह्यों है के, सामान्य स्थितिवालों ने भी इसरो अनुकरण करो पड़े है ।
इच्छा नहीं होवे तो भी इज्जतरे खातर खाड में उतरणों पड़े ।
नेता
प्रभाव
अफसोस है के, आज समाज में कोई निःस्वार्थ नेता नहीं, ना कोई प्रखर विद्वान, नहीं कोई व्यवस्थित सुधारक मंडल के वे समाजरी गिरी हुई दशासे अवलोकन कर योग्य रस्ता पर लावे, मार्ग दर्शक बने ।
निराशा में आशा
मंजूर करणो पडेला के समाज में थोडा सज्जन एडा भी जरूर मौजूद है के इण करूण हालत सुं उपारो दिल पसीज जावे है । और समय पर सभा-सोसाइटियां भर इस दुर्दशारो अंत लावणरी कोशिश करे है मगर आज तक कोई सफलता हासिल नहीं हुई ।
निष्फलतारो कारण
निष्फलता रा कई कारणों में मुख्य कारण तो आज समाज में विघ्न संतोषियांरी भरमार है. अच्छे बुरेरा खयाल कीयां बिना इणोंरो एक मात्र दोज हो गयो है के हर सामाजिक कार्य में विघ्नं खडो करदेखो ।
समाज में आज निंदाखोरोंरी भी कसर नहीं है, समाजरा पतनरी ए भी एक अंग है । भावी इणोंने सन्मति देवे ।
फिर कोशिश
समाजरी बिगड़ी हुई दशा अधिक बिगड़ती देख कुछ सज्जनोरे उपर बुरी असर हुई और कोई व्यवस्थित मंडलद्वारा फिर कोशिश करणरी कमर कसी ।
स्थल निर्णय
चूंकि एडा सामाजिक सुधारणा मारवाड़ में हीज सब गांवांरा पंचाने एकत्रित कर करना जरूरी था ।
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७४)
मगर आ पद्धति खर्चाल समय री अधिक बरबादी, और निष्फलता रो संदेह होवय सुं, बम्बई इण कार्योंरे वास्ते योग्य प्रतीत हुई ।
सामान्य मिटिंग
गत पोश सुद १२ ने श्रादिश्वरजी महाराजरा सभारा पंचोरी धर्मशाला में श्रीमान रिषबाजी दोलाजी लुणावा बालोंरी अध्यक्षता में बाली, लुणावा, बिनापुर, विसलपुर, मुंडाडा और खुडालारा आगेवानों री एक सामान्य मिटिंग हुई और समाजरी गिरी हुई दशारो दिग्दर्शन करायो गयो ।
और मंडल तथा सुधारोंरी योजना तैयार करण वास्ते १२ सजनौरी एक कमिटी नियुक्त की गई। वे पोष सुद १२ ने श्रीमान प्रेमचंदजी गोमाजीरी पेढी उपर इकट्ठा होय योजना तैयार कर, पोष सुद १५ री मिटिंग में पेश कर देवे । इस ठहराव रे नीचे पांच गांवरा करिब २५ अगुरा दस्तखत हैं। पोष सुद १५ री मिटिंग
पोष सुद १२ रा ठहरावानुसार सुद १५ ने श्रीमान् रिखबाजी दोलाजी री अध्यक्षता में मिटिंग हुई। और कमिटी नीचे माफिक ठहराबोरी योजना पेश किनी ।
ठहराव १ लो
सामाजिक कु-रिवाज मिटावण ने तथा सुधारोंरो अधिक प्रचार कर वा
मंडलरी स्थापना ।
मंडलरो नाम
कार्यवाहक
"श्री पोरवाल जाति सुधारक मंडल "
लुणावा
शा० रिखबाजी दोलाजी
नमलजी हीराजी,
99
शा० चंदानी खुशालजी " भिमाजी गुमनाजी,
विजापुर
शा० भिखाजी भगाजी
" उदयचन्दजी प्रेमचन्दभी
शा० हीराचन्दजी चन्दानी" राजिंगजी नेमाजी
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शा० प्रेमचंदजी मोमाजी. ... सेसमलजी किस्तुरचंदजी,
शा. भिकमचन्दबी भगाजी
वरदिचंदनी किशनानी
मुन्डाडो
शा० नथमलनी जेठाजी शा० किशनाजी भगाजी , कालुरामजी मोहनलालजी , जसाजी नवलाजी
-- विसलपुर शा० पूनमचंदजी चंदाजी शा० फोजमलजी उदेचंदजी , नथुजी अमीचंदजी
लिखमाजी रूपाजी
धुखी .
शा. कानाजी नवलाजी,
शा० चेलाजी केसाजी
खुडाला
.... श्रा० खुमाजी जगमालजी, शा. वोरीदासजी नवलाजी
खझानची शा० चंदाजी खुशालजी और चेनमलगी किस्तुरचन्दनी। .. पत्र पवहार-. . शा० प्रेमचन्द गोमाजी
विठलवाड़ी, बम्बई नं० २ उपरला कार्य करताओंने रहो बदल करणरो और बदावणरों अखतियार पोत पोतारा गांवोवालोने रेसी।
दूसरा गांववाला इण मंडल में शरीक होता जावेला, जद साथ साथ मेम्बर भी दाखिल किया जावेला।
निभाव फंड - निभाव फंडरी योजना, मंडलरे जरूरत पडेला जद कार्य वाहक करेला ।
ठहराव २ जो सगपणरी वक्त गुल-रोटी रा पामणा जावे है वे ५ सुं अधिक जावे नई और पांच टंकमुं ज्यादा रेवे नहिं ।
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ठहराव ३ जो सकपणरे वक्त, सोनारो जेवर तोला ३५ सुं अधिक चढ़ावे नहीं, चादीरो जेवर तोला २०० मुं अधिक नहीं चढावे । _ खालिस रेशमरो घाघरो नहीं चढावे और कोई किस्मरो घाघरा उपर गोटो लगावणो नहीं।
ठहराव ४ थो कोयली, राखडी वो दिवालियांरा घेवर, रमकडा और मिठाई मेजणी नहीं।
ठहराव ५ मो लड़की ने फूल पेरायोरे बाद सासरावाला खुशी आवे जितरो जेवर भेज सके हैं, मगर कपडो में कर जोडी समेत रेशमी घाघरा और गोटारा घाघरा शिवायरा च्यार वेशसुं अधिक भेजे नहीं तथा मेवो शेर सवा पांच पको, शकर या गुड़ शेर अढाई पकी और नालेर कुंडम मोळी वगैरे, आगे गेणारा पावणा नहीं गया हुवे तो जावे जद साथ ले, ने जावे। जो आगे पावणा जा चुका हुवे तो शिर्फ दोय जणा जाएने दे भावे । .
ठहराव ६ ठो . विणाग और बांनोलियां रो रिवाज, पोत पोतारा गांवों में है जिण माफिक कायम है।
ठहराव ७ मो
जान जावणरी बाबद। (क) कुँवारी बळ मांडावाला जान वालोने जिमावे । (ख) दुजे दिन सुबह भी, मांडावाला जानवालोने गोला रोठारी बळ
जिमावे तथा उणिज दिन संजियारा सिंदोरो करे। जो गांव चांको
करणो हुवे तो इणरे साधे करे जिमण में लापसी शिवाय हर कोई ... कर सकेला।
(ग) बर-रोटी करणी नहीं।
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(७)
(ब) तीसरे दिन जानवाला जानोली, मर्जी हुवे तो गांव समस्थने और मर्जी हुवे तो सिर्फ जानवालांने जिमावे |
(ङ) एकहीज गांव में एक से अधिक गांवारी जानां भावे तो जानोलियां सुबह शांम दोई- टंक करे, मगर आखरी जानोली वालों रो जिमण जो सुबह हुवे, तो संजियारा मांडावाला पोतारा घरे जान आई हुने जिने मर्जी हुवे तो मिजवांनी रो जिमख दे सके है।
गांव मांली जान वालो ने तथा वारल, गांववालांरी जानोली संजियारा हुई होवे तो मिजवानी देखी नहीं।
(छ) पंचोसुं रजा लियोड़ी जानेलियां पेला होसी और बिना रजावालों री बाद में होसी | कदाच जांना जादा रे सबब सुं बिना रजावाला नहीं ठहरणा चावे तो वे जांन विदाय कर जांनोली आगे करे पिए उस गांव में करे नहीं ।
( ज ) एकसुं ज्यादा जाना होवे जद कोई कोई गांव में आमो-सामो जिमणरो हुंकारो लेवरी प्रथा है सो बंद कर दी गई है। फ पंचोरी तर्फ सुं जानिवासे नोटो जावे ने साराइ जानवाला जिमने आए जावे |
ठहराव - मो
लागत री बाबद
(क) पंचोरी गांवाउ लाग माग तथा कमिण कारूरी लागत पोत पोबारा गांवरा आगला रिवाज माफिक कायम है मगर कांसा और मांबा हालरा भातां रे मुजब देवणा ।
(ख) सांवेला में रूपियों १। सुं ज्यादा नांखणो नहीं ।
( ग ) मळणीरी वक्त तथा तोरणरे मुंडे जांनवालों कने मांडावाला कोई लागत लेवे नहीं फक्त आरती में रूपियो १ वर पक्ष मेख देवे
(घ) विवाह में मांगलिक गीत सिवाय खोटा गीत गावण्णा नहीं । (छ) माया में टका और सुभांगीरी मिठाई बगेरा लागे है सो बंद कर दी गई है। तथा मो- सांगो साता-सुपारियां भी बंद करदी है
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सो लेणी- देणी नहीं। फसविंदरामा जुहारने जावे जद मांडावाला
जानिया और जानणियांने खुट दिठ टको या नालेर देवे। .... (क) तीर पाली, पग पड़णो, भाणे वेठणो, गोरवनेतरणो, दकरिया ... मेजणा और भात देखणने जावणो बंद कर दिया गया है । (छ) जानीवासे हांती, सिंदोरारा जिमणरी १ मण पक्की मेन देवें. तथा
जानी वासे भाणा भेजणरी प्रथा है सो शेर १५ पकासु ज्यादा । भेजे नहीं और दोई पक्षांरा सगा गिनायतारा भाणा भेजावणरो
रिवाज है सो खास कारण वगर भेनावणा नहीं। (1) ममिलारे डेरे हांति सिंदोरारा जिमण महेिसुं मण मादा सुं ज्यादा ... मेजबी नहीं।
ठहराव १ मो. ... पंचोंने इकठा कियां विना और पांनो मंडाया वगैर पहरावणी मांडावाला पोतारी मरजी मुजब सगा गिनायतारे साथ जेवर, रोकड़, बर्तन और कपड़ो बगैर: जानीवासे पुगाए देसी। जानवालों ने सीख विदाय भी पोतारी मर्जी माफिक देवे ।
ठहराव १० मो. मांडावालोरी इच्छा उपरांत जान में मिनख लावणा नहीं और अन्य कोमरा मिल हो सके जातक कम लावणरी कोशिश राखणी । गाडियारो भाडो साविक दस्तूर कायम राखियो है ।
ठहराव ११ मो.. वर राजा हमेशा जानरे साथ जीमलेवे और उण बकरी कमिणोरी थाली भरणी नहीं ।
ठहराव १२ मो. जो जानोसी पंचोरी रजासुं हुवोड़ी होने सो उप जानवालो कनासु संघ
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ठहराव १३ मो. विवाहारा रिवाज माफिक मसालारा भी गांव दर गांव चाँवल देवणरी रिवाज है, सो देवणा नहीं।
सिर्फ पोतारी खास-गिनयतारे साथ मुसालो लेने जावे और इसमें लिखिया हुवा पहरावणीरा रिवाज माफिक वर्त लेवे ।. पंच इकठा कर पांनो मंडावणो नहीं। _मगर गांवरा नालेर मामेरावाला अवश्य पुगाय देवे। .....
ठहराव १४ मो. इण बंधारणवाला गांवों में भी गांवाउ लाग कम ज्यादा है सो मामूली एक सरिखी होणी चाहिने जिणपर भागासुं विचार करणो बोत जरूरी है।
ठहराव १५ मो. बहुतसा गांवों में गाम सारणी बंद है मगर कोई कोई गांव में धमीरी मी सुं अथवा पंचोरा केणासुं करण-करावणरो रिवाज है। सो अव कतई बंद कर दी जाये है।
ठहराव १६ मो. कोई भी प्रातरा पविणा जेडा के विवाहस्थापवारा याने जेवर चढाबारा मोमणारा आँणारा, दिवाली वो जाया-आणा विगेरेरा टंक ६ सुं ज्यादा रेखो राखला नहीं।
और मोजणारा माणारी सोठों बंद करदी है सो सिर्फ तीन पासों भररो पाइ भेजयो।
उपरोक ठहराव फिलहाल नीचे दस्तखत करवावाला गांव में ही हुआ है, मगर उद्देश प्रो है के ए ठहराव साराई गांवों में हो जावे । .... कदाचित दूजा गांवों मदिसुं कोई एक गांववाला इण ठहरावोरे शामिक नहीं होने ने उणारी जान भोपणा गांव में आवे तो उणारे साथ इस रिवागार एवाधिक वर्तप्पो, लेकिन आपणा गांवारी जान उण गांव में जाने बद अब
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वो इण रिवाजोरे माफिक बर्ताव करणरी कोशिश करणी मगर नहीं माने तो पबारे रिवाज, माफिक वर्तलेणो। .
ठहराव १७ मो. रख ठहरावोरे विरुद्ध वर्तपी तो साराई गांवारा पंचोरो कुरवार होसी ।
ठहराव १८ मो. इण ठारावों में कोई सुधारो वधारो करावणो होवे तो मंडलरा नामसुं पत्र मवहार करेसो मंडल सुधारो-वधारो करावणरी कोशिश करेला कोई एक गांव बाला एकलाहिज इणमें फेर-फार करे नहीं।
ठहराव ११ मो. इण ठहरावों ने छपाएने प्रसिद्ध कर देवे ।
योजना तैयार करणवालोरा दस्तखत । शा. रिखबाजी दोलाजी. " चेनमलजी हीराजी. " भिखाजी भगाजी. " फौजमलजी उदयचंदजी. " नथमलजी जेठाजी.. , वरदिचंद किशनाजी. , हजारीमल चंद्रभाणजी. , हीराचंद चंदाजी. , लालचंद प्रेमचंदजी.
" खेतमलजी ताराचंदजी.
., ताराचंद प्रेमचंदनी. उपरोक योजना सर्व सम्मति सुं मंजूर हुई । मोद-इण मीटिंग में डोरारी रकम मुकर्रर करणे वास्ते सवाल पैदा हुवो थो, मगर जो
विषय घणां गांवांसुं ताल्लुक राखे है सो घणा गांवारी एक मीटिंग ता. ४-२-३४ ने होवेला जिण दिन पेश कर दीयो जावेला । इणरे नीचे उपरोक्त दर्शाया हुवा गांवावालारा करीब ७० जणारा दस्तखत है।
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(fat) विनंति पत्र
प्रिय ज्ञातिबन्धुगण
!
आपने सुविदित है कि आपणी समाजरा उत्थानरे वास्ते अनेक सामाजिक सुधारोंरी आवश्यकता है जिएसूं एक मंडल स्थापित कर था प्रथम की योजना तैयार किनी है और इसमें दर्शाया हुवा गाँवारे अलावा दूसरा गाँवों में भी मंजूर हो जागी जरूरी है.
आप इण पर विचार कर आगामी ता. ४-२-३४ नें मिटिंग हुवेली उसमें पधार इण योजनानें मान्य राखण में पूरी मदद करावें,
लि. - श्री. पो. ज्ञा. सू. मं.
पण सर्व ज्ञाति भाईयोंरी मिटिंग.
प्रिय ज्ञातिबन्धु गण !
इण पत्रिका आमंत्रणानुसार ता. ४ - २ - १६३४ ने श्री आदिश्वरजी महाराजरा सभाग पंचांरी धर्मशाला में आया सर्व ज्ञाति भाईओरी एक मिटिंग हुई. उद्य वक्त सामाजिक स्थितिरो दिगदर्शन कराए, पत्रिका ठहरावौरा असुल समझाया गया, मो सर्वसम्मत्ती सहर्ष मंजूर कर नीचे माफिक अधिक ठहराव हुवो.
इस पत्रिकामें आगली मिटिंग में डोरारो सवाल बाबद एडो नोट लगायो है के ओ विषय घणा गांवांसुं ताल्लुक राखे है जिस सुं आगामी मिटिंग घया गांवारी हुवे जद पेश करणो.
आज चोतालारा करीब सब गांव, याने देसूरी नारलाइसुं लगाए कोसेलाव, खिवांणदी, वांकली और शिवगंज विगेरे तक शामिल हो जावण सुं डोरारा रूपिया १०१) सुं अधिक नहीं लेखा देणा चाहिजे.
पत्रिका ठहरावोरे नीचे सेवक ने भेज दस्तखत मंगाए पंचांने मारवाद विनंति पत्ररे साथ भेज देने.
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लुबाणां.
था. रिखबाजी दोलाजी " चेनमलजी किस्तुरचन्दजी
भिखाजी भगाजी
99
" ताराचन्दजी घेनाजी
" योगमल ताराजी
भगाजी लखमाजी
वेलाजी जिताजी
"
"
" गुलाबचन्द पूनमचन्दजी
" उदयचन्द प्रेमचन्दजी
" पूनमचन्द भीमाजी
" भुरमल प्रतापजी
" भूरमल डोंबाजी
,, भुताजी राजाजी
जेसाजी नवलाजी
99
उमाजी नवलाजी
19
" मनरुपभी धुलाजी
नाजी रुपाजी
99
" बीसाजी फुआजी
" मूलचन्द राजाजी
भीकमचन्द हंसाजी
" लुम्बाजी मवलाजी
" चुनिलाल मोतिजी
हिम्मतमल पुनमचन्दजी
99
" भीमराज जस्साजी
" रत्नचन्द भागचन्दजी हेमीचन्द खुशालजी
" भीखमचन्द सांकलचन्दजी
शा. पुखराज लुम्बाजी " गणेशमल प्रेमचन्दजी
" हीराजी जगुजी
" कपूरचन्द धुलाजी
" रूपचन्द खिमराजजी
” प्रतापचन्द गुलाबचन्दजी मंगनीराम धनराजजी
19
” मांनमल उदयचन्दभी
देवीचन्द वीरचन्दजी
99
" हजारीमल नेनाजी
" पुखराज रत्नाजी
सेसमल गंगारामजी
" चुनिलाल जेठाजी
ܪ
" चन्दनमल उम्मेदमलजी
चेनाजी प्रतापजी
"
चुनिलाल हंसाजी
" दलीचन्द मेराजी
" मगनीराम राजींगजी
" मनरूपजी चेलाजी
" चुनिलाल भीमाजी
मोतीजी राजी
"
" पुनमचन्द प्रेमाजी
" पुनमचन्द भीमाजी
छोगमल हीराजी
गोमाजी गुमनाजी
19
,
” लच्छिराम जसराजजी
" चुनिलाल खेताजी कोठारी
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पाली. शा. किश्नाजी सेसमलजी " धनाजी जिवाजी " फोजमलजी देवीचन्दजी " परतीराज गुमनाजी " भुताजी पुनमचन्दजी " प्रेमचन्दजी देवीचन्दजी , लिखमाजी गुमनाजी "टीमाजी नेमीचन्द , फोजमल ढुंगाजी , किन्तुरचन्द टेकाजी " लिखमाजी भगाजी " प्रेमचन्द गोमाजी " वरदीचन्द किशनाजी " पूनमचन्द श्रीचन्दजी " बागमन रिखबाजी , मगनीराम दलीचन्दजी , वनेचन्द उदयचन्दनी " मोटरमल धुलाजी " खुमाजी जवाजी
विजापुर शा. राजींगजी नेमाजी " गुलाबचन्द किश्नाजी , चुमिनाल खिमाजी " हमारीमल लालचन्दजी " किस्तुरचन्द मानाजी " साजी पनाजी " अबेरचन्द उमाजी
शा. दलीचन्द लुम्बानी , जवानमल तिलोकचन्दनी " भीमराज किमानी , भीमाजी गुमनाजी " चन्दाजी खुशालजी , हिराचन्द पन्दाजी " जुहारमल परतापजी . " रस्नचन्द पुनमचन्दजी " रत्नचन्द सेंसमनजी.
__विसनपुर. शा. इंसानी राजींगजी , रायचन्द मेराजी " गोमाजी नवलाजी " प्रतापचन्दजी तामी ,, माजी रायचन्दजी. " श्रमीचन्द पुनमचन्दजी " पुनमचन्द लुम्बाजी " मयाचन्द धुलाजी " मवेरचन्द दवाबी " मलाजी इंसापी " कपूरचन्द जस्साजी " मस्साजी गुमनानी " बागाजी जीवाजी " मानी धनानी " भागचन्द इंसानी , " भवेरचन्द खिमाजी .. , विलोकचन्द नवसाची ॥ वरदीचन्द चन्दनमल .. .
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। शा० पम्तिमल भपुनमलजी
" मगनीराम लिखमाजी , उमेदमल जुहारमलजी - लिखमानी उमाजी " उमाजी नवलाजी " धनराज चत्रभुजजी " चन्द्रमाण जेठाजी , प्रेमचन्द भगाजी , नथमल जेठानी , किश्नाजी भगाजी , चम्पालाल पुखराज " भुरमल केसरीमल " दानमल वनाजी
शा० रापचन्द लिखमाजी " लिखमाजी रूपाजी " तिलोकचन्द वरदाजी " दलीचन्द फोजमलजी " फोजमल उदयचन्दजी " चिमनाजी चन्दाजी , प्रेमचन्दजी जवेरचन्दजी , चिमनाजी खीमचन्दजी " भनुतमलजी टेकचन्दजी , केसाजी मयाचन्दनी " हजारीमल गोमाजी " पूनमचन्द चन्दाजी " नपुजी प्रमीचन्दजी
. धुणी. शा. चेलाजी केसाजी " पाजी गुमनाजी " गुमनाजी किश्नाजी , फोजमल लिखमाजी " नथुजी खुमाजी " नवलाजी चतराजी
" गुलाबचन्द चतराजी ." कानाजी नवलाजी
मुन्डाडा. वा. कालुराम मोहनलाल "दानमल खिमराजजी "पुखराज वीरचन्दजी " छोगमल चिमनाजी " हारमल नयमलजी
सादडी. शा. दलीचन्द चन्दनमलजी " हीराचन्द नवलाजी " चुनिलाल सन्तोकचन्दजी , मूलचन्द छोगमलनी , फताजी हुकमाजी , सरदारमल खेतमलजी
घाणेराव. शा. चुन्नीलाल नन्दरामजी " सागरमल हजारीमलजी ,, सेसमल देवीचन्दजी ,, हिम्मतमल देवीचन्दनी , घासीराम सागरमलजी
मेघाजी वरदाजी...
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देसुरी.
शा. सरदारमल देवीचन्दजी , दीपचन्दजी छोटमलजी ,, छोगमल लिखमीचन्दजी ,, घासीगम सेरमलजी " दानमल अमीचन्दनी " केसरीमल किस्तुरचन्दजी , भेराजी नेणाजी " पुनमचन्द प्रेमचन्दजी " दानमल देवीचन्दजी "मगनीरामजी धनरुपजी " परतीराज वीरचन्दजी
नारलाइ. 'शा. पुखराज सवाईमलजी
" चुभिलाल सरदारमलनी ,, खिमराजजी डाहाजी , केसरीमल सेराजी , धुलचन्द जवरचन्द " मूलचन्द रत्नचन्दजी " प्रमचन्द हजारीमलजी " पुनमचन्द धुलचन्दजी " सागरमल नवलाजी
शा. भगवानजी चन्दाजी .. ,, अमीचन्दजी नवलाजी .. , दलीचन्दजी हीरामी " दलीचन्द जस्साजी , जिवाजी हंसाजी " लालचन्द साजी , रूपचन्दजी ढुंगाजी ,, उमंदमल चिमनाजी . " नेमीचन्द कुन्दनमल " सेसमल लिखमाजी ,, चिमनाजी हाराजी , रिखबाजी नगाजी , कपुरचन्द जेठाजी .. " चुभिलाल प्रेमचन्दजी : " लिखमीचन्द मनरूपचन्दनी
কয়রা शा. खुमाजी नेताजी " मोटरमल फुलचन्दजी " बनाजी केसाजी " मोतीजी कोलाजी " पुनमचन्द धुलाजी " उमेदमल गंगारामजी ,, सरदारमल मोटरमलजी " गुलाबचन्द सरदारमलजी ।, मनुतमलजी चुभिलालजी , तिलोकचन्दजी प्रेमचन्दनी । रूपाजी वाघाजी .
सांडेराव. शा. दोपचन्द प्रेमचन्दनी , प्रतापमल जस्साजी " छोगमल पनाजी " चमिनाल रत्नाजी
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शा. वरदाजी बाबाजी " नेमीचन्द लिखमाजी , जोधराज पूनमचन्दजी " सांकलचन्द प्रेमचन्दजी " हिम्मतमल नथुजी " परतापज़ी डांबाजी " पनाजी कलाजी " जवानमल पूनमचन्दजी
बाबागाम. शा. पुनमचन्द मोखाजी " सरदारमल गुलाबचन्दजी " सेसमल पुखराजजी " चेलाजी धनाजी , वनेचन्द सरदारमलजी , धनरूपजी किस्तुरजी " नस्साजी विसाजी
खिमाडी. शा. मूवचन्द तखताजी " रत्नाजी जीताजी " भीकमचन्द धुलाजी " प्रतापमल किश्नाजी " पुनमचन्द खुमाजी " तिलोकचन्द धुलानी " सन्तोकचन्द अनोपचन्दनी
खिवांणदी शा. भनुतमत्त दलीचन्दजी " चिमनानी प्रतापनी " उदयभाण शोभाजी
शा. सवाजी वाघाजी ..., वीरचन्द नेमाजी ,, चंद्रमाण देवाजी " जेठाजी मेराजी
वांकली. शा. टेकचंदजी नगाजी , छोगमल भुताजी " सेसमल गुलाबचंदजी " भीकमचंद हुकमाजी , छोगमल लालचंदजी " तीलोकचंद रत्नचंद " खुमाजी नगाजी , प्रेमचंद बनानी , प्रतापजी दलीचंदजी " जसराज बरदीचंदजी " संतोकचंद हजारीमलजी " तीलोकचंद चिमनाजी
शिवगंज. शा. वालाजी डांवाजी ,, अचलाजी वीरभाणजी "किस्तुरचंद रत्नचंदजी " गुमनाजी कुपाजी " मुताजी सुरतींगजी , हीराचंद जेठाजी , किस्तुरजी मोतीजी ,, गुलाबचंद धनालालजी " किनाजी भगवानजी " जसराज भगवानजी
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शा. फोजमल कपुरचंदजी चिमनाजी रिखबाजी बेड़ा. नांणा. चांवडेरी
"
शा. हिम्मतमल धनाजी " प्रेमचन्द अमीचन्दजी
" रायचन्द केसाजी
" ताराचन्द मूराजी
” दलीचन्द चेनाजी
" मूलचन्द खिमाजी
जिताजी कुत्राजी
"
” वने चन्द दीपाजी
केरींगजी राजाजी
ܙ
" मांनमल नथुजी
" बनेचन्द मेघाजी
,
धनरूपजी जिताजी
(d)
राणीगांव.
शा. भबुतमलजी फोजमलजी ” लिखमाजी चन्द्रभाणजी
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बीरचन्द नवाजी " चिमनीरामजी डुकमाजी
” जस्साजी पनाजी पीसावा
इंसाजी किश्नाजी
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हस्तीमलजी पोमावा
"
" अचलदास भीखाजी पावो उमेदमल पूनमचन्दजी पालड
99
वीरचन्द लिखमाजी
"
" वरदीचन्द भबुतमलजी
पनाजी नेताजी
ܕ
” फोजमलजी हीराचन्दजी
चेनमल पुखराजी
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नोट - १ इण पत्रिकारा ठहराव, इण में दर्शाई हुई बाबदों सुंहीज ताल्लुक राखे हैं, सो इने हरेक बहरेक पढ़ने अमल करणो. इणरो भिन्न अर्थ कर लिखिया उपरान्त अन्य बाबदों में दुरुपयोग करणो नहीं |
नोट - २ श्री ओसवाल समाज ने मोरी सविनय प्रार्थना है के, आपणां ज्ञाति रिवाज करीब एकसा है और व्यापारिक परिस्थिति भी समान असर करे हैं, इतरोहिज नहीं प्रपणे परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध भी है सो परी समाज में भी, समयानुकूल ए ठहराव होवणरी तात्कालिक जरुरत है ।
हम अठा सुं श्रीमान् पन्नाजी भीमाजी ऊपर एक पत्र लिख " ओसवाल ज्ञाति सुधारक मंडल" स्थापवारी अर्ज किनी हैं. जो कि श्रपरी समाज बहुत विशाल और विस्तार में होत्रणरी वजह से अकसर ढील होवयरी सम्भावना है. परन्तु हालरी परिस्थिति देखतां सुधारा जल्दी होवयरी श्रावश्यकता है ।
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आवश्यक निवेदन
सर्व ग्राहक महाशयों को निवेदन है कि गत संयुक्त अङ्क के बाद यह संयुद्ध अङ्क भी बहुत ही विलम्ब के बाद आपके कर कमलों में रखने का सौभाग्य प्राप्त हुमा है इसके लिये हमें बहुत खेद है। इस विलम्ब के कारण निम्न लिखित हैं:
(१) इस पत्र का यहां से डिक्लेरेशन कई कारणों से नहीं मिला, (२) डिक्लेरेशन नहीं मिलने से पोष्ट से रजिस्टर्ड भी न हो सका, (३) स्थानिक प्रेस के न होने से भी जरा असुविधा रही है, . (४) मानद सम्पादकों को फुरसत न मिलने से मेटर समय पर
नहीं पाया। उपरोक्त कारणों से हम इस निश्चय पर आये हैं कि जनवरी से मार्च तक का एक और संयुक्त अङ्क प्रकाशित किया जाय जिसको हम बहुत ही शीघ्र मई के पहिले सप्ताह तक प्रकाशित कर देंगे और इस बीच में इसको माहवार प्रकाशित करने की योजना करेंगे जिसकी इत्तला आपको आखिरी संयुक्त अङ्क में देंगे।
निवेदक
महा मंत्री, अ०भा० पो० महा सम्मेलन
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शुभ सन्देश !
विशाल प्रायोजना !! पौरवाल जाति का विशाल इतिहास
सचित्र मन्दिरावली
और
डायरेक्टरी भारतवर्ष में पौरवाल जाति बहुत ही गौरवशाली जातियों में से एक है जिसने आज से हजार पांच सौ वर्ष पूर्व अनेक महान कार्य किये हैं और मुख्यतः मन्दिरों के निर्माण करने में जो यश प्राप्त किया है वह निःसंदेह प्रशंसनीय है जिनकी जोड़ के मन्दिर इस संसार की सपाटी पर नहीं हैं। इस जाति ने अपनी अपूर्व वीरता अलौकिक राजनीतिज्ञता व्यापारिक दूरदर्शिता आदि महान् गुणों से इतिहास के पृष्ठों को उज्जवल किया है। जिन सजनों ने राजस्थान के इतिहास के साथ गुजरात के इतिहास को ध्यान पूर्वक मनन किया है. वे जानते हैं कि इस जाति के महान् पुरुषों ने जहां युद्ध क्षेत्र में अपनी अपूर्व रणचातुरी का परिचय दिया है, वहां राजनीति के मंच पर भी इन्होंने बड़े-बड़े खेल-खेले हैं। इसी प्रकार व्यापारिक जगत में भी इन्होंने अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया है। एक मुंजाल जो गुजरात का प्रधान मंत्री था उसकी हुंडी यूनान तक में सिकारी जाती थी।
इस जाति में अनेक अलौकिक विभूतियां होगई हैं जिन्होंने भारत के इतिहास को बनाने में बहुत बड़ा हिस्सा लिया है । महामंत्री मुंजाल, विमलशाह, वस्तुपाल, तेजपाल, पेथड़कुमार, धनाशाह इत्यादि महापुरुषों ने समय २ पर अपनी रणनीतिज्ञता एवं राजनैतिक और व्यापारिक प्रतिभा का अपूर्व दिग्दर्शन कराया है।
पर इस बात का बड़ा खेद है कि इस गौरवशाली जाति का अब तक कोई प्रमाणबद्ध सुसंगठित इतिहास निर्माण नहीं हुआ है। यह कहने की आवश्यक्ता नहीं कि जिस जाति का इतिहास नहीं है वह एक न एक दिन गहरे अन्धकार में लीन हो जाती है। उसके सदस्य अपने गत गौरव को भूल जाते हैं क्योंकि जिस जाति का भूतकाल उज्जवल नहीं होता, उसका भविष्य भी कभी उज्ज्वल नहीं हो सकता ।
कुछ युवक इस जाति का सुसंगठित इतिहास तैयार करने के लिये बहुत दिनों से बाट देखते थे । परन्तु इसमें अधिक खर्चा व कठिनाइयों को देख कर
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________________ अब तक किसी महाशय ने इसको निर्माण करने का कार्य अपने हाथ में नहीं लिया। सम्मलन के योग्य कार्यकर्ताओं के उत्साह से और बहुत से उत्साही मित्रों के सहयोग से इस कार्य को पूर्ण करने का काम हाथ में लेते हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि इस कार्य को पार लगाने में हिमालय के समान बड़ी-बड़ी कठिनाइएं हमारे मार्ग में आयेंगी। पर हम जन्म से ही आशावादी हैं। हमारा यह अटल विश्वास है कि प्रबल इच्छा शक्ति के सामने बड़ी से बड़ी कठिनाइयां दूर होकर कार्य सफल हो जाता है। __उपरोक्त तीनों ग्रन्थ बहुत खोज और अन्वेषण के साथ तैयार किये जायेंगे। प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र, पुराने रेकार्ड्स, संस्कृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी तथा गुजराती भाषाओं में उपलब्ध सैंकड़ों नये पुराने ग्रन्थों से इसमें सहायता ली जा रही है। अनेक राज्यों के दफ्तरों से भी इसके लिये सामग्री इकट्ठी की जाने का प्रबन्ध हो रहा है। जहां 2 पौरवालों की बस्ती है उन छोटे बड़े सब नगर, शहर और ग्रामों में घूम कर इसको सम्पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। प्राचीन और नवीन अनेक पौरवाल महापुरुषों के इसमें हजारों फोटो संग्रह किये जा रहे हैं। तथा बड़े 2 घरानों का विस्तृत इतिहास सङ्कलन करने का भी इसमें पूरा प्रयत्न किया जा रहा है / उपरोक्त तीनों भागों के सङ्कलन में बड़ी हिम्मत और धन की आवश्यक्ता है। इनके प्रकाशन और सङ्कलन में हजारों बल्कि लाखों रुपयों के व्यय और बहुत बड़ी आयोजना की जरूरत होगी। यह कार्य तभी सफल हो सकता है कि जब प्रत्येक पोरवाल बन्धु इस कार्य में तन, मन, धन से सहायता करे। हमें पूर्ण आशा है कि हमारे प्रत्येक पौरवाल बन्धु इस कार्य में हमसे सहयोग और सहानुभूति प्रदर्शित करेंगे। परन्तु हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस विषय में अब तक पौरवाल समाज की तरफ से हमें कोई प्रोत्साहन नहीं मिला है और न अभी तक इतिहास को संग्रहित करने के लिये योग्य सम्मतिएं ही प्राप्त हुई हैं परन्तु कार्य जारी है पौरवाल बन्धुओं को इसकी तन मन धन से सहायता. करना चाहिये। सम्पादकगणपौरवाल हिस्ट्री पब्लिशिङ्ग हाउस, सिरोही (राजपूताना)