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(६२) मे जैन शासन रूपी सूर्य का प्रकाश सारे संसार में चमक उठता और करोड़ों मात्मबन्धु अपने आत्मोन्नति के मार्ग में आगे बढ़ते हुए नजर पाते। परन्तु हमारे में मानसिक शक्ति का अभाव होने से हमारे जैन शासन के चारों तरफ अविवेक रूपी किल्ले की दिवारें ऐसी मजबूत बन गई हैं कि शासन की सुनहरी चमकीली किरणों की झलक तक भी जगत के नजर नहीं आती। आज श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ यात्रा जाने वाले हजारों यात्रियों में से शायद थोड़े ही मिलेंगे कि जिन्होंने जैन धर्म के ( Original home or motherland ) प्राचीन केन्द्र स्थल रूप अथवा मातृभूमि रूप मगध देश और गंगासिन्धु के मध्य प्रान्तों में भ्रमण करते हुए प्राचीन और अर्वाचीन जैन शासन की तुलनात्मक परिस्थिति
की कल्पना करने में ऐसा शायद ही मानसिक उपयोग दिया होगा कि अहो ! -जिस क्षेत्र में पूर्व काल में परमात्म स्वरूप परमोपकारी तीर्थंकर भगवन्तों ने अनुपम मानव देह को प्राप्त कर धर्मरूपी वृक्ष को रोप कर उसके मधुर फल सारे संसार के प्राणी मात्र को खिला कर उनका पालन किया था, जहाँ पर भरत, सगर, कृष्ण और जरासिन्धु जैसे चक्रवर्ती, वासुदेव भोर प्रतिवासुदेव आदि अनेक अन्तिोपासक महापुरुषों का नीति कुशल साम्राज्य था, जहाँ पर राजगृही, चम्पापुरी, अयोध्या और मिथिला आदि जैन धर्म के धाम रूप बड़े २ नगर थे, जिन नगरों में वायु के साथ वार्तालाप करती हुई धजायें और चमकते हुए सुनहरी कलशों से सुशोभित शिखरों को धारण करने वाले देवविमान तुल्य गगनचुम्बी जिनप्रसादों में बजते हुए घण्ट नाद अखिल लोकाकाश को जैन शासन की जयध्वनी से गुंना रहे थे, जहाँ पर खल खल करते हुए निर्मल जल के चांदी के समान झरों से सुशोमित पर्वत श्रेणियों की भयङ्कर कन्दराओं में कपवना, करकंडु, नन्दिषेण, अरणिक भईमुत्ता, अवंतिसुकुमाल, स्थूलिभद्र, प्रसनचन्द्र राजर्षि और मेतार्य महर्षि जैसे हजारों मुनि महात्माओं के मस्त भावना में मुख कमल से निकलते हुए "नई अह" शब्दोच्चार का सुगन्ध समस्त भूमण्डल के अशुद्ध वातावरण को विशुद्ध बना रहा था जहां पर रंग विरंगी पशुपंखियों के निकेतनम् रूप और नाना प्रकार की प्राकृतिक सौन्दर्यता से सुशोभित वन उपवन और उद्यानों में सुवर्ण काल पर विराजनेवाले परमज्ञानी गौतम और केशीगणधर जैसे विश्वबन्धु की मेव के धन घोर घटा की गर्जना समान अमूल्य देशना द्वारा अनेक भव्यात्मा रूपी मयूरों के मन प्रफुल्लित हो रहे थे, जहां पर