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धना व महिषा साह भी, इस ज्ञाति ही के लाल थे।
चूंडा व झगडू और पेथड़, मुखाल ज्ञाति मराल थे ॥ ६ ॥ कवि दानियों में श्रेष्ठ, वस्तूपाल का भी नाम था।
वीरान और प्रचण्ड भ्राता, तेजपाल सुज्ञान था ॥ ७॥ समरान योद्धा थे कोई, तो "विमल" "वस्तूपाल" थे ।
उद्दण्ड और प्रचण्ड शत्रु, के युगल ही काल थे ॥ ८॥ प्रासाद "जिन" के आज भी, देते गवाही हैं यही ।
दानी भी नामी थे ये दोनों, द्रव्य था कमती नहीं ॥६॥ एक वक्त भारतवर्ष में, दुर्भिक्ष भारी था पड़ा।
"देहराणिया खेमा" अटल हो, अन्न देने जा अडा ॥१०॥ आखिर नतीजा यह रहा, चकरा गया बस शाह भी।
चट कह दिया है शाह बणिया, निकली न वाह वाह वाह भी ॥११॥ हा देव, उस ही ज्ञाति की, यह क्या दशा अब हो गई।
सिर मौर जो सब जगत में थी, क्षुद्र होकर सो गई ॥१२॥ ऐसे सुभट योद्धा व दानी, हो गये इस ज्ञाति में।
"पुर्वाह" की संतान हो तुम, चूकते क्यों ख्याति में ॥१३॥ आचार्यों में श्रेष्ठ थे, " पूज्यपाद " संज्ञा थी वरी।
इनके चरण की सेव मिलकर, देवगण ने थी करी ॥१४॥ पद्मावती का कर्ण सिंह, एक जाति प्रेमी था सही ।
चौरासिएं कर कई दफा, कीर्ति अटल उसने वही ॥१५॥ जावड़ हुवा है एक सौ दो, विक्रमी के साल में ।
तेरहवां शत्रुजय किया, उद्धार रक्खो ख्याल में ॥१६॥ भावड़ पिता जावड़ का था, श्री नृपति विक्रम राजने ।
दी थी "मधूमति नगरि उसको, भेंट खुश हो काज में ॥१७॥ वाग्भट्ट का लंकार देखो, आम्र भट्ट कहा सही।
. इस जाति के कवि थे बड़े, प्राग्वाट संज्ञा थी : लही ॥१८॥