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________________ (४५) ब्रह्मज्ञा अर्थात् अनुभवी । पंच अनुभववान् होना चाहिये । किन २ बातों का अनुभव होना चाहिये, इस संबंधमें कहा है कि 'पुराकृतं तु यत्तस्तद् ब्रह्मेति प्रचक्षते।' पहले पंचायत के कार्यों का जिन्होंने अनुभव किया हो, उनको ब्रह्मज्ञ कहते हैं। उसकी अवस्था योग्य अर्थात परिपक्व होनी चाहिये । अपना एवं अपने कुटुम्ब परिवार का जिसने अच्छी तरह पालन पोषण किया हो । ऐसे लक्षणों से युक्त पंच को शास्त्रमें ' ब्रह्मज्ञ' कहते हैं । सत्यसंघः अर्थात् सत्य बोलने वाला । सत्य बोलने का अर्थ यह है कि मुँह में से निकला हुआ बचन सदा के लिये टिकने योग्य हो । उसमें कुछ काल के बाद मिथ्यात्व प्रवेश न कर सकता हो । जैसे 'अ' नामक शख्स उत्तर को खींच रहा हो और 'ब' दक्षिण की ओर जाता हो, उसमें 'क' दोनों को समझा कर उनमें चिर काल तक स्थायी रहने वाली एकता करादे, उस हालत में 'क' 'सत्यसंघ' कहलायगा । केवल सत्य भाषण की अपेक्षा सत्यसंघ शब्द में ज्यादा गूढार्थ भरा हुआ है। परधनतरुणी निःस्पृहः अर्थात् विरक्त । पंच होने वाले पुरुष को अपने चित्त में दूसरों की सुन्दर और खूबसूरत स्त्रियों की और धन की लालच नहीं रखनी चाहिये । संसार में कई प्रकार के प्रलोभन हैं; उन प्रलोमनों में पंच कहलाने वाले व्यक्ति को नहीं फंसना चाहिये । प्रलोभनों में फंसने वाला अपने कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाता है। वह अपने धर्म या ईमान से हाथ धो बैठता है। संसार में जितने प्रलोभन हैं उन सब में पर-स्त्री और पर-द्रव्य का प्रलोभन सब से अधिक यानी जबरदस्त माने जाते हैं। सन्त कवि तुलसीदास ने इसीलिये कहा है कि.... "'तुलसी' इस संसार में, कौन भये समरथ्या इक कञ्चन दुति कचनतें, जिन न पसारे हथ्य ?”
SR No.541505
Book TitleMahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size11 MB
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