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श्रीमान् के प्रादेश से ही वधकों ने महम पेशवा का जीवन-नाटक समाप्त किया है। इस अघोर पाप का दण्ड देहान्त-प्रायश्चित्त के सिवाय दूसरा नहीं है।" ... “यदि मैं ऐसा नहीं करते हुए शासन-भार उठाता रहूँ तो मेरे लिये दूसरा कोई उपाय है ?" पेशवाने पूछा । ....... - :: “यदि यही बात है, तो जब तक आपका शासन रहेगा, मुझको पूना में रहना अनुचित होगा।"
इतना कहते ही न्यायाधीश श्रीराम शास्त्री ने राघोबा की राजसभाका त्याग किया और जब तक उसका शासन रहा वे पूना में नहीं आये । न्यायाधीश हो तो ऐसा हो । न्याय का कार्य पवित्र से भी पवित्र कार्य है। इस में किसी का मुलाहिजा देखना या पक्षपात करना न्याय, धर्म और नीति के उज्ज्वल नाम को कलंक लगाने के उपरान्त परमेश्वर के अपराधी होने बराबर है।
पेशवा सरकार, कि जिसके नाम से सारा भारतवर्ष काँप रहा था, जो अपना अन्नदाता मालिक था, जिममें क्षणमें किसी को उन्नति के उच्च शिखरपर चढ़ाने की या अवनति के गहरे गड्ढे में गिराने को प्रबल शक्ति थी, उसके सामने भी श्रीराम शास्त्री ने सत्य कथन करने में लेश मात्र पक्षपात नहीं किया। उन्होंने न्याय का शासन, जो वास्तविक में बड़ा ही कठोर था, निडर होकर सुनाया अपने धर्म का पालन किया; नीति की रक्षा की और न्यायाधीश यानी पंच की अपनी पवित्र पदवी की शोभा, गौरव और महत्त्व को बढ़ाया । धन्य है, ऐसे न्यायमूर्ति नररत्न को !
त्यायाधीश या पंच में क्या २ सद्गुण होने चाहिये इस संबंध में 'कश्यपसंहिता' नामक प्राचीन ग्रन्थ में जो श्लोक लिखा है, वह इस लेख के प्रारंभ में ही दिया गया है । उसका भावार्थ इस प्रकार है कि पंच ब्रह्मज्ञ अर्थात् अनुभवी, सत्य बोलने वाला, पराये धन और स्त्री के विषय में निस्पृह या विरक्त, कार्य के रहस्य को जानने वाला, दाता, दीनदुःखियों को बचाने वाला, गणित, नाना प्रकार की कलाएं और शिल्प आदि को जानने वाला और समाजरूपी नौका को सही सलामत खेने वाला होना चाहिये । पंच के इन लक्षणों का कुछ विस्ता. रित विवेचन नीचे किया जाता है ।