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कामिनी और काँचन के प्रलोभन में नहीं फंसने वाला शख्स ही दूसरों पर विजय प्राप्त कर सकता है और उसी का अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात् जो कनक और कान्ता के मोहपाश में नहीं फँस सके, वही पंच होने या कहलाने योग्य होता है।
कर्ममर्मज्ञाता अर्थात् काम की खूबी या रहस्य को जानने वाला। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई छिपा भेद या तरकीब अवश्य होती है। उस तरकीब या भेद को जानने वाला शख्स ही कार्य को अच्छी तरह कर सकता है। कार्य को ऐसी सावधानी से किया जाय जिससे उसमें किसी प्रकार की त्रुटि न रहे और न एक पार करने के बाद उसको वापिस देखना पड़े।
दाता अर्थात् दान देने वाला यानी उदारात्मा। पंच होने वाले शख्स में लेने की भावना नहीं होनी चाहिये । लेने की इच्छा रखने वाला निष्पक्ष न्याय नहीं कर सकेगा। फिर उदारता कई प्रकार की होती है । सार्वजनिक कार्य करने वाले को अपनी निन्दा भी बरदाश्त करनी पड़ती है। यह मानसिक उदारता की बात हुई। कोई अपने को भला कहे या बुरा कहे वह पंच कहलाने वाले को सब सहन करना चाहिये। गीता के आदेशानुसार उसको 'तुल्य निन्दा स्तुतिः' होना चाहिये।
मातपाता अर्थात् दीन दुःखियों की रक्षा करने वाला। अगर उसमें ऐसी योग्यता म हो तो कम से कम ऐसी भावना तो अवश्य होनी चाहिये । वास्तविक बात तो यह है कि जिसके हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति न हो, उसको चाहिये कि वह पंचायत जैसे सार्वजनिक कार्य में कभी न पड़े। सहानुभूति रहित पंच से दूसरों का हित-साधन कदापि नहीं हो सकेगा। इसलिये दूसरों के दुःख को देखकर स्वयं दुःखित होने वाला शख्स ही पंच की पवित्र पदवी को प्राप्त कर