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(४ ) प्रति दिन के नियमानुसार आज भी प्रातःकाल उठ कर विमक्रसी नदी पर धोने गया और कार्य समाप्त होने पर घर लौट आया। श्रम के कारण विक्रमसी को क्षुधा ने अधिक सताया । उसको दूर करने के लिए उसने शीघ्र ही हाथ-पांव घोए और जल का लोटा भर कर रसोड़े में गया, किन्तु वहां रसोई का कुछ ठिकाना न दिखाई दिया। किसी कारण भोजन में विलम्ब हो गया। जब विक्रमसी रसोड़े से बिना भोजन किए बाहर निकला तो उसका मस्तिष्क फिर गया, क्षुधा देवी से पीड़ित हुमा हुआ विक्रमसी क्रोधावेश में आकर बोल उठा, क्या माज दोपहर होने पर भी अब तक भोजन नहीं बना ? घर पर बैठे क्या इतना भी काम नहीं बनता ? दूसरा कार्य ही क्या है ? मैं आज तुमको सूचित कर देता हूं कि यदि भविष्य में ऐसा हुआ तो ठीक न होगा, इत्यादि शब्द बोलने लगा। विक्रमसी किञ्चित क्रोधावेश में आकर नहीं कहने के शब्द कह गया। भाभी ने भी गुस्से में आकर उसका प्रतिकार किया और कहा कि मेरे पर इतना जोर क्या जमाते हो ? यदि अधिक बल हो तो आओ और सिद्धा. चलजी की यात्रा मुक्त करो। उस समय सिद्धाचलजी के मूलनायकजी की ढूंक पर एक सिंह रहता था। उसके भय से यात्री ऊपर नहीं जाते थे। इस कारण लगभग यात्रा बन्द थी। "उस सिंह के समक्ष जाकर अपना पराक्रम दिखाओ" ऐसा भामी ने ताना मारा।
विक्रमसी सच्चा वीर था, सच्चा युवक था। उसकी रग रग में वीरता का लहू भरा हुआ था। भला वह वीर भाभी का ताना किस प्रकार सहन कर सकता था। वह अपने स्थान से उठा और प्रण किया कि "जहां तक सिंह को मार कर सिद्धाचलजी की यात्रा मुक्त न करूंगा घर न लौटूंगा।" ___ उपर्युक्त शब्द कहते हुए विक्रमसी अपने कपड़े धोने की मुग्दल लेकर घर से बाहर निकला । मार्ग में जो स्नेही मिलते वे मी साथ होगये।
विक्रमसी सिद्धाचलजी की तलेटी के निचे आकर खड़ा रहा। वहां ठहरे हुए यात्रियों के संघ एवं स्नेहियों को इस प्रकार कहने लगा कि, मैं पहाड़ के ऊपर रहे हुए सिंहको मारने जाता हूँ। सिंह को मार कर मैं घंट बजाऊंगा उसकी आवाज सुनकर आप समझ लेना कि, मैंने सिंह को मार डाला है। यदि घंट की आवाज न सुनाई दे तो मुझे मरा हुआ समझना । ऐसा का