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________________ । १७ ) नगर में पोरवाड़. वंश का एक गृहस्थ रहता था। उसका नाम वीरनाग था। उसकी पत्नी का नाम जिनदेवी था। जिनदेवी स्वभाव में शान्त, शिक्षित और रूप में रम्मा समान थी। इस दम्पती में गाद प्रेम होने के कारण इनका गृहसंसार.आनन्दपूर्वक चलता था। एक समय जिनदेवी रात्री को सोती हुई थी उस समय उसे एक स्वस प्राया। कह स्वम में यह देखती है कि मानो चन्द्रमा उसके मुंह में प्रवेश कर रहा है। यह स्वम देखकर वह जाग उठी और पंचपरमेष्ठि का स्मरण करने लगी। प्रातःकाल स्नानादि से निवृत हो जिनमन्दिर गई। प्रभु के दर्शन कर गुरुवन्दन करने गई उस समय वहां तपगच्छीय आचार्य मुनिचन्द्रसरि बिराजते थे। उनका ज्ञानसागर सदृश्य गम्भीर चरित्र चन्द्र से भी अधिक निर्मल था और उपदेश में उनका सानी रखने वाला दुसरा कोई न था। - जिनदेवी ने गुरुदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और रात्री में जो स्वम माया उसे गुरु महाराज के समक्ष निवेदन कर उसका फल पूछा । गुरुमहाराज स्वप्रशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता थे अतः उन्होंने कहा, "बहन ! इस स्वप्न के फल स्वरूप तुम एक चन्द्र समान पुत्र को जन्म दोगी और जिसका प्रकाश समस्त भूमंडल पर पड़ेगा।" - जिनदेवी गुरुदेव के उपर्युक्त बचन सुन कर प्रसन्न हुई और अपने घर लौटी। नौ मास सात दिन के पश्चात् गुरु महाराज के कहे अनुसार वि० सं० ११४३ को जिनदेवी ने एक महान् तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। जिस समय बालक गभ में आया उस समय माता को चन्द्रमा का स्वप्न माया प्रतः उसका नाम पूर्णचन्द्र रखा गया। पूर्णिमा का चन्द्र जब अपनी सम्पूर्ण कला से विकसित होता है तब वह धीरे धीरे घटता जाता है। किन्तु पूर्ण चन्द्र तो बालेन्दु के सदृश्य दिन प्रति दिन बढ़ता जाता है। इस प्रकार पूर्णचन्द्र खेलते कूदते बड़ा हुआ। __एक समय मद्दाहृत ग्राम में भयंकर रोग का उपद्रव हुआ। इससे समस्त ग्राम में त्राहि त्राहि मच गई और लोग गाम छोड़ छोड़ कर अन्यत्र जाने लगे। श्रावक वीरनाग ने भी मदाहृत छोड़ दक्षिण की ओर प्रयाण किया। मार्ग में भरुच नगर आया, उस समय यह नगर बड़ा सुन्दर और समृद्धिशाली होमे
SR No.541505
Book TitleMahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size11 MB
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