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दिस तौर पर गृहस्थाश्रम का पालन किया जाय तो जिन्दगी पर्यन्त प्रानन्द ही मानन्द रहेगा इसमें किसी तरह का संशय नहीं है। "ऋतौ भार्यामुपेयात्" यह वैद्यकग्रन्थ 'भावप्रकाश' के वचन अनुमार ऋतु काल में ही पत्नी-योग करने का गृहस्थों का धर्म है अर्थात् ऋतुस्नान किये बाद बारह दिन के अन्दर ही पत्नी योग करने का विधान है। वह गर्भाधान का काल है। उन दिनों में भोगाभिलाषी को सन्तति-कामना से प्रेरित होकर संग करने का लिखा है। फिर गर्भाधान के दिन से सन्तानोत्पत्ति हो और जब तक सन्तान स्तन पान छोड़ कर खुराक न लेना शुरू करे, उस समय तक पुरुष को ब्रह्मचर्य पालना चाहिये । सन्तानोत्पत्ति हुये बाद कम से कम अठारह महीना तक ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये। विषय प्रसंग बहुत ही नियमित बनाने से शरीर बल का विकास होता है; आत्मोल्लास प्रगट होता है और गृहस्थ धर्म का महान फल प्राप्त होता है। परन्तु जो लोग एक दिन का भी अन्तर नहीं रख सकते, तिथि और पर्यों की भी कदर नहीं करते उनके लिये तुलसीदासजी ने ठीक कहा है:
'कुत्ते कार्तिक माह में तजे, अन्न और प्यास । तुलसी तिनकी क्या गति, जिनके बारह सि ॥"
वादिदेवसूरि
ले बनोरिया जैन मेवाड़ी .. "श्री मद्देवगुरौ सिंहासनस्ये सति भास्वति
प्रतिष्ठायां न लग्नानि वृत्तानि महतामपि” "प्रभाचन्द्रसूरी" साड़े आठसो वर्ष पूर्व की यह बात है जब कि आबू के आस पास का प्रदेश अष्टादशसती नाम से प्रसिद्ध था। उसके अन्तरगत् मदाहत * नामक एक नगर था जो कि बड़े बड़े पर्वत और हरी हरी झाड़ियों से घिरा हुआ था। इस
* बहुत से लोग इस गांव को वर्तमान समय का माहार समझते हैं। लेखक.
इतिहासतत्त्वज्ञ मुनिश्री कल्याणविजयजी ने प्राबू की दक्षिण उपत्यका में पाया. हुमा. वैष्णवों का तीर्थ मदुभाजी माना है। हमें भी यह ठीक मालूम होता है। । जीवन चरित्र लिखने में साम्प्रदायिक झलक मालूम होती है परन्तु हमारा विचार किसी सम्प्रदाय पर भाप करने का नहीं है; खाली पौरवाल जातिवीर नर की कीर्ति बताने का ही उद्देश्य है। सम्पादक